बेबाक विचार

आए तो हरि भजन को ही थे नरेंद्र भाई

Byपंकज शर्मा,
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आए तो हरि भजन को ही थे नरेंद्र भाई
विपक्ष को तो वर्तमान राजनीतिक क्षितिज पर नरेंद्र भाई की उपस्थिति के लिए अयोध्या-नरेश का आभार मानना चाहिए। मोदी हैं तो विपक्ष के लिए मुमकिन है। मोदी न होते तो विपक्ष के लिए शायद मुमकिन ही न होता। सो, जो होता है, अच्छे के लिए ही होता है। कभी-कभी मैं अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी के अंतर्मन का विश्लेषण करने की कोशिश करता हूं तो मेरा अंतर्मन तरल हो जाता है। मुझे लगता है कि वे पृथ्वी पर आए तो हरि भजन को थे, मगर ओटन लगे कपास। सो भी ऐसी कपास, जिसे ओटते-ओटते, लगता है कि, वे ख़ुद ही ओटनी बन गए हैं। बहुत बार मुझे महसूस होता है कि नरेंद्र भाई हैं तो मूलतः अनिच्छुक-राजनीतिक, लेकिन चूंकि बेहद हठी हैं, इसलिए जब एक बार सियासत में आ गए तो उस का दक्षिणमार्गी कर्मकांड पूरा करने में तमाम वाममार्गी तौर-तरीके झौंक देने से भी झिझक नहीं रहे हैं। राजनीतिक तंत्र के षट्कर्मों का ऐसा अघोर- साधक मैं ने तो न देखा, न सुना। भारत की राजनीति में नरेंद्र भाई के उद्भव के पहले वशीकरण, विद्वेषण और उच्चाटन के ऐसे बहुआयामी प्रयोग क्या आप ने कभी देखे थे? सो, उन से वैचारिक और कार्यशैली संबंधी कई असहमतियों के बावजूद मैं फिर कहता हूं कि उन-सा नहीं देखा। हरि भजन को न आए होते तो 57 साल पहले नरेंद्र भाई स्वामी आत्मस्थानंद के पास संन्यास की दीक्षा लेने क्यों जाते? 16 बरस की उम्र में सांसारिकता त्यागने का भाव हमारे-आपके मन में तो कभी नहीं आया था। हम-आप तो तब प्रशासनिक सेवा, डॉक्टर, इंजीनियर, कारोबारी बनने के सपने पाल रहे थे। तो नरेंद्र भाई में कुछ तो अलग था, जो हम में नहीं था। यह अलग बात है कि स्वामी आत्मस्थानंद ने उन्हें संन्यास दिलाने से इनकार कर दिया और सांसारिक मार्ग के भी सब से मुश्क़िल झमेले को चुनने की सलाह दे डाली। इस के बाद ‘मैं ने चुन लिया’ अंदाज़ में एक बार जब नरेंद्र भाई निकल पड़े तो रुकने का नाम ही कहां ले रहे हैं? सोचिए, अगर कहीं वे संन्यास ले पाते तो उन की यात्रा कहां जा कर रुकती! मैं नरेंद्र भाई मोदी को भीतर से एक बेतरह व्यथित और अकेला व्यक्ति पाता हूं। ज़रा एक ऐसे व्यक्ति के बारे में सोचिए, जो किशोर वय से ही संन्यास लेने की सोच रहा हो, 18 साल की उम्र में जिस का विवाह हो जाए, चंद महीनों में ही वह वैवाहिक जीवन से अनमना हो जाए, 19 साल का हो तो उस के पिता न रहें और फिर 21 साल की उम्र में जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन जाए! मां, एक बड़ा भाई, तीन छोटे भाई और एक छोटी बहन के भरे-पूरे परिवार की यादें और संघ-प्रचारक की बंजारा ज़िंदगी के विरोधाभास मनुष्य-मन में कुछ अंतर्विरोध तो उपजाते ही होंगे। किसी के भी व्यक्तित्व निर्माण में परिस्थितियों की भूमिका तो होती ही है। इसलिए हमारे प्रधानमंत्री जैसे हैं, जानबूझ कर नहीं हैं, परिस्थितिजन्य हैं। मुझे लगता है कि वे उदारमना-भाव से रहना चाह कर भी रह नहीं पाते हैं, वे कवि-मन से जीना चाह कर भी जी नहीं पाते हैं और वे चाह कर भी अपने को एक संवेदनहीन मुखिया की सख़्त खोल से बाहर नहीं निकाल पाते हैं। उनकी इन मजबूरियों ने उन्हें और जटिल बना दिया है। वे मुझे हर रोज़ स्वयं की जटिलताओं से जूझते और थकते-हारते दिखाई देते हैं। इस चक्कर में वे कृत्रिम-से हो गए हैं। बहुत-से लोग परिवार से नरेंद्र भाई की दूरी पर टिप्पणियां करते हैं। कहते हैं कि भाई-बहनों को भले न सही, मां को तो वे प्रधानमंत्री निवास में अपने साथ रख ही सकते हैं। कहते हैं, मां ज़्यादा-से-ज़्यादा दो रोटियां ही तो खा लेती। नरेंद्र भाई के भाइयों और जीजा द्वारा मामूली नौकरी-व्यवसायों में ज़िंदगी बसर कर देने का महिमामंडन करने वाले भी मां को साथ न रखने के उन के फ़ैसले पर कुनमुनाते हैं। लेकिन मैं इस मामले में नरेंद्र भाई की तारीफ़ करूंगा। वे संघ के प्रचारक रहे हैं। प्रचारक अपने परिवार के साथ नहीं रहते। प्रचारक अपना परिवार साथ नहीं रखते। अब वे प्रधानमंत्री बन गए हैं तो क्या हुआ? वे संघ के स्वयंसेवक पहले हैं, बाद में कुछ और। सो, अगर वे संघ की आचरण-संहिता का अनुगमन करने के लिए अपनी छाती पर इतना बड़ा पत्थर रखे हुए हैं कि सौ साल पूरे कर लेने वाली अपनी मां से भी दूर रह रहे हैं तो, आप को उन की व्यथा न समझनी हो, मत समझिए, मैं तो उन के मन की इस दृढ़ता के भावार्थ का स्वागत करता हूं। जिस धरती पर पूर्ण संन्यास लेने के बाद घर नहीं लौटा जाता है, मगर फिर भी आदि-शंकराचार्य जैसे परम संन्यासी तक को वृद्धा मां की यादें सनातन परंपरा की सारी आचरण संहिता ताक पर रख कर एकबारगी तो घर की दहलीज़ पर लौटा लाईं, वहां पूर्ण संन्यास लेने से वंचित रहे किसी व्यक्ति का दर्दीला मर्म समझने की कोशिश न करने वाले क्रूर हैं, धूर्त हैं। नरेंद्र भाई में कई ऐब हैं। लेकिन ऐब-ही-ऐब हैं, ऐसा नहीं है। इसलिए अगर उनके व्यक्तित्व के एकाध पहलू से ख़ुशबू आती है तो उस पर जबरदस्ती नाक-भौं मत सिकोड़िए। वे अहंकारी हैं या नहीं, मालूम नहीं; लेकिन लगते अहंकारी ही हैं। वे अक्खड़ है या नहीं, मालूम नहीं; मगर लगते अक्खड़ ही हैं। वे अपने को सर्वज्ञाता समझते हैं या नहीं, मालूम नहीं; मगर लगता ऐसा ही है कि वे ख़ुद को सर्वज्ञाता समझते हैं। वे तस्वीरें खिंचवाने के इस हद तक शौक़ीन हैं या नहीं कि किसी और को बगल तक में खड़ा नहीं होने देते हैं, मालूम नहीं; लेकिन उनकी मुख-मुद्राएं और हाथों के इशारे संदेश यही देते हैं। दिन में चार-चार बार कीमती कपड़े, चश्मे, घड़ियां बदल-बदल कर पहनने का घनघोर व्यसन उन में है या नहीं, मालूम नहीं; मगर लोगों की धारणा यही है। लेकिन बावजूद इस सब के वे परिश्रमी भी तो हैं, वे निर्णयात्मक भी तो हैं, वे धुनी भी तो हैं। अब यह अलग बात है कि वे किस ध्येय को हासिल करने की धुन में हैं? उन के निर्णयों से देश की सेहत पर क्या असर पड़ रहा है? उन का परिश्रम हमें किस दिशा में ले जाने के लिए है? इसे गनीमत समझिए कि नरेंद्र भाई मोदी ऐसे हैं। वे ऐसे हैं, इसीलिए विपक्ष की यह आस अभी बाकी है कि 2024 न सही, 2029 में तो उस का राज आ ही जाएगा। सोचिए, अगर कहीं नरेंद्र भाई की जगह अटल बिहारी वाजपेयी 2014 में भारतीय जनता पार्टी की 282 और 2019 में 303 सीटें ले कर आए होते तो क्या विपक्ष उन के जीते-जी अपनी वापसी की बात सोच भी सकता था? नरेंद्र भाई ही अगर अपना अटल वाजपेयीकरण कर लेते तो मौजूदा विपक्ष का हाल क्या और भी बुरा नहीं होता? विपक्ष जितना भी ज़िंदा है, इसीलिए है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नरेंद्र भाई मोदी विराजमान हैं। हंसता, मुस्कराता, गले-से-गले लगाता, सब को साथ ले कर चलता और भय के बजाय प्रेम बिखेरता कोई प्रधानमंत्री रायसीना-पहाड़ी पर बैठा होता तो क्या राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में हज़ारों लोग उन के साथ आज चल रहे होते? इसलिए विपक्ष को तो वर्तमान राजनीतिक क्षितिज पर नरेंद्र भाई की उपस्थिति के लिए अयोध्या-नरेश का आभार मानना चाहिए। मोदी हैं तो विपक्ष के लिए मुमकिन है। मोदी न होते तो विपक्ष के लिए शायद मुमकिन ही न होता। सो, जो होता है, अच्छे के लिए ही होता है। लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।
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