बेबाक विचार

नकचढ़े विपक्ष की भुरभुरी मूरत

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नकचढ़े विपक्ष की भुरभुरी मूरत
पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव नतीजे अगर भारतीय जनता पार्टी के लिए खराब रहे भी, जो कि, अन्य सभी स्थितियां सामान्य रहने की दशा में, रहेंगे ही; तो भी हो क्या जाएगा? कांग्रेसियों के मनोबल में चंद रोज़ के लिए थोड़ा-सा उफ़ान आ जाएगा, ममता बनर्जी की उमंगों को थोडा़-सा सहारा मिल जाएगा और द्रमुक के नैया फिर लहरों पर उछलने लगेगी। मगर क्या इससे विपक्ष इस क़ाबिल हो जाएगा कि 2024 की गर्मियों में नरेंद्र भाई मोदी को लोक कल्याण मार्ग के राजमहल से निकाल कर साबरमती किनारे झुग्गी बसाने पर मजबूर कर दे? इन चुनावों के नतीजे दृश्य बदलेंगे, लेकिन दृश्य तो तब बदलेगा, जब विपक्षी राहगीर अपनी राह बदलेंगे। पहले तो वे राह बदलेंगे नहीं। फिर उन्हें नरेंद्र भाई का जालबट्टा राह बदलने देगा भी नहीं। तो जब अपनी-अपनी पोटली बगल में दबाए वे सब आज की ही राह पर अगले तीन साल भी यूं ही चलते रहेंगे तो नरेंद्र भाई को क्या खा कर पानी पिला पाएंगे? इसलिए मैं भी नरेंद्र भाई की ही तरह आश्वस्त हूं कि कुछ नहीं होने वाला और मेरा मन भी कदम्ब की डाल पर बैठे-बैठे उन्हीं की तरह चैन की अपनी बांसुरी बजाते रहने को हो रहा है। मगर नरेंद्र भाई जैसा सुकू़न मुझे कहां नसीब? जानता हूं कि, दूसरों को तो छोड़िए, हर-हर मोदी का नारा लगाने वालों के मुंह से भी अब बद्दुआएं निकल रही हैं, जानता हूं कि घर-घर मोदी का नारा लगाने वाले भी अपने ही घर में बिलबिलाने लगे हैं, लेकिन यह भी जानता हूं कि नरेंद्र भाई की एकदम पोली हो गई ज़मीन पर उनका एक न्यारा बंगला फिर बनने की संभावनाएं विपक्ष के भुरभुरेपन की वज़ह से अब भी बाकी हैं। सो, यह चिंता मन में लिए घूम रहे किसी की भी बंसी से कैसे कोई सुरीली धुन निकले? नरेंद्र भाई बौने थे, उनका दिल बौना था, उनका दिमाग़ बौना था, उनकी सोच बौनी थी, उनकी पहुंच बौनी थी, उनकी देशज समझ बौनी थी, उनकी वैश्विक दृष्टि बौनी थी। फिर भी बाकी तो सब बौना रह गया, मगर नरेंद्र भाई कद्दावर हो गए। सात साल में नरेंद्र भाई महाकाय होते गए। और, विपक्ष के कद्दावरों का इस बीच क्या हुआ? लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव अपने-अपने कर्मों की राजनीतिक गति को प्राप्त हो गए। उनके बेटे तेजस्वी और अखिलेश की छलांगें नरेंद्र भाई की तिकड़मों की बावड़ी में समा गईं। शरद पवार बेटी के भविष्य की ख़ातिर छद्मवेशी हो गए। मायावती के पैर भी लक्ष्मी-आरती की धुन में स्थिरता खो बैठे। चंद्राबाबू नायडू, जगन मोहन रेड्डी और के. चंद्रशेखर राव का मुलम्मा अन्यान्य कारणों से उतर गया। वैकल्पिक सियासत की नई परिभाषा गढ़ रहे अरविंद केजरीवाल ‘गुप्ताओं’ को राज्यसभा में भेजने की पायदान तक लुढ़क गए। प्रकाश करात, सीताराम येचुरी और दोराईसामी राजा के बाबावाद की वज़ह से वाम राजनीति का हंसिया भोथरा हो गया। सो, सात बरस में एक तो बचे राहुल गांधी और दूसरी बचीं ममता बनर्जी। दोनों अब भी काफी-कुछ बचे हुए हैं और ज़ोरशोर से डटे हुए हैं। मगर जो मुसीबत विपक्ष की बाकी नटखट-मंडली के साथ है, वही इन दोनों रुस्तम-ए-हिंद की बाहों पर भी बंधी हुई है। राहुल ममता के नेता नहीं हैं, ममता राहुल की नेता नहीं हैं। जैसे नरेंद्र भाई अपने 303 सेवकों के मान-न-मान मुखिया हैं, वैसे ही ममता और राहुल भी अपने-अपने ख़ादिमों के तो जबरन सर्वमान्य अधिपति हैं, मगर एक-दूसरे के पीछे चलने को उनका मन नहीं मानता। विपक्ष में सर्वसमावेशिता की इस भावना का अभाव नरेंद्र भाई की असली पूंजी है, वरना तो वे अगले ही क्षण ठन-ठन गोपाल हो जाएं। विपक्ष की इस भोली-भाली अमूर्त सूरत को नरेंद्र भाई की नज़र नहीं लगेगी तो क्या मेरी-आपकी लगेगी? शक़्लविहीन विपक्ष का चेहरा गढ़ने का काम भी क्या अब नरेंद्र भाई करें? विपक्ष का मुखमंडल रचने का प्रस्ताव ले कर केजरीवाल घर से निकल कर राहुल के पास क्यों नहीं जाते? पवार इसकी पहलक़दमी क्यों नहीं करते? ममता अब भले ही गुहार लगा रही हों, पर पहले उन्हें चिट्ठी लिखने से किसने रोका था? अखिलेश, तेजस्वी, वग़ैरह को इस सामान्य-बोध के अहसास से कौन रोक रहा है कि विपक्ष को अखिल भारतीय उत्पाद बनाना ज़रूरी है? वाम दलों को उनके दर्शनशास्त्र के पन्ने क्या यह भी नहीं सिखा पाए कि बड़ा वर्ग-शत्रु कौन है? मगर राहुल ही कौन-से सब के घर-घर जा कर विपक्षी एकजुटता की पहल कर रहे हैं? चलिए, वे नेहरू जी के पड़नाती हैं, इंदिरा जी के नाती हैं, राजीव जी के बेटे हैं और स्वाधीनता आंदोलन से जन्मी एक पार्टी के, आज अध्यक्ष भले न हों, शिखर-पुरुष हैं, तो वे किसी के यहां ख़ुद चल कर क्यों जाएं? मगर क्या उन्होंने कभी अपने दो-एक राजदूतों को ऐसी समन्वय-यात्रा करने भेजा? तो एक ऐसी विपक्षी मूरत जिसमें वे आंखें ही नहीं हैं कि कुछ देख सकें, वे कान ही नहीं हैं कि कुछ सुन सकें, वे होंठ ही नहीं हैं कि कुछ बोल सकें, उसका कोई करे तो क्या करे? विपक्षी सूरमाओं के सपाट चेहरे पर सिर्फ़ उनकी नाक है। ऐसी नाक, जो कुछ भी हो जाए, आपस में कटनी नहीं चाहिए। नरेंद्र भाई के सामने नकटा घूमना पड़े तो घूमेंगे, लेकिन अपने गांव में अपनी नाक ऊंची रहनी चाहिए। अब राहुल को कौन बताए कि चालीस साल पहले उनकी नानी ने अपने बेटे संजय गांधी को कैसे एक रात तब के अपने बेहद महत्वपूर्ण सियासी दुश्मन हेमवतीनंदन बहुगुणा को मनाने उनके घर भेजा था, कैसे संजय ने ‘मामा जी’ कह कर बहुगुणा के पांव छुए थे और कैसे बहुगुणा कांग्रेस में शामिल हो गए थे! राहुल को यह भी कौन बताए कि 22 साल पहले सोनिया गांधी कैसे 1999 के लोकसभा चुनाव से पहले अपनी घनघोर विरोधी मायावती के जन्म दिन पर ख़ुद ग़ुलदस्ता ले कर उनके घर पहुंच गई थीं और कैसे 2003 में उन्होंने एक सार्वजनिक जनसभा में मायावती को आग़ोश में ले कर दुलारा था! यह 18 साल पहले की बात है। मौसम-विज्ञानी माने जाने वाले रामविलास पासवान 2003 की सर्दियां शुरू होते-होते मुझ से बातचीत में सोनिया गांधी की तारीफ़ों के पुल बांधने लगे थे। वे दस-जनपथ के बग़ल वाले बंगले में ही रहते थे। उस साल निजी कार्यक्रम में 31 दिसंबर की शाम सोनिया उनके घर चली गईं। मैं तब नवभारत टाइम्स का राजनीतिक संवाददाता था। मैं भी वहां मौजूद था। 2004 के लोकसभा चुनावों की आधार-भूमि का यह आगा़ज़ था। दस साल बाद, 2013 के अक्टूबर महीने के दूसरे सप्ताह में तक़रीबन ऐसा ही दृश्य मैं ने फिर मंचित होते देखा, जब पाासवान अपने बेटे चिराग को ले कर एक सुबह सोनिया से मिलने दस-जनपथ पहुंच गए। हालांकि 2014 में पासवान के मौसम दिशा-सूचक यंत्र की सुइयां कहीं और मुड़ गईं, मगर मुद्दा यह है कि समान विचारों वाले राजनीतिक दलों से तालमेल बनाए रखने में सोनिया ने कभी अपनी नाक आड़े नहीं आने दी। इसलिए जब तक विपक्ष के अलग-अलग नेता अपनी-अपनी नाक की खूंटी पर लटके रहेंगे, नरेंद्र भाई की ही नाक ऊंची रहेगी। ऐसे में उनका मूंग-दलन कार्यक्रम तब तक नहीं थमेगा, जब तक देश की जनता ख़ुद ही ‘बहुत हुआ, अब और नहीं’ को अपनी नाक का प्रश्न नहीं बना ले कि ऐसे लुंज-पुंज मरघिल्ले विपक्ष तक को ठेलठाल कर विकल्प बना डाले। विपक्षी नेताओं को भले ही अपनी इस करम-गति पर लाज नहीं आ रही हो, मगर अगर तब भी मैं ‘नरेंद्र भाई, हाय-हाय’ नहीं बोलूंगा तो लाज से डूब मरूंगा। (लेखक न्यूज़-व्यूज इंडिया के संपादक हैं।)
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