राज्य-शहर ई पेपर पेरिस ओलिंपिक

मोदीजी, मेरी दुकान भी चला दीजिए!

सही बात। मोदीजी, क्यों नहीं मेरी दुकान चलवाते? आपने अरूण पुरी की दुकान चलाई। लुटियन दिल्ली की उन दुकानों (इंडियाटुडे, हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स ग्रुप से लेकर कथित राष्ट्रीय चैनलों) पर कृपा बरसा रखी है, जिन्होंने कोई 21 साल (गोधरा कांड से)आपको व आपके चाणक्य अमित शाह को ‘मास्टर डिवाइडर’, ‘मौत के सौदागर-फर्जी मुठभेड़ों के दुर्दांत अपराधी’ के नैरेटिव में दुकानें चलाई थीं, जिनके एंकर चेहरों पर बिलबिलाते हुए आप लुटियन दिल्ली को कोसते थे!तभी कैसे-कैसों, ऐसे-वैसों के साथ-साथमोदीजी, हरिशंकर व्यास और फर्रे ‘नया इंडिया’ की भी दुकान चलवा देते है! मतलब,जब सबको इतना बांट रहे है मौला तो मुझको भी कुछ बांट दे मौला!

पर जैसा अरूण पुरी ने संदेह में कहा- शायद आप मुझे कहेंगे मैं क्यों आपकी दुकान चलाऊं?

मेरे पास जवाब नहीं है। इसलिए क्योंकि मैं वह सनातनी हिंदू हूं, जिसने लुटियन दिल्ली का सत्ता धर्म नहीं निभाया। मैंने चारण परंपरा नहीं निभाई। मैंने गुलाम धर्म की पालना नहीं की। मैने वह नहीं किया जो दिल्ली सल्तनत के सत्य में अरूण पुरी, शोभना भरतीया, जैन बंधु आदि तमाम मीडिया मालिक व संपादक करते हुए थे और हैं कि दिल्ली में हमेशा राजा-बादशाह के चारण बन कर रहो। प्रजा को मोदी मोमेंट के तराने सुनाओ। सदैव झूठ बोलो। राजा को आईना न बताओ। महल पर पत्थर न फेंको। प्रधानमंत्री को सर कहकर उसके आगे रेंगते हुए कहो- दुकान मेरी चलवा दो मौला!

वैसे मैं समझ नहीं पाया हूं कि अरूण पुरी ने क्यों पत्रकारों की दुकान नहीं चलने का रोना रोया? मेरे हिसाब से तो आजाद भारत का मोदी काल मीडिया का वह सुनहरा समय है जब सरकार ने पत्रकारों के लिए मेहनत, खबर खोजने की जरूरत ही खत्म कर दी! बावजूद इसके अरूण पुरी सहित तमाम मीडिया मालिक छप्पर फाड़ कमाई कररहे हैं। मुझे नहीं लगता कि किसी की बैलेंस शीट घाटे में है। पत्रकारिता को खत्म करवा कर मीडिया की कमाई कराने की नामुमकिन बात जब मोदीजी से मुमकिन हुई है तो हिसाब से अरूण पुरी को इतना ही कहना था-तेरी ऊंची शान है मौला, तू है सब कुछ जानने वाला,मैं हूं तेरा मानने वाला!

तब मेरा, हरिशंकर व्यास का क्या कहना? मेरी तो यह यंत्रणा है कि हम कितने भयाकुल हैं मौला। हम कितने मूर्ख हैं मौला! हम कितने सत्तापरस्त और टुकड़खोर हैं मौला!

न मानें कि मैं अरूण पुरी या मीडिया मालिकों का निंदक हूं। ये बेचारे भी तो उस हिंदू तासीर के चेहरे हैं, जिसकी रग-रग में सदियों से पका भयाकुल, गुलामी और झूठ का खून दौड़ता है। सोचें, अरूण पुरी उर्फ लुटियन दिल्ली कितने सहज भावउन नरेंद्र मोदी को भारत का मोमेंट बता रही है, जो सन् 2003 में उन्हें मास्टर डिवाइडर, विभाजक, घृणा-नफरतकाक्राफ्ट्समैन मलबे-ध्वंसकेबीचका नया सम्राटबताती थी। लुटियन दिल्ली उर्फ हिंदुओं की बुद्धि के कथित श्रेष्ठि वर्ग के लिए कितना आसान है जो समय अनुसार कभी मास्टर डिवाइडरतो कभी मोदी मोमेंट का झूठ बोलना। मजेदार बात यह भी कि प्रधानमंत्री ने प्रसन्न और मुदित भाव कहा-  इंडिया टुडे ने इंडिया मोमेंट कहा तो वाह मोमेंट!

यह मनोविज्ञान मेरे जैसे सनातनी हिंदू के लिए नस्लीय विकृति है। गुलामी-झूठ में जीना है। पता नहीं यह मेरा सौभाग्य है या दुर्भाग्य जो मैंने अपने सच में लुटियन दिल्ली को समझा और उसके सत्ता धर्म को नकारा। जो सही लगा वह बेबाकी से लिखा और जिंदगी भी बिना लिफ्ट के ही उत्तरार्ध में पहुंच गई। पता नहीं इन दिनों नरेंद्र मोदी या अमित शाह मुझे पढ़ते हैं या नहीं लेकिन इतना मैं कह सकता हूं कि नरेंद्र मोदी और उनके तमाम गुरू, सहकर्मी मुझे 1983 में ‘जनसत्ता’ आरंभ से पढ़ते आए हैं। कोई इस सत्य को शायद ही नकारे कि मैं लुटियन दिल्ली में हिंदी की मुख्यधारा की पत्रकारिता में विचारने-लिखने वालों में वह अकेला था, जिसने भारत के अस्तित्व और उसकी राजनीति में हिंदू के सत्य को सतत केंद्र में रखा। फिर भलेमुझे कोई कम्युनल हिंदू कहे या भाजपाई पत्रकार। तब लुटियन दिल्ली की पत्रकारिता सौ टका प्रगतिशीलता, सेकुलर, वापपंथी लाल तासीर में वैसी ही रंगी हुई थी जैसे इन दिनों भगवा रंग में है। जब 1983-84में मुझे‘जनसत्ता’ की टीम बनाने का मौका मिला तो रामबहादुर राय, अतुल जैन, हेमंत शर्मा, श्याम आचार्य, अच्युतानंद, प्रदीप, आनंद, बंसल, पांडे जैसों की नौकरी बनवाई। मगर हां, एक सनातनी के नाते हमेशा हिंदू बनाम मुस्लिम, प्रगतिशील बनाम पुरातनपंथी,  विद्यार्थी परिषद् बनाम वामपंथी का भेद सोचे बिना काबलियत की कसौटी पर। जबकि वह वक्त था जब किसी भी तरह का हिंदुवादी, संघ, एबीवीपी, भाजपाई या आर्यसमाजी, गायत्रीपरिवारी मीडिया नौकरी के लिए अछूत व अनुपयुक्त था।

जो हो, मेरे कारणऔर खासकर मेरे समाचार प्रमुख होने के कारण‘जनसत्ता’ वह अखबार था, जिसमें वाजपेयी, आडवाणी, गोविंदाचार्य, नरेंद्र मोदी, खुराना, जेटली-गोयल-मित्तल आदि की खबरें, विज्ञप्तियां दिल्ली के लोकल पेज से लेकर, गपशप, चुनावी रिपोर्टिंग में जगह पाती थीं। इससे 11,अशोक रोड के तमाम बाशिंदे कुशाभाऊ ठाकरे, आडवाणी, वाजपेयी, गोविंदाचार्य, नरेंद्र मोदी आदि की भीड़ दो सांसदों की हैसियत के बावजूद छपास का संतोष लिए होती थी। ध्यान रहे 1984 में भाजपा गांधीवादी समाजवाद की जुमलेबाजी के साथ दो सांसदों की पार्टी थी। मैं बतौर ब्यूरो प्रमुख भी राष्ट्रीय राजनीति की कवरेज में ‘जनसत्ता’ का अकेला खबरनवीस था। लोकसभा में सीढ़ी के नीचे के एक संकरे गलियारे के ऑफिस में तब आडवाणी, राजेंद्र शर्मा, विजयाराजे सिंधिया, जेपी माथुर, कुशाभाऊ ठाकरे जैसे इने-गिने चेहरे अपनी कुंठाओं, अपनी छपास में मेरे पर और अंग्रेजी के एक पी शर्मा पर निर्भर हुआ करते थे। फिर आडवाणी ने 1987-88 में भाऊराव देवरस से बात करके संघ के प्रचारक गोविंदाचार्य, नरेंद्र मोदी को संगठन में ले कर 11,अशोका रोड के पिछवाड़े में रहने का कमरा दिए तो इनकी पहचानभी ‘जनसत्ता’ से बनी थी। अरूण जेटली का वीपी सिंह के यहां जुगाड़ हो या खुराना-आडवाणी का मंदिर आइडिया-पालनपुर प्रस्ताव हो या गोविंदाचार्य द्वारा आडवाणी के दिमाग में सोशल इंजीनियरिंग याकि पिछड़े नेता (कल्याणसिंह, सुशील मोदी, उमाभारती आदि) या आडवाणी-कुशाभाऊ-खुराना द्वारा जेटली की मौन लॉबिग से नरेंद्र मोदी को गुजरात भेजने की तमाम घटनाएं अपनी आंखों में, गपशप के आइटमों में रही हैं। सचमुच ‘जनसत्ता’ की टीम का बड़ा महत्व था। कोई नेता रिपोर्टर अतुल जैन के घर जा कर अड्डेबाजी करता था तो रायसाहब की गोविंदाचार्य से अंतरंगता में मैं भी नए चेहरों पर गौर करता होता था।

विषयांतर हो रहा है। मोटी बात, ‘जनसत्ता’ और उसके बाद ‘पंजाब केसरी’, ‘पॉयनियर’ आदि अखबारों के अपने सिंडिकेटेड ‘गपशप’ कॉलम में, अपने खुद के प्रकाशन में मेरा यह सोचना-लिखना बेबाक था कि अयोध्या में मस्जिद ध्वंस, गोधरा कांड, गुजरात दंगों आदि मामलों में अर्जुनसिंह, अहमद पटेल की कांग्रेस कमान गलत दिशा में है। कोई माने या न माने मेरा लगातार मानना रहा है कि इस्लाम सेअनुभव में देश-दुनिया बदली है। खासकर 9/11 के बादमुझे इस्लाम से बदलती राजनीति दो टूक दिख रही थी। तभी मैंने लगातार लिखा कि लालू यादव हो या अहमद पटेल या वामपंथी, सेकुलर सभी गलती कर रहे हैं, जो वे गोधरा और गुजरात दंगों सबके पीछे मोदी की साजिश का हल्ला बूझ रहे हैं। इससे वे हीरो बनते हुए हैं। वे परिस्थितियों का चतुराई सेफायदा उठा रहे हैं। वे लुटियन दिल्ली के ही झूठ से हिंदुओं के नायक और विकल्प बन गए हैं।

और होनी को बूझने में मैं सही साबित हुआ। वही हुआ जो बूझ और लिख रहा था।परिवर्तन की स्वाभाविक जरूरत में मैने 2014 में वैसी ही उम्मीद बनाई जैसी वीपीसिंह से बनाई थी। मैंने मोदी से लुटियन दिल्ली को बदलने, उसकी सड़ी-गुलाम दुकानों के खत्म होने की उम्मीद पाली। पर जो हुआ वह सामने है। बहुत जल्दी मुझे खटका होने लगा।नरेंद्र मोदी की पहली जापान यात्रा में जब मैंने सुना कि वे गौतम अदानी,अंबानी को साथ ले जा रहे हैं या जेटलीजी का पहला बजट भाषण मैने जाना तो इसी कॉलम में लिख मारा, मोदी क्यों अदानी को ले जाएं? यह क्या! और फिर सन् 2016 में नोटबंदी का फैसला सुना तो अपने को टका समझ आ गया, गई भैंस पानी में!

तब भला किस मुंह मोदीजी से कहूं- सर, मेरी भी दुकान चला दीजिए। जब मैंने लुटियन दिल्ली का सत्ता धर्म, सत्ता की चाकरी और चारणी नहीं की तो सत्ता के दुकानदार से मांगना कैसे संभव? मोदीजी को दिल्ली में मेरे से फायदा हुआ जो उनके बहीखाते में मेरी एट्रीं हो। दिल्ली की सत्ता दुकान में गुलामों के धंधे के बहीखाते में बारीकी से हिसाब लिखा रहता हैकि किससे लाभ, नुकसान और कौन फिजूली! उस अनुसार आजाद भारत में राजपथ की परेड, एटहोम पार्टी या जन्म-मृत्यु के संदेश देने न देने का राजकीय व्यवहार है। मुझे वैदिकजी की अंत्येष्टि में लुटियन दिल्ली के एक सभ्रांत ने कहा, मोदीजी का शोक संदेश नहीं था। मैं क्या जवाब देता। मोदीजी ने बहीखाता देख कर हिसाब लगाया होगा। सो, सत्ता का व्यापारी बहीखाता यूज और थ्रो से लेकर दुकानदारी के नित नए टारगेट बनाए होता है। मार्केंटिंग, ब्रांडिंग और सेल्समैन के नए-नए गुरूमंत्र बनते हैं। कभी अमृतकाल से तो कभी इंडिया मोमेंट के मंत्र से मार्केटिंग।

तो बात कहा खत्म करूं? मैं भी मांगूगा मोदीजी- मेरी अर्जी मान लेमौला, मुझको दे दो सेंट्रल हॉल मौला! कभी मैं ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम करता था। उसका कॉन्सेप्ट मैंने पत्रकारिता से रिटायर होने के बाद टाइमपास में संसद भवन के सेंट्रल हाल में फुरसत के विचार सुख की अनुभूति में बनाया था। लुटियन दिल्ली के हम रिटायर वरिष्ठतम पत्रकारों की गपशपका सेंट्रल हॉल कभी ठिकाना था। लंच के बाद मैं अक्सर सेंट्रल हॉल चला जाया करता था। वहां सांसदों-पत्रकारों के गपशप और दीवालों पर लगे भारत नियंताओं के फोटो देख भारत और हिंदुओं को समझा करता था। मगर मोदीजी को लगा यह तो पत्रकारों की दुकान! तो मोदीजी ने पत्रकारों के लिए सेंट्रल हॉल बंद करा दिया। सो, इन दिनों कहीं हम सीनियर पत्रकार मिलते है तो याद आता है सेंट्रल हॉल का ठिकाना। इसलिए मोदीजी, हम पत्रकारों के लिए सेंट्रल हॉल खुलवा दीजिए। अपने बिड़लाजी से कहकर इतना तो करवा दीजिए। इतने भर में ही हम पत्रकारों की दुकान चल जाएगी! और हां, मेरी गारंटी है कि सेंट्रल हॉल में लगी गांधी, नेहरू, लोहिया, मुखर्जी, सावरकर आदि की तस्वीरों से मैं आपके मोमेंट की कतई तुलना नहीं करूंगा।

Tags :

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

और पढ़ें