नेपाल के नए सत्ताधारी गठबंधन ने अपने साझा न्यूनतम कार्यक्रम में कहा है- ‘सत्ताधारी गठबंधन लिम्पियाधुरा, कालापानी और लिपुलेख इलाकों को नेपाल में वापस लाने’ में प्रभावशाली भूमिका निभाएगा।
नेपाल में नए बने सत्ताधारी गठबंधन ने अपने शासनकाल की जो प्राथमिकताएं तय की हैं, उनमें एक प्रमुख उन इलाकों को देश में वापस लाना है, जिनका इस गठबंधन के मुतबिक भारत ने ‘अतिक्रमण’ कर रखा है। गठबंधन ने अपने साझा न्यूनतम कार्यक्रम में कहा है- ‘सत्ताधारी गठबंधन लिम्पियाधुरा, कालापानी और लिपुलेख इलाकों को नेपाल में वापस लाने’ में प्रभावशाली भूमिका निभाएगा। नेपाल ने इस इलाकों पर दावा 2020 में जारी अपने नए नक्शे में जताया था। तब कहा गया था कि 2019 में धारा 370 खत्म करने के बाद भारत ने अपना जो नया राजनीतिक नक्शा जारी किया था, उसके मद्देनजर नेपाल की यह जवाबी कार्रवाई थी। तब केपी शर्मा ओली नेपाल के प्रधानमंत्री थे। अब प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल हैं, लेकिन सत्ताधारी गठबंधन में सबसे बड़ा दल ओली की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूएमएल) है। दहल भी कम्युनिस्ट नेता हैं। बीते 25 दिसंबर के पहले उनकी पार्टी नेपाली कांग्रेस के साथ गठबंधन में थी, लेकिन प्रधानमंत्री पद पर छिड़े विवाद के कारण उससे अलग होकर दहल ने ओली से हाथ मिला लिया।
एक चर्चा यह रही है कि कम्युनिस्ट पार्टियों और कई अन्य दलों को एक मंच पर लाने के पीछे चीन की भी भूमिका रही है। इस बात के ठोस संकेत हैं कि नई सरकार बनने के बाद चीन से जुड़ी परियोजनाओं में नई गति आई है। इस बीच यह बेशक कहा जा सकता है कि सत्ताधारी गठबंधन का भारतीय इलाकों के विवाद को प्रमुखता से उठाने का फैसला भारतीय कूटनीति के लिए एक नई चुनौती है। 2020 में यह विवाद सुलगने के बाद ये मामला पृष्ठभूमि से हट गया, तो उसके पीछे एक कारण ओली की सरकार का गिरना और नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व में नई सरकार का गठन भी था। लेकिन अब नेपाल की सियासी सूरत बिल्कुल बदल गई है। ऐसे में भारत को नेपाल के प्रति अपनी नीति भी नए सिरे से तय करनी होगी। क्या भारत प्रभावी कूटनीति से नेपाल के नए सत्ताधारी जमात को इस मसले को फिर से ठंडे बस्ते में डालने और अंततः इस मुद्दे के स्थायी समाधान पर राजी कर पाएगा, यह इस वक्त एक प्रमुख सवाल है।