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नीतीश का एजेंडा और विपक्षी एकजुटता

वैसे तो ये दोनों- नीतीश कुमार का एजेंडा और विपक्षी एकजुटता का प्रयास- अलग अलग चीजें हैं लेकिन नीतीश ने बहुत होशियारी से इन दोनों को मिला दिया है। वे विपक्षी एकता बनवाने का प्रयास कर रहे हैं और वह भी अपने एजेंडे पर। बिहार के मुख्यमंत्री के राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति शुरू करने से पहले विपक्ष का एजेंडा अलग था। पिछले दो साल में संसद में जिन मसलों पर सरकार का विरोध हुआ है या संसद के बाहर सरकार के खिलाफ जिन मुद्दों पर प्रदर्शन हुए हैं उनको बारीकी से देखें तो इसका फर्क पता चलेगा है। इससे पहले किसान का मुद्दा सबसे बड़ा मुद्दा था। महंगाई, भ्रष्टाचार और चीन के अतिक्रमण के मुद्दे पर विपक्ष का प्रदर्शन होता था। केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग और सरकारी संपत्ति बेचने के मुद्दे पर सरकार का विरोध किया जाता था। राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण भी एक मुद्दा था तो मुफ्त की रेवड़ी का भी मुद्दा था। अगर इन सबको ध्यान से देखें तो कोई भी मुद्दा विपक्ष की ओर से तय किया हुआ नहीं था। सारे मुद्दे घटनाओं पर आधारित थे।

नीतीश कुमार ने इस स्थिति को बदला है। वे अपना एक एजेंडा लेकर आए हैं वह एजेंडा मंडल यानी जाति की राजनीति करने का है। उनको पता है कि राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और मजबूत नेतृत्व के मसले पर विपक्ष भाजपा से नहीं लड़ पाएगा। भ्रष्टाचार का मुद्दा भी अंततः भाजपा को फायदा पहुंचाएगा क्योंकि देश की लगभग तमाम विपक्षी पार्टियां किसी न किसी तरह के भ्रष्टाचार के मामले में फंसी हैं। इसलिए नीतीश ने भाजपा की कमजोर नस पकड़ी और जाति की राजनीति का मुद्दा लेकर आए। कहने की जरूरत नहीं है कि वे जो मुद्दा लेकर आए हैं उस पर राजनीति करने वाले वे सबसे अधिकृत व्यक्ति हैं। नब्बे के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह द्वारा मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने के बाद देश के जिन नेताओं ने इस पर राजनीति की और आगे बढ़े उनमें से अब सिर्फ नीतीश बचे हैं, जो सक्रिय राजनीति कर रहे हैं या किसी राज्य की कमान संभाल रहे हैं। उनके अलावा मंडल की राजनीति करने वाले तमाम नेताओं का या निधन हो गया है या अस्वस्थ हैं या राजनीतिक बियाबान में हैं। अब न मुलायम सिंह यादव हैं, न शरद यादव और न देवीलाल हैं, न करुणानिधि। वीपी सिंह से लेकर बीजू पटनायक और एनटी रामाराव से लेकर रामविलास पासवान तक सबका निधन हो गया है। लालू प्रसाद, एचडी देवगौड़ा आदि अब देश स्तर की सक्रिय राजनीति करने की स्थिति में नहीं हैं।

सो, ले-देकर नीतीश कुमार बचते हैं, जिनको अपनी इस अनोखी स्थिति का अंदाजा है। उनको पता है कि वे अगर कोर राजनीति की डोर पकड़े रहते हैं तो विपक्ष की नाव पार लगा सकते हैं। अब सवाल है कि उन्होंने यह राजनीति करने में इतनी देर क्यों की और 2013 में जब वे एक बार भाजपा का साथ छोड़ चुके थे तो दोबारा उसके साथ क्यों लौटे थे? ध्यान रहे 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के समय नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने आरक्षण के मुद्दे पर चुनाव लड़ा था और भाजपा को आरक्षण विरोधी ठहराया था। फिर भी दो साल के बाद नीतीश उसी भाजपा के साथ लौटे थे। सवाल है कि क्या तब उनको यह उम्मीद थी कि भाजपा सामाजिक न्याय की राजनीति करेगी या उनको लगा था कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ लड़ने का समय अभी नहीं आया है? संभव है कि दोनों बातें कुछ कुछ मात्रा में सही हों। उनको भाजपा से और खास कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उम्मीद हो कि वे सामाजिक न्याय के उसी फॉर्मूले को मानेंगे, जिसे खुद नीतीश मानते हैं और यह भी लगता हो कि अभी मोदी विरोध का समय नहीं आया है। उनकी उम्मीद टूटी है 2022 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की लगातार दूसरी जीत से।

उस वर्ष एक के बाद एक ऐसी घटनाएं हुईं, जिनसे नीतीश का भाजपा से मोहभंग हुआ। 2020 के विधानसभा चुनाव का घाव नीतीश के मन में था लेकिन 2022 के घटनाक्रम ने उनके परेशान किया। मंडल की राजनीति का केंद्र रहे उत्तर प्रदेश में एक सवर्ण नेता की कमान में लगातार दूसरी बार भाजपा की जीत ने नीतीश को हिला कर रख दिया। इस राजनीतिक घटनाक्रम के अलावा केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों, सरकारी संस्थाओं में बहाली के तरीके, सेना में बहाली की अग्निवीर योजना आदि की वजह से भी लगा कि जिस मंडल राजनीति को वे बिहार में मजबूत करने में लगे हैं उसकी पूरे देश में जड़ कमजोर हो रही है। इसके बाद ही उन्होंने भाजपा से नाता तोड़ा और राजद के साथ मिल कर सरकार बनाई, जिससे वे देश भर के गैर भाजपा नेताओं के बीच स्वीकार्य हुए।

जिस समय भाजपा मध्य प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र और कर्नाटक में कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों की साझा सरकारों को गिरा कर अपनी सरकार बना रही थी उस समय नीतीश ने बिहार में भाजपा की सरकार गिरा दी और उसके बाद पहला काम किया कि जातीय जनगणना को मंजूरी दी। राज्य सरकार ने अपने खर्च से बिहार में जातियों की गिनती कराने का फैसला किया। इस मुद्दे को लेकर भाजपा बैकफुट पर आई। वह न तो जातीय जनगणना करा सकती है और न खुल कर इसका विरोध कर सकती है। उसकी इस दुविधा को समझते हुए नीतीश ने इसे भाजपा विरोध का केंद्रीय एजेंडा बनवा दिया। कांग्रेस से लेकर आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी से लेकर तृणमूल कांग्रेस, डीएमके, एनसीपी, शिव सेना उद्धव ठाकरे गुट, वामपंथी पार्टियां सब इस पर एकमत हैं। यह विपक्ष को बांधने वाली मजबूत डोर है।

एक बार जब यह मुद्दा स्थापित हो गया और सभी भाजपा विरोधी पार्टियां सैद्धांतिक रूप से इस पर एकमत हो गईं तब नीतीश कुमार ने राजनीतिक एकजुटता प्रयास शुरू किया। उन्होंने सबसे पहले कांग्रेस से बात की क्योंकि उनको पता था कि कांग्रेस पहले कभी भी जाति की राजनीति में नहीं उतरी है और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने का उसका अपना तरीका है, जो काफी हद तक भाजपा से मिलता जुलता है। इसलिए मल्लिकार्जुन खड़गे की मौजूदगी में नीतीश ने राहुल गांधी को अपने एजेंडे के बारे में बताया और कांग्रेस का फायदा समझाया। कांग्रेस के राजी होने के बाद नीतीश को ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं पड़ी है। अब तक वे जितनी पार्टियों के नेताओं से मिले हैं, सबने उनके प्रयास को सराहा है और उसमें भागीदार बनने की सहमति दी है।

इसके बावजूद राजनीति में कुछ भी निश्चित नहीं होता है और न कुछ नामुमिकन होता है। इसलिए जब तक विपक्षी गठबंधन बन नहीं जाता है तब तक कुछ नहीं कहा जा सकता है। लेकिन अभी जो तस्वीर दिख रही है वह ये है कि नीतीश कुमार अपने प्रयास में काफी हद तक कामयाब हो गए हैं। उन्होंने अपना एजेंडा स्थापित कर दिया है और उस एजेंडे पर विपक्षी पार्टियों को काफी हद तक नजदीक ला दिया है। इसके बाद अब सवाल है कि क्या नीतीश कुमार नए दौर के जयप्रकाश नारायण होंगे? किसी भी नेता का जयप्रकाश नारायण होना बहुत मुश्किल है। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जेपी को अपना उत्तराधिकार बनाना चाहते थे। अगर जेपी मान जाते तो वे देश के दूसरे प्रधानमंत्री होते। लेकिन उनको कभी भी सत्ता का मोह नहीं रहा, जबकि अभी नीतीश हों या कोई और नेता सत्ता का मोह किसी से छूटता नहीं है। फिर भी किसी दूसरे नेता के मुकाबले नीतीश विपक्ष को एकजुट करने की बेहतर नैतिक व राजनीतिक स्थिति में हैं। ‘सुशासन’ और ‘न्याय के साथ विकास’ उनका राज करने का मूलमंत्र रहा है। इसे वे राष्ट्रीय स्तर पर आजमा सकते हैं।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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