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नया वर्षः वही जात, वही मंदिर!

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सन् 2023 का पहला सप्ताह। और सात दिनों की क्या सुर्खियां? बिहार में जाति जनगणना शुरू। दिल्ली के मेयर चुनाव में मारपीट, जन प्रतिनिधियों को खरीदती भाजपा। विदेशी विश्वविद्यालयों के खुले दरवाजे। त्रिपुरा के लोगों टिकट बुक कराओ, एक जनवरी 2024 को गगनचुंबी राममंदिर दर्शन। नए कोविड वैरिएंट के मिले मरीज। अदानी-अंबानी पर अब प्रियंका का हमला। नोटबंदी वैध करार। विपक्ष से राहुल की अपील। संभव है आपने टीवी चैनलों पर हीरा बा, निकाय आरक्षण, दिल्ली एक्सीडेंट, फ्लाइट में पेशाब, मुंबई एक्ट्रेस की आत्महत्या जैसी घटनाओं से ज्ञान प्राप्त किया हो। लेकिन कुल मिलाकर तमाम खबरें वही स्क्रिप्ट लिए हैं जिस पर 23 और 24 का वर्ष चलता हुआ होगा। यही स्क्रिप्ट सन् 2019, 20, 21, 22 के वर्षों की भी शूट थी। आजाद भारत के इतिहास में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नंबर एक योगदान यही है, जो उन्होंने भारत को हर तरह से खाली और बासी बना डाला है। मतलब सब प्रेडिक्टेबल। न राजनीति, नेतृत्व, शासन, समाज व धर्म से कुछ नया और न खबरों में सोचने-लिखने लायक नया।

गौर करें बिहार में जाति जनगणना के नीतीश कुमार के फैसले पर या त्रिपुरा की चुनावी सभा में अमित शाह की राममंदिर घोषणा पर! ऐसा करने के अलावा इनके पास और है ही क्या? गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति में डॉ. लोहिया से लेकर लालू-नीतीश यदि जातियों की भूख से सत्ता का खेल साधते रहे हैं तो उसके समांनातार आडवाणी से मोदी तक का बीज मंत्र मंदिर ही तो है। दोनों के प्रयोगों और उससे बनी सत्ता राजनीति में 30 वर्षों से लगातार भारत की दशा-दिशा में क्या यह प्रेडिक्टेबल नहीं रहा कि संघ-भाजपा क्या करेंगे और समाजवादी या मंडलवादी क्या करेंगे? कांग्रेस क्या करेगी? जवाहरलाल नेहरू से लेकर राहुल गांधी ने अपने आइडिया से भारत को जात और धर्म से बाहर निकालने और उसे आधुनिक बनाने की चाहे जितनी बातें की और कोशिशें हुई लेकिन जात आधारित आरक्षण करवाने वाली भी कांग्रेस थी तो बाबरी मस्जिद में रामलला रखने का काम भी नेहरू के राज में हुआ था। इतना ही नहीं अयोध्या में पहला मंदिर शिलान्यास राजीव सरकार का था!

निश्चित ही जात-धर्म हिंदुस्तानी जीवन, उसके कलियुग की सच्चाई है। दोनों का आधुनिक लोकतांत्रिक राजनीति में कैसे इस्तेमाल हो, यह अंग्रेजों के दिमाग की खुराफात थी। इसका प्रमाण व सत्य भारत का धर्म आधारित विभाजन था तो 1881 से 1931 की जातीय जनगणना से राष्ट्र जीवन में जात की पहचान का स्थापित होना भी है। फिर उसका क्रमिक राजनीतिक उपयोग। अंग्रेजों ने जो बीज बोया वही नीतीश की राजनीति का सूत्र है तो मोदी की हिंदूशाही का भी। असलियत में भाजपा-मोदी-अमित शाह की राजनीति भी कथित राष्ट्रवादी हिंदू चेतना के छिलके के नीचे की जातीय फांकों की खरीद फरोख्त है। तभी तो प्रचार होता है कि केंद्रीय कैबिनेट में फलां-फलां जाति का फलां-फलां मंत्री है। हमने राष्ट्रपति दलित, आदिवासी बनाया। प्रधानमंत्री पिछड़ा है। मुख्यमंत्री राजपूत है..और सांसदों-विधायकों की उम्मीदवार लिस्ट में इतने पटेल हैं, इतने क्षत्रिय हैं, इतने बनिये हैं और इतने दलित व इतने आदिवासी! पैसे और जात के बूते राजनीति की मंडी बना, खरीद फरोख्त करके सत्ता बनाने का जो काम मोदीशाही में हुआ है वह सचमुच व्यवसायी काबलियत का एवरेस्ट है!

सो, बात हिंदू की और वोट जाति पहचान से। तब नीतीश कुमार को यदि प्रधानमंत्री बनना है, बिहार की चालीस सीटें जीतनी हैं और जातिवादी करिश्मा बना कर बगल के उत्तर प्रदेश, झारखंड में नरेंद्र मोदी के वोटों का खेल बिगाड़ना है तो वे भला अपने को क्यों न मर्द जातिवादी नेता बनाएं? नरेंद्र मोदी और अमित शाह मंदिर की राजनीति करें तो नीतीश कुमार व तेजस्वी क्यों न ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, बनियों याकि अगड़े वोटों की चिंता छोड़ लोहिया की पिछड़े पावें सौ में साठ का सन् 2024 में दांव चलें!

समाजवादी, मंडलवादी और नीतीश कुमार जैसे नेता पिछले चालीस सालों से यही करते आ रहे है। इससे इन्होंने कांग्रेस को खत्म किया और अब भाजपा को हराने के जुगाड़ में हैं। एक वक्त समाजवादियों ने भाजपा के कंधे पर उछलते हुए कांग्रेस को खत्म करने का रोडमैप बनाया। अब सन् 2023-24 में नीतीश कुमार कांग्रेस के कंधे से भाजपा को हराने के मिशन में जातीय जनगणना का मास्टरस्ट्रोक चलते हुए हैं।

तभी सन् 2023 का पहला सप्ताह। एक तरफ जातीय, खासकर पिछड़ों के मसीहा बनने का दांव तो दूसरी और एक जनवरी 2024 को गगनचुंबी राममंदिर के दर्शन खोलने की अमित शाह की घोषणा। सोचें, संघ, विश्व हिंदू परिषद्, भाजपा की छली हिंदू बुद्धि पर कि अयोध्या के राम मंदिर के पट ईसाई ग्रेगोरियन कैलेंडर के नववर्ष पर खुलेंगे। जबकि इनका सोशल मीडिया एक जनवरी के दिन हिंदुओं से आह्वान करता है कि यह तो ईसाइयों का नववर्ष जबकि हिंदुओं का मलमास!

बहरहाल, पते की बात जो बिहार में मंडल बनाम कमंडल का नया द्वंद्व। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्या करेंगे? यदि जातीय जनगणना से बिहार और उत्तर प्रदेश में बवाल बढ़ा तो संभव है केंद्र सरकार खुद सन् 2025 में जातीय जनगणना होने की घोषणा कर दे। हां, आरएसएस-संघ परिवार और भाजपा की विचारधारा याकि जातीय जनगणना को समाज-देश तोड़ू मानने वाले पुराने स्टैंड का मोदी-शाह के लिए कोई अर्थ नहीं है। इनके लिए सत्ता सर्वोपरि है और उसके लिए लालू यादव के पांव पकड़ने पड़ें, सऊदी अरब जा कर बादशाह के गले लगना पड़े, मस्जिद जा कर कुरान की आयतें पढ़नी पढ़ें या वेटिकन से पोप को भारत बुलाना पड़े तो वह भी मंजूर। ये किसी भी सीमा तक जाएंगे, कुछ भी करेंगे। तभी आश्चर्य नहीं जो 2023 के पहले सप्ताह यह भी खबर है कि दिल्ली में मेयर चुनाव टला। चुनाव जीतने वाली आप पार्टी का मेयर नहीं चुना गया! क्यों? इसलिए कि भाजपा ने जनादेश को खरीदने की मंडी सजा दी है। पार्षद खरीदे जा रहें हैं और कुछ भी करना पड़े भाजपा को अपना मेयर बनाना है!

ऐसा सन् 2023 के पूरे साल होगा। भाजपा उत्तर-पूर्व के राज्यों में खरीदेगी। दक्षिण में खरीदेगी, मध्य में खरीदेगी और उत्तर में भी खरीदेगी। किसी को राजनीति को वेश्यालय मंडी बनाने से गुरेज नहीं है तो जातीय जनगणना से क्या परहेज हो सकता है? इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की भारत की यही पक्की खास पहचान है जो उसमें वर्जित कुछ नहीं है। ‘न्यू इंडिया’ को न सदाचार चाहिए तो न चरित्र और न नैतिक मूल्य तथा समाज की समरसता व एकता की जरूरत है और न ईमान व बुद्धि की! यह वास्तविकता मंडलशाही पर लागू है तो मोदीशाही और हिंदूशाही पर भी।

विचार करें। कोई तीस साल से भारत मंडल और कमंडल, जात और मंदिर के राजनीतिक अनुभवों में है। वही नीतीश, वही मोदी और 140 करोड़ लोग सभी जात और मंदिर में बंधे व गुंथे हुए। मगर नतीजा क्या? लालू-नीतीश, मुलायम-अखिलेश तथा आडवाणी-वाजपेयी-नरेंद्र मोदी के लंबे सत्ता अवसरों के बावजूद क्या तो बिहार बना और क्या भारत! बिहार चालीस वर्षों से सामाजिक न्याय में जिंदगी जीता हुआ है, वही उत्तर प्रदेश भगवा सांसें लेते हुए है और इनका क्या अनुभव है, क्या दिशा और गति है?

पर व्यर्थ है सोचना और लिखना! इसलिए कि जो है और जो होना है वह सब प्रेडिक्टेबल है। हिंदुओं के साथ होना वही है जो रामरची राखा। वही जो इतिहास में था और है!… कलियुग!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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