2023 के गर्भ से 2024 का जन्म होगा। 2023 के प्रसव-काल में जैसी देखभाल हम कर पाएंगे, जैसा खानपान हम दे पाएंगे, वैसी ही संतान 2024 की गोद में खेलेगी। इसलिए मेरे कम कहे को ज़्यादा समझिए। इसलिए मेरी चिट्ठी को तार समझिए। संकल्प लेना है, लीजिए। नहीं लेना है, मत लीजिए। लेकिन इतना समझ लीजिए कि आप लें-न-लें, वक़्त करवट ले रहा है। बेहतर है कि आप भी अंगड़ाई लेना शुरू कर दें। नया साल आप को अपने भावी अपराध-बोध से बचाने का अवसर देने के लिए आ रहा है। तय आप को करना है कि आप यह मौका हासिल करना चाहते हैं या तटस्थ-भाव के पतनाले में डूबना पसंद करेंगे?
‘उम्मीदों पर दुनिया क़ायम है‘ की घिसी-घिसाई धुन गुनगुनाते हुए एक आस की जर्जर डोर अपने हाथों में थामे हम 2023 के प्रवेश द्वार पर खड़े हैं। आज 2022 विदा हो रहा है। कल सुबह का सूरज उगेगा तो रोज़ की ही तरह, लेकिन ख़ुद का मन बहलाने के लिए हम उस में नई रौशनी देखेंगे। नए आसरे के गंगाजल से स्वयं को भिगोएंगे। नए अक़ीदे के आबे-जमजम में डुबकी लगाएंगे। अपनी बेबसी के बहाने तलाशेंगे। अपनी लाचारी को भाग्य-भरोसे छोड़ेंगे। और, लड़खड़ाते क़दमों से फिर 365 डग भरने की यात्रा पर निकल जाएंगे।
कुछ बरस से हमारे साथ यही हो रहा है। विदा लेते बरस को हम भारी मन से नहीं, सुकून की सांस ले कर विदाई दे रहे हैं। आते बरस को हम हुलस कर नहीं, अंदेशों के साथ बाहों में भर रहे हैं। ऐसे हालात के लिए कुछ तो आसमानी-सुल्तानी की रिआयत है, कुछ हमारे हुक्मरानों के करम हैं और कुछ हमारे अपने पाप हैं। जो हमें बोलना होता है, हम बोलते नहीं। जो हमें करना होता है, हम करते नहीं। हम एक ऐसी कौम बनते जा रहे हैं, जिस की नाव के चप्पू झंझरित हो गए हैं, जिस की पतवारें अंगड़-खंगड़ हो गई हैं। यह नाव अपने को हवाओं और लहरों के हवाले कर चुकी है।
सो, अब काहे का रोना? दिन कोई अपने आप तो बदलते नहीं हैं। दिन बदलने के लिए तो दिन निकलते ही घर से निकलना पड़ता है। कुछ तो हम ख़ुद ही घर से निकलने को तैयार नहीं है और कुछ हमें घर से नहीं निकलने देने के उपादान भी कम नहीं हैं। तो घरघुस्सू नस्लें अपने खेतों में कहां से नई फ़सलें लहलहा लेंगी? न कोई बीज बिखेरने बाहर जाएगा, न कोई गुड़ाई करेगा और न कोई खरपात उखाड़ेगा तो ज़मीन के पास अपने बंजरपन पर आंसू बहाने के अलावा और चारा ही क्या है? मेरे देश की धरती अपने आप कब तक हीरे-मोती उगलती रहे?
लोग लेते हैं, लेकिन मैं किसी नए साल पर कभी कोई संकल्प नहीं लेता। मुझे नहीं पता कि लोगों के नए साल पर लिए संकल्पों में से कितने हर साल पूरे होते हैं? मुझे लगता है कि अगर एकाध प्रतिशत भी पूरे हो रहे होते तो अब तक तो पृथ्वी स्वर्ग बन ही गई होती। लेकिन अगर वह नहीं बनी तो क्या इसका मतलब यह है कि संकल्प या तो लिए ही पूरे न करने के लिए जाते हैं या फिर तमाम कोशिशों के बावजूद वे पूरे होते ही नहीं हैं। तो संकल्प लिए ही क्यों जाएं? और, नए साल पर तो लिए ही क्यों जाएं? ऐसा संकल्प लेना है कि जिसे हर हाल में पूरा करना ही है तो वह कभी भी लिया जा सकता है। नए साल पर संकल्प लेने की रस्म-अदायगी क्यों करना?
नया साल भी साल में कौन-सा एक बार ही आता है? हमारे देश में तो वह आधा दर्जन बार आता है। ग्रिगोरियन कैलेंडर से भले ही हमारा कोई लेना-देना न रहा हो, मगर एक जनवरी हमारा नववर्ष बन गया। हिंदू नववर्ष शुरू होता है चैत्र में शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से। सिख नानकशाही कैलेंडर के मुताबिक नया वर्ष शुरू होता है होली के दूसरे दिन से। जैन नववर्ष का आरंभ होता है दीवाली के दूसरे दिन से। पारसी नववर्ष शुरू होता है अगस्त में नवरोज पर्व से। हिजरी कैलेंडर के हिसाब से नया साल शुरू होता है मुहर्रम महीने के पहले दिन। सो, पूरे हों-न-हों, आप के पास साल में छह बार नए-नए संकल्प लेने की सुविधा मौजूद है।
कुछ करने के लिए संकल्प लेना ही एकमात्र विकल्प नहीं है। बिना संकल्प लिए भी आप बहुत कुछ कर सकते हैं। बहुत-से असुरों ने इंद्र बनने का संकल्प लिया, क्या वे बन गए? बहुत-से देवताओं ने भी इंद्र बनने के लिए हाथ-पैर मारे, क्या वे बन गए? पुलत्स्य ऋषि के पौत्र और विश्रवा ऋषि के पुत्र ने क्या रावण बनने का संकल्प लिया था? लेकिन जाहि विधि राखे राम, सो, रावण बनना पड़ गया। किसी नए साल में अगर मैं प्रधानमंत्री बनने का संकल्प ले लूं तो क्या प्रधानमंत्री बन जाऊंगा? ऐसा संकल्प ले कर कई मारे-मारे घूमते रहे, घूम रहे हैं और घूमते रहेंगे। बन गए क्या? इंद्रकुमार गुजराल ने, हरदनहल्ली देवेगोड़ा ने और पामुलपर्ति वेंकट नरसिंह राव ने क्या प्रधानमंत्री बनने का संकल्प लिया था? फिर कैसे बन गए?
सो, संकल्प-वंकल्प से कुछ नहीं होता। होइए वही जो राम रचि राखा। इसीलिए अयोध्या में राम का भव्य मंदिर बन रहा है। उसे न बनने देने के संकल्पवानों का क्या हुआ? संकल्पों में अपार अंतर्निहित शक्ति होती होगी, मगर संकल्प उन के पूरे होते हैं, जो हल-बक्खर ले कर घर से निकलते हैं। शैयानशीन ख़्वाहिशें कभी पूरी नहीं हुआ करतीं। ज़्यादातर लोग अपनी इच्छाओं को संकल्प समझ लेते हैं। वे इन इच्छाओं की चकरघिन्नी में घूमते हुए अपने को कर्मवीर समझ लेते हैं। वे अपने पराक्रम की गदा उठाए कूद-फांद करते रहते हैं और दर्शक उन्हें देख कर ठट्ठा लगाते रहते हैं। इन ठहाकों को वे अपनी ज़िंदाबाद के नारे मान कर और ज़ोरों से मटकने लगते हैं। जब तक उन्हें अहसास होता है कि लोग तो उनके मज़े ले रहे हैं, उनका खेल ख़त्म हो चुका होता है। मंच फिर नए पात्रों के लिए सजने लगता है।
इसी श्रंखला में 2023 का मंच सज रहा है। यह साल क्या ले कर आएगा, क्या दे कर जाएगा, कौन जाने! कुछ दे-दे तो भी भला, न दे-दे तो भी भला! इतना ही काफी है कि कुछ ले न जाए। लोकतंत्र-लोकतंत्र बोल-बोल कर हमारी ज़ुबानें पथरा गई हैं। पिछले कई साल से लोकतंत्र के चीर का एक टुकड़ा नया साल चुरा ले जाता है। क्या इस बार भी वह उसके बचे-खुचे अंतःवस्त्रों पर हाथ डालेगा? अगर डालेगा तो उसके नाखूनों से निपटने के लिए हम क्या करेंगे? हम सिर्फ़ कसमसाते रहेंगे, कोसते रहेंगे या अपनी कमर भी कसेंगे? लंबी-लंबी अकादमिक चोंचलेबाज़ी ही करते रहेंगे या नए निर्माण की ईंटें थापने घर से भी निकलेंगे? पुरवाई के रूमानी ख़्याल संजोए देवदास-मुद्रा में टकटकी लगाए बैठे रहेंगे या अपने अश्वमेध पर भी निकलेंगे?
जैसे पूर्वसंध्या होती है, वैसे ही, यह वर्ष, 2024 का पूर्ववर्ष, है। 2023 के गर्भ से 2024 का जन्म होगा। 2023 के प्रसव-काल में जैसी देखभाल हम कर पाएंगे, जैसा खानपान हम दे पाएंगे, वैसी ही संतान 2024 की गोद में खेलेगी। इसलिए मेरे कम कहे को ज़्यादा समझिए। इसलिए मेरी चिट्ठी को तार समझिए। संकल्प लेना है, लीजिए। नहीं लेना है, मत लीजिए। लेकिन इतना समझ लीजिए कि आप लें-न-लें, वक़्त करवट ले रहा है। बेहतर है कि आप भी अंगड़ाई लेना शुरू कर दें। नया साल आप को अपने भावी अपराध-बोध से बचाने का अवसर देने के लिए आ रहा है। तय आप को करना है कि आप यह मौका हासिल करना चाहते हैं या तटस्थ-भाव के पतनाले में डूबना पसंद करेंगे? सो, पसंद अपनी-अपनी, ख़्याल अपना-अपना। या तो अपने पसंदीदा ख़्यालों की चादर तान कर सोते रहिए या अपने ख़्वाबों को मूर्तिमान बनाने का श्रीगणेश कीजिए। आप का समय शुरू होता है, अब! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।)