बेबाक विचार

अमेरिका से जरूर करें सैन्य संधि!

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अमेरिका से जरूर करें सैन्य संधि!
मैं आज कॉलम अपने डॉ. वैदिक के इस मत के प्रतिवाद में लिख रहा हूं कि हमें अमेरिका का मोहरा, पिट्ठू नहीं बनना चाहिए। मेरा उलटा मानना है। हमें वह सब करना चाहिए, जिससे अमेरिका, पश्चिमी देशों, जापान, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, ताईवान, आसियान सभी की ओर से भारत को चीन से सटी कोई चार हजार किलोमीटर लंबी सीमा पर अपनी दबंगी बनाने की ताकत मिले। भारत वह करे, जिससे चीन हमेशा के लिए समझ जाए कि यदि उसने अरूणाचल प्रदेश, लद्दाख, नेपाल, भूटान की सीमा में सैनिक बढ़ाए, सीमा पार आंख उठाई तो अमेरिकी सेटेलाइट, उसके बममारक ड्रोन आंख फोड़ डालेंगे। हां, भारत द्वारा ऐसा सैन्य पैक्ट बनाना अमेरिका का मोहरा बनना नहीं है और न पिट्ठ व गुलाम होना है। भारत की मौजूदा और आने वाली पीढ़ियों को समझ लेना चाहिए, समझा देना चाहिए कि हम हिंदुओं को सभ्यताओं के संघर्ष के लिए कमर कसके रखनी है। भारत के भावी संघर्ष में सीमा पर पाकिस्तान-इस्लाम की जिहादी तलवारें हैं तो चीन-हान सभ्यता के गरूर का ड्रैगन भी। हमें दोनों से लड़ना होगा, सतत लड़ते रहना होगा। हमारा भूगोल सभ्यता के संघर्ष का अनिवार्य पानीपत मैदान है। इसे कश्मीरियत, इंसानियत, भाईचारे, बस यात्रा, गलबहियों, कभी नवाज के घर पकौड़े खाने व कभी शी जिनफिंग के संग झूला झूलते हुए वुहान स्पिरिट जैसे टोटकों, जुमलों से मिटाया नहीं जा सकता है। भूगोल हमारी मजबूरी है और इतिहास हमारी विरासत है तो हान सभ्यता के मंसूबे की चुनौती व जिहाद-क्रूसेड का इतिहास अमेरिका का भी सत्य है। भारत बनाम अमेरिका व उसके साथी देशों का फर्क यह है कि वे देश बुद्धि बल से भविष्यगत समझ-तैयारी-रणनीति याकि फ्यूचरिस्टिक विजन लिए हुए हैं। पश्चिमी देश समर्थ हैं। वे जिंदादिल हैं और दुनिया के चौकीदार हैं। अमेरिका ओसामा बिन लादेन की ललकार में अफगानिस्तान में जा कर लड़ाई लड़ सकता है। इराक में सद्दाम हुसैन को खत्म कर सकता है तो बगदादी को भी खत्म कर देता है। जबकि हममें न अफगानिस्तान में सेना तैनात कर तालिबानियों को खत्म करने की हिम्मत है और न भावी वैश्विक संकटों को बूझने, तैयारी और लड़ने की बुद्धी व दूरदृष्टि है। न हम अपने को बना सकते हैं और न अपनी गली, अपने पड़ोस के नेपाल, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका, मालदीव जैसे देशों को बना सकते हैं या उनके संरक्षक, गॉडफादर हो सकते हैं। सत्य, कटु सत्य की इस असलियत में हाल के सालों का गुणात्मक परिवर्तन है कि चीन का वैश्विक मिशन मुखर हो गया है। चीनी नस्ल अपने राष्ट्रीय गरूर में अपनी पताका को नंबर एक बनाने की धुन में है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और बीजिंग का सत्ता प्रतिष्ठान, उसका थिंक टैंक दुनिया का नंबर एक दादा बन रहा है। वह अमेरिका, रूस, यूरोप, जापान, इस्लाम, यहूदी, हिंदू सबसे श्रेष्ठ सभ्यता और अपने सिस्टम के गुमान में है। चीन की दृष्टि से सोचें तो उसका वर्चस्ववादी, साम्राज्यवादी, विश्वगुरू, विश्वकुबेर बनने का घमंड स्वभाविक है। हान सभ्यता, संस्कृति, इतिहास की विरासत के साथ यदि आधुनिक रूप में अपने को अव्वल पाती है तो वह क्यों नहीं दुनिया फतह करने की सोचेंगी! जब किसी की ताकत बढ़ती है तो वह लगातार ताकतवर बनते जाने की धुन में केंद्रित होता जाता है। वह छोटी मछलियों को खाएगा, कमजोर पर धौंस बढ़ाएगा। रावण बनता जाएगा। इक्कीसवीं सदी के इस सिनेरियो के रावणों से भारत अकेले नहीं लड़ सकता है। सभ्यता, इतिहास की कसौटी में हम हिंदुओं के लिए, भारत राष्ट्र-राज्य के लिए ईसाई-यहूदियों का साथ बनाना इसलिए हितकारी है क्योंकि न तो परस्पर स्वार्थ टकराते हैं, न मिजाज टकराता है और न आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों, व्यवहार, आदर्शों में वह भिन्नता है, जिससे साथ चलना संभव न हो। हां, यह अनुभव-व्यवहार बोलता हुआ है कि चीन या सऊदी अरब में भारतीय और खासकर हिंदू यदि जीवन जीयें तो वह वहां रम नहीं सकता जबकि इजराइल, ब्रिटेन, अमेरिका में भारतीय मजे से घर जैसा फील करेगा। आज और कल दो दिन रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस जयशंकर दिल्ली में अमेरिका के दो मंत्रियों सें बात करेंगे इनके साथ दोनों का सहजता, कंफर्ट लेवल वह होगा, जो चीनी या सऊदी मंत्रियों के साथ हो ही नहीं सकता। मतलब इतिहास-सभ्यतागत-सैनिक जरूरत, सहज केमिस्ट्री की ठोस दोस्ती, सामरिक सहयोग संधि कतई मोहरा या पिट्ठू बनना नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की बड़ी राष्ट्रसेवा, आने वाली पीढ़ियों की सुरक्षा का पुण्य होगा यदि अमेरिका के साथ वे सैनिक संधि करें और सीमा के उन तमाम मोर्चों पर अमेरिकी चौकसी बनवा दें, जिससे चीन आंख उठाने से पहले दस बार सोचने को मजबूर हो। चीन नाराज हो जाए, स्थायी दुश्मन बन जाए, इसकी चिंता रत्तीभर नहीं होनी चाहिए। क्यों? पहली बात चीन दुश्मन था, है और रहेगा। दूसरी बात नाराज हो कर वह भारत के उत्तर-पूर्व में उपद्रव करवाए, अलगाववादियों को बढ़वाए, दक्षिण एशिया में अपनी दादागिरी बनाए तो ऐसा वह पहले भी कर चुका है और अब भी कर रहा है। यदि भारत और अमेरिका ठोस सैनिक-सामरिक संधि में बंधते हैं तो दक्षिण एशिया के तमाम छोटे देश तब जान लेंगे कि भारत के प्रति हिमाकत अमेरिका-भारत एलायंस की हिमाकत है। इसलिए परोक्ष समझौतों, गोलमोल बातों के बजाय हमें सीधे अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया-जापान-भारत का घोषित सैनिक एलायंस बनाने में जुटना चाहिए। इसके साथ यदि इजराइल जुड़ जाए तो सोने में सुहागा होगा। पांच देशों का एलांयस तब पूरे एशिया में हान-इस्लामी विस्तारवादी मंसूबों के प्रतिरोध में वह सब कर सकेगा जो वक्त का, भविष्य का तकाजा है। भारत के हम लोगों को समझ लेना चाहिए कि चीन के खिलाफ पूरे अमेरिका में अब स्थायी मूड है। डोनाल्ड ट्रंप के साथ जो समझौता करेंगे उसे बाइडेन भी मानेंगे। अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी हो या डेमोक्रेटिक पार्टी दोनों में चीन को रोकना और चीन-अफगानिस्तान- पाकिस्तान-मध्य एशिया के हालातों, भावी सिनेरियो में भारत के साथ एलायंस की जरूरत समान रूप से है। इसलिए अमेरिका का मूड भी भारत के लिए सैन्य पैक्ट पकाने का मौका है। पीवी नरसिंह राव का भला हो जो बिल क्लिंटन के जरिए उन्होंने वहां के विदेश मंत्रालय में वह केमिस्ट्री बनवा दी जो रिपब्लिकन बुश हों या डेमोक्रेट ओबामा या ट्रंप और आगे बाइडेन सब जैसा भारत चाहता है वह करेंगे। उस नाते कमी भारत की तरफ से रही है। भारत के प्रधानमंत्री (नरेंद्र मोदी सहित) सब कुछ समझते हुए भी भय और डर के कारण अमेरिका से खुले एलायंस से बिदके रहे हैं। नरेंद्र मोदी, जयशंकर अमेरिका के साथ दोस्ती के मतलब जानते हैं और यदि ये ट्रंप के जरिए अमेरिका से खुले सैनिक रिश्तों का एलायंस बना लेते और चीन के साथ सीमा पर अमेरिकी निगरानी वैसी बनती जैसी, यूरोप में रूस की सीमा पर अमेरिका की है तो चीन की मजाल नहीं होती जो वह गलवान घाटी में घुसा होता। हमारे वैदिकजी कहेंगे मैं क्या कुफ्र कर दे रहा हूं। मैं नाटो, सीटो, सेंटो या वारसा-पैक्ट जैसे सैन्य गुट वाला फैसला चाह रहा हूं। हां, चाहता हूं। भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान का सैन्य गुट बने तो भारत न केवल सुरक्षित बनेगा, बल्कि पूरे एशिया में भारत की इमेज महाशक्ति, रक्षक, सरंक्षक की बनेगी। ऐसा होना मोहरा-पिट्ठू बनना नहीं है। इसलिए कि दुनिया का हर देश जान रहा है कि चीन विस्तारवादी, साम्राज्यवादी है और उसे रोकना दुनिया की जरूरत है। तभी भारत-अमेरिका का सैन्य गुट बनाना सर्वत्र सही फैसला माना जाएगा। सैन्य गुट बनने से भारत की हिम्मत बनेगी। भारत को साधन मिलेंगे। भारत को नैतिक बल मिलेगा। अंतरराष्ट्रीय मंचों में ब्राजील, दक्षिण अफ्रिका (जो विश्व मंचों में प्रतिनिधित्व के नाते कंपीटिटर हैं) से अधिक रूतबा बनेगा। और यदि समझदारी-विजन से कूटनीति हो तो ब्रिटेन, यूरोपीय संघ, कनाडा से भी भारत फायदे उठा सकेगा। ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर हो रहा है। वह अब तमाम देशों से अलग-अलग व्यापारी समझौते कर रहा हैं। उस नाते भारत को ब्रिटेन और उसके जरिए राष्ट्रमंडलीय देशों में मुक्त व्यापार का ऐसा कोई समझौता बनवाना चाहिए, जिससे चीन का निर्यात रूके और राष्ट्रमंडल देशों का आपस में व्यापार बढ़े। पर यह सब बाद की बातें हैं। फिलहाल चीन की चुनौती के आगे भारत को वैश्विक मोर्चा बनाना है। अपनी तरफ से सीमा पर अमेरिकी सहयोग बनाना है। उस नाते अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ और रक्षा मंत्री मार्क एस्पर आज और कल दिल्ली में विदेश और रक्षा मंत्री के साथ जो समझौता कर रहे हैं उसे यदि मोदी सरकार अमेरिका से सैनिक एलायंस का रूप दे और अमेरिका के मंत्री सीमा मामले में भारत के साथ खड़े हो कर चीन को चेताएं तो बीजिंग चिंता में आएगा। मोदी सरकार को मौका नहीं चूकना चाहिए। उसे भी खुल कर बोलना चाहिए। दिल्ली में अमेरिकी सरकार के दो आला मंत्री चीन के खिलाफ भारत के पक्ष में दो टूक स्टैंड लें, भारत को सैनिक सहयोग की बात करें तो आगे की सैन्य-सुरक्षा संधि का रास्ता निश्चित बनेगा। इसलिए गोलमोल बात न हो। सैनिक सहयोग के समझौते के गोलमोल नाम जैसे ‘बुनियादी विनिमय और सहयोग समझौता’ (बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट) न हो, बल्कि सीधी बात हो कि भारत को सीमा पर अमेरिका मदद करेंगा। भारत की सीमा सुरक्षा अमेरिका की भी प्राथमिकता है। सवाल है क्या इससे भारत में बवाल नहीं होगा? कतई नहीं। चीन-पाकिस्तान के साझे में अब कांग्रेस हो या कोई और पार्टी सब चाहते हैं कि चीन की दादागिरी के आगे भारत दो टूक रणनीति बनाए। फिर यह क्यों भूल जाते हैं कि डॉ. मनमोहन सिंह सरकार ने भी अमेरिका के साथ दोस्ती को सामरिक रूप देने में दिन रात एक किया था। सो, फालतू की चिंता और फालतू के डर से बाहर निकलें। भारत को चीन की दादागिरी के स्थायी इलाज के लिए, भविष्य के सभ्यतागत संघर्ष के सिनेरियो में अमेरिका से सैन्य पैक्ट का तानाबाना बना एशिया में अपने को चीन के आगे खड़ा होना चाहिए।
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