भारत सरकार ने अमेरिकी विदेश मंत्रालय की आशिंक फंडिंग से चलने वाली संस्था फ्रीडम हाउस के स्वतंत्रता सूचकांक को लेकर लंबा जवाब दिया है। जबकि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने कहा कि इस सूचकांक को ज्यादा गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है। सीतारमन ने कहा कि इस सूचकांक को उतनी ही गंभीरता से लेना चाहिए, जितना उसके द्वारा दिखाए गए भारत के नक्शे को। उस नक्शे में कश्मीर को भारत का क्षेत्र दिखाने के बजाय विवादास्पद क्षेत्र के रूप में दिखाया गया है। तो सीतारमन का कहना था कि फ्रीडम हाउस का नक्शा जितना सही है, उतना ही सही उसका सूचकांक है। लेकिन अगर ऐसा है, तो फिर भारत सरकार ने बिंदुवार उसका जवाब देने की जरूरत क्यों महसूस की? भारत में सरकार के समर्थक सीतारमन की राय से चलेंगे। वे कहेंगे कि हमें किसी के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है। जबकि विदेशों में जहां इस रिपोर्ट को गंभीरता से लिया जाएगा, वहां सरकारी जवाब में हर बात को गलत बता देने भर से कोई बात नहीं बनेगी। आखिर दुनिया अपनी आंखों से घटनाओं को देखती है और उसके बारे में रिपोर्ट बनाती है।
गौरतलब है कि फ्रीडम हाउस ने आजादी के सूचकांक में भारत को 'आजाद' से गिरा कर 'आंशिक रूप से आजाद' स्तर पर ला दिया है। संस्था का कहना है कि भारत में आम आदमी के अधिकारों का हनन हो रहा है और मूलभूत स्वतंत्रताओं को छीना जा रहा है। 'फ्रीडम हाउस' एक अमेरिकी शोध संस्थान है, जो हर साल 'फ्रीडम इन द वर्ल्ड' रिपोर्ट निकालता है। इस रिपोर्ट में दुनिया के अलग-अलग देशों में राजनीतिक आजादी और नागरिक अधिकारों के स्तर की समीक्षा की जाती है। ताजा रिपोर्ट में संस्था ने भारत में अधिकारों और आजादी में आई कमी को लेकर गंभीर चिंता जताई है। उसने विशेष रूप से नरेंद्र मोदी सरकार की आलोचना की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही देश में राजनीतिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता में कमी आई है। संस्था का आंकलन है कि भारत में मानवाधिकार संगठनों पर दबाव बढ़ा है, विद्वानों और पत्रकारों को डराने का चलन बढ़ा है और विशेष रूप से मुसलमानों को निशाना बना कर कई हमले किए गए हैं। इस पर दो दिन की चुप्पी के बाद सरकार की प्रतिक्रिया आई। लेकिन उससे कोई बात बनेगी, इसकी संभावना कम है। बेहतर इस पर विचार करना होगा कि आज दुनिया हमारे बारे में ऐसा क्यों सोच रही है?
जरूरत आत्म-निरीक्षण की
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