बेबाक विचार

कोई उम्मीद बर नहीं आती..

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कोई उम्मीद बर नहीं आती..
अभी मिर्जा गालिब की जयंती बीती है। उन्होंने लिखा था ‘कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नजर नहीं आती। पहले आती थी हाले दिल पे हंसी अब किसी बात पर नहीं आती’। साल के आखिरी दिन यह शेर इसलिए याद आ रहा है क्योंकि वह साल आ पहुंचा है, जिसके बारे में कहा गया था कि वह देश के लिए एक महान साल होगा। फिर गालिब के शब्दों में कहें तो ‘देखिए पाते हैं उश्शाक बुतों से क्या फैज, इक बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है’। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2022 के बारे में बहुत कुछ कहा था। बड़ी उम्मीदें बंधाई थीं। ऐसा लग रहा था कि 2022 का साल भारत के इतिहास का सबसे गौरवशाली साल होगा। उन्होंने 2014 में सत्ता संभालते ही इसके बारे में बात करना शुरू कर दिया था। उनके सारे लक्ष्य 2022 के थे। तब इन बातों पर यकीन होता था। लगता था कि प्रधानमंत्री के पास कोई जादू की छड़ी नहीं होती है, जो घुमाया और सारी समस्याओं का समाधान होगा। इसलिए प्रधानमंत्री अपने लिए छह-सात साल का लंबा समय ले रहे हैं। लेकिन धीरे धीरे उम्मीदें कम होती गईं और अब तो वह साल आ गया, जिसका लंबे समय से इंतजार था। साल 2021 का आखिरी दिन प्रधानमंत्री के उन तमाम वादों और उम्मीदों पर विचार के लिए सबसे मौजूं है, जो उन्होंने 2022 को लेकर किए थे। प्रधानमंत्री ने 2017 में ‘न्यू इंडिया’ का नारा देते हुए सन् 2022 तक देश के हर नागरिक को छत देने की घोषणा की थी। इसके लिए गांवों में तीन करोड़ और शहरों में एक करोड़ पक्के मकान बनाए जाने थे। क्या 2022 की पूर्व संध्या पर सरकार की ओर से कोई बताएगा कि कितने लोगों को पक्का मकान और छत नसीब हो गई? प्रधानमंत्री ने जनवरी 2021 में पीएम आवास योजना के लाभार्थियों से बात की थी और तब उन्होंने 80 हजार परिवारों को मकान की दूसरी किश्त जारी की थी और खुद कहा था कि बीतें वर्षों में उत्तर प्रदेश में छह लाख परिवारों को मकान के लिए आर्थिक मदद दी जा चुकी है। सोचें, उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री आवास योजना-ग्रामीण के तहत 22 लाख मकान बनने हैं, जिनमें से इस साल जनवरी तक सिर्फ छह लाख मकानों के लिए आर्थिक मदद जारी हुई थी। वैसे सरकार की ओर से कहीं कहीं सवा करोड़ मकान देने का दावा भी किया जाता है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि आजादी के अमृत महोत्सव के साल में सबको छत देने का लक्ष्य अभी कितनी दूर है। प्रधानमंत्री ने 25 जून 2015 को स्मार्ट सिटी मिशन लांच किया था और कहा था कि 2022 तक देश में एक सौ स्मार्ट सिटी बनेंगे। इस योजना की घोषणा के छह साल पूरे होने के मौके पर जून 2021 में की गई पड़ताल के मुताबिक एक लाख 78 हजार 492 करोड़ रुपए की 5,929 परियोजनाओं के टेंडर हुए हैं। एक लाख 46 हजार 466 करोड़ रुपए की योजनाओं के वर्क ऑर्डर जारी हुए हैं और 45,264 करोड़ रुपए की 2,673 योजनाएं पूरी हुई हैं। सोचें, इस रफ्तार से कब तक सौ स्मार्ट सिटी बन पाएंगे? जिन योजनाओं के पूरा होने की बात कही जा रही है उससे भी किसी कथित स्मार्ट सिटी में क्या बदला है और इसने लोगों के जीवन को कितना प्रभावित किया है, यह कोई नहीं बता सकता है। स्मार्ट सिटी की परियोजना मोटे तौर पर टायर-टू सिटीज में शुरू होनी थी, जहां कचरा प्रबंधन से लेकर बेहतर परिवहन सुविधा, स्कूल व अस्पताल की सुविधा, बिजली आपूर्ति, किफायती आवास, बिजली आपूर्ति, ई-गवर्नेंस आदि सुनिश्चित किया जाता था। लेकिन पिछले छह साल में उलटा हुआ है देश के महानगर ही विशाल झोपड़पट्टी में तब्दील हो गए हैं।  Read also बीमार व्यवस्था पर कोरोना की मार सरकार में आते ही प्रधानमंत्री मोदी ने देश भर में एम्स बनाने की घोषणा शुरू की थी। प्रधानमंत्री ने 2014 में चार, 2015 में सात और 2017 में दो नए एम्स बनाने की घोषणा की। उसके बाद सरकार की चौथी सालगिरह के मौके पर यानी 2018 में एक साथ 20 एम्स बनाने की घोषणा कर दी गई। यानी 2014 से 2018 के बीच 13 और उसके बाद 20 एम्स बनाने का ऐलान हुआ था। चुनावी राज्यों में बन रहे एम्स का इस साल के आखिर में लोकार्पण वगैरह हुआ है लेकिन अभी कहीं भी पूरी तरह से कामकाज नहीं चालू हुआ है और गोरखपुर से लेकर भठिंडा, नागपुर तक अभी भर्तियों आदि के लिए विज्ञापन निकाले जा रहे हैं। यह स्थिति 2014 से 2018 के बीच घोषित एम्स की है। उसके बाद जो घोषणा हुई है उनमें अभी 25 फीसदी काम भी पूरा नहीं हो पाया है। जैसे हरियाणा के रेवाड़ी में एम्स बनना है लेकिन 19 दिसंबर 2021 तक वहां सिर्फ तीन फीसदी जमीन का अधिग्रहण हुआ है। काम शुरू होना तो बहुत दूर है। आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष यानी 2022 में किसानों की आय दोगुनी करने का वादा था। प्रधानमंत्री ने 2016 में ऐलान किया था कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी कर दी जाएगी। किसानों की आय बढ़ना तो दूर की बात है, पिछले छह साल में देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी ही कम होती जा रही है। जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी 2010 में 17 फीसदी से ज्यादा थी, जो 2019 में गिर कर 15 फीसदी पर आ गई। हकीकत यह है कि देश के किसानों की आय में बढ़ोतरी की बजाय वास्तव में कमी आ रही है। एक साल से ज्यादा समय तक आंदोलन करने वाले किसानों ने कई तरह से इस हकीकत को बयान किया। लागत और मुद्रास्फीति को एडजस्ट करके देखें तो कई किसानों का कहना है कि नब्बे के दशक में उनके दादा और पिता की जो आय थी उतनी ही उनकी भी रह गई है। टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साइसेंज के स्कूल ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के प्रोफेसर आर रामकुमार ने एक इंटरव्यू में बीबीसी को बताया कि 2016 से 2020 के बीच बढ़ोतरी की बजाय किसानों की आय में वास्तव में कमी आई है। बहरहाल, अगर एक-एक वादे को देखते चलें तो कई पन्ने काले करने होंगे। लेकिन अगर आप सिर्फ अपने आसपास देखें तो इन वादों की हकीकत अपने आप जाहिर हो जाएगी। देश की पहली बुलेट ट्रेन 2022 तक चलनी थी लेकिन क्या कोई बता सकता है कि इसकी परियोजना कहां तक पहुंची और कब पहली ट्रेन चलेगी? गंगा की सफाई 2022 तक हो जानी थी और एक मंत्री ने सफाई नहीं होने पर गंगा में डूब कर प्राण त्यागने का भी वादा किया था लेकिन गंगा, यमुना, सरयू, कावेरी, नर्मदा, गोदावरी या अपने आसपास की किसी नदी को देख लें उससे अंदाजा लग जाएगा कि नदियों की सफाई का काम कैसे चल रहा है। मेक इन इंडिया के तहत कितनी नई कंपनियां बनीं, कितनी विदेशी कंपनियों ने भारत में काम शुरू किया, डिजिटल इंडिया से क्या हासिल हुआ, यह सब आप अपने आसपास देख सकते हैं। वैसे तो आप स्वच्छता अभियान और खुले में शौच से मुक्ति की हकीकत भी अपने आसपास देख सकते हैं, लेकिन चूंकि सरकार ने ऐलान कर दिया कि देश खुले में शौच से मुक्त हो गया है इसलिए आपको इसे मानना पड़ रहा है। वैसे ही 2022 में सारी योजनाओं के पूरे होने का ऐलान कर दिया जाएगा और प्रचार के दम पर आपको एक आभासी सत्य को मानने के लिए मजबूर कर दिया जाएगा। यही ‘न्यू इंडिया’ है नए साल में एक बार फिर इसका स्वागत कीजिए।
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