नई शिक्षा नीति की जरूरत थी, इस पर कोई मतभेद नहीं हो सकता। 34 साल में देश की स्थिति और जरूरतें बदल जाती हैं, यह आम समझ है। इसलिए नरेंद्र मोदी सरकार ने इसके लिए पहल की तो उसे उचित दिशा में उठाया जाएगा कदम माना जाएगा। मगर बेहतर होता कि इसे व्यापक राजनीतिक सहमति के साथ लाया जाता। हालांकि तकनीकी तौर पर किसी नई नीति को लानने के लिए उसे संसद के सामने रखने की मजबूरी नहीं है, फिर बेहतर होता कि इस पर संसद में बहस कराई जाती, ताकि विभिन्न विचार सामने आ पाते। अभी जिस तरह इसे लाया गया, उससे लगता है कि सरकार को दूसरे विचारों की तनिक भी परवाह नहीं है।
बहरहाल, यह अच्छी बात है कि 1986 के बाद पहली बार देश में नई शिक्षा नीति की घोषणा की गई है। अब लाई गई नीति देश में शिक्षा संबंधी तमाम समस्याओं का समाधान हैं, यह नहीं कहा जा सकता। सबसे पहला सवाल तो फंडिंग का ही उठता है। इसमें जीडीपी के छह फीसदी के बराबर शिक्षा करने के उस लक्ष्य को दोहराया गया है, जो 1948 से जताया जाता रहा है। इस बार कैसे यह पूरा होगा, इसका कोई रोडमैप जब तक सरकार नहीं देती, यह महज एक सदिच्छा ही बनी रहेगी। फिर नई नीति को लागू करने के लिए मौजूदा शिक्षा नीति में कई मौलिक बदलाव करने पड़ेंगे। नई नीति में भारत की 10+2 शिक्षा पद्धति को बदलकर उसकी जगह 5+3+3+4 पद्धति अपनाने का एलान किया गया है। इसके तहत तीन साल से ले कर आठ साल की उम्र तक बुनियादी स्तर की पढ़ाई होगी, आठ से 11 तक प्री-प्राइमरी, 11 से 14 तक प्रेपरेटरी और 14 से 18 तक सेकेंडरी। कम से कम पांचवी कक्षा तक की शिक्षा बच्चे की मातृभाषा या प्रांतीय भाषा में दी जाएगी। उसके बाद दूसरी भाषाओं में पढ़ने का विकल्प दिया जाएगा। छोटी कक्षाओं में सालाना परीक्षाएं बंद कर दी जाएंगी और सिर्फ तीसरी, पांचवी और आठवीं कक्षा में इम्तहान होंगे। अब यह कोई भी पूछ सकता है कि नई 5+3+3+4 पद्धति के अलावा इसमें नया क्या है? बाकी बातें 2009 के शिक्षा का अधिकार कानून में भी थीं, मगर वो जमीन पर सही ढंग से नहीं उतर पाईँ। अब कहा गया है कि छठी कक्षा से ही व्यावसायिक यानी वोकेशनल शिक्षा की शुरुआत हो जाएगी। दौरान बच्चे इंटर्नशिप भी करेंगे ताकि स्कूल से निकलते निकलते वो कम से कम एक कौशल सीख ही लें। ये इरादा भी अच्छा है, मगर सवाल यह है कि अमल का रोडमैप क्या है?