कई तर्क हैं कि कोविड-19 महामारी के खौफ से दुनिया मुक्त हुई! दुनिया मान चुकी है कि वायरस को हरा नहीं सकते, बल्कि इसके साथ वैसे ही जीना होगा जैसे बाकी बीमारियों के खतरे में जीते हैं। सितंबर 2020 और सितंबर 2021 का फर्क है कि संयुक्त राष्ट्र की महासभा के भाषण में राष्ट्रपति बाइडेन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनफिंग ने जलवायु संकट पर फोकस किया न कि महामारी पर। दुनिया के राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री अब न्यूयॉर्क जाकर आमसभा में भाषण कर रहे हैं। राष्ट्रपति शी जिनफिंग ने वर्चुअल रिकार्डेड भाषण भले दिया हो लेकिन उस भाषण का सुर सामान्य दिनों की समसामयिक चुनौतियों में था। उन्होंने दुनिया से वायदा किया कि चीन आगे कहीं भी कोयला आधारित प्लांट नहीं लगाएगा। normal world and india
सो, अमेरिका और चीन दोनों के राष्ट्रपतियों का फोकस जलवायु संकट पर है। अमेरिका ने यूरोपीय देशों के साथ यात्रा-आवाजाही शुरू कर दी है तो यूरोपीय देशों में भी आवाजाही सामान्य होते हुए है। अमेरिका, यूरोपीय और विकसित देशों ने मोटा-मोटी वे व्यवस्थाएं, वे प्रोटोकॉल और ऐसी परस्पर सहमति बना ली है, जिससे वायरस-महामारी के बावजूद परस्पर रिश्ते, कारोबार, जीवन फरवरी 2020 के प्री-कोविड जैसा बने।
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दुर्भाग्य जो यह सब विकसित देशों के बीच है। मतलब विकसित बनाम उभरती आर्थिकी वाले और विकासशील-गरीब देशों का नया फर्क बनता लगता है। ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका या भारत सहित तमाम देश सामान्य वैश्विक आबोहवा से फिलहाल कटे हुए हैं। कल ही खबर थी कि कनाडा अभी भी भारत से उड़ान की मंजूरी देने के मूड में नहीं है तो ब्रिटेन, यूरोपीय देश भारत की वैक्सीनेशन को सही मानने को तैयार नहीं। इसलिए संभव है कि अगले छह महीने या कोई एक साल विकसित देश विकास की तेज रफ्तार पाएं व अमीर बनाम गरीब देशों की खाई और बढ़े। गरीब देशों में वैक्सीनेशन की अपर्याप्तता, अविश्वसनीयता, अधिक आबादी, आर्थिक बदहाली आदि से महामारी पूर्व वाला नॉर्मल वक्त जल्दी शायद ही बन पाए। यों संयुक्त राष्ट्र की आमसभा में अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन ने कोरोना वायरस के खिलाफ वैश्विक एकजुटता के नए युग का जुमला बोला है। वे राष्ट्राध्यक्षों से मेल-मुलाकात में गरीब देशों के लिए वैक्सीन उत्पादन बढ़ाने और इसके लिए अमेरिकी मदद की पेशकश भी कर रहे हैं लेकिन उनका फोकस अब जलवायु संकट है। तभी संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने बाइडेन और शि जिनफिंग का भाषण सुन कर कहा- उन्हें हौसला मिला जो दुनिया की दो सर्वाधिक बड़ी आर्थिकियों (अमेरिका व चीन) ने जलवायु मामले में निश्चय दिखाया।
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उस नाते सितंबर 2020 में दुनिया कोरोना महामारी के आगे सब भूले हुए थी जबकि सितंबर 2021 में जलवायु संकट नंबर एक मसला। इसमें 2020 से निरंतरता का पहलू यदि कोई है तो वह चीन का है। महामारी के बाद डोनाल्ड ट्रंप और दुनिया ने चीन को जैसे कटघरे में खड़ा किया था और चीन से जो शीत युद्ध चालू हुआ था वह सितंबर 2021 की संयुक्त राष्ट्र महासभा में पुख्ता हुआ जाहिर है। अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन ने जलवायु संकट, कोरोना वायरस पर वैश्विक एकजुटता, तकनीक में उभरती चुनौतियों के तीन मसलों के बाद तानाशाह देशों (चीन, रूस) के बढ़ते प्रभाव को लेकर सर्वाधिक चिंता जाहिर की।
यहीं ‘नॉर्मल’ होते विश्व का नंबर एक सियासी मुद्दा है। संयुक्त राष्ट्र की महासभा में बाइडेन ने दो टूक शब्दों में कहा कि दुनिया के आगे या तो लोकतांत्रिक मूल्यों के आग्रह वाला पश्चिम का विकल्प है या लोकतंत्र को नकारने वाले चीन व उस जैसे तानाशाह देशों की सरकारों का विकल्प है।... भविष्य उन्हीं का है, जो अपने लोगों को सांस लेने की आजादी देते हैं न कि उनका जो अधिनायकवादी सख्त हाथों के शिकंजे में अपने लोगों का दम घोंटते हैं। दुनिया के तानाशाह हल्ला बना रहे हैं कि लोकतंत्र की उम्र खत्म होते हुए है लेकिन वे गलत हैं। हम नहीं चाहते नया शीत युद्ध या दुनिया को खांचों में बांटना। अमेरिका ऐसे देशों (चीन) से पूरे दमखम से प्रतिस्पर्धा करेगा और उनको नेतृत्व देगा, जो हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों, और उसकी ताकत के साथ हमारे साथी व दोस्त हैं।
तभी सोचें, भारत के लिए इस नई ‘नॉर्मल’ दुनिया के कितनी तरह के मायने हैं? चीन के कारण हम पश्चिमी देशों के साथ साझा बनाते हुए हैं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अमेरिका यात्रा में राष्ट्रपति बाइडेन और उप राष्ट्रपति कमला हैरिस को समझाना, बताना होगा कि उनकी सरकार लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्थावान है। साथ ही तय कराना होगा कि चीन, पाकिस्तान, अफगानिस्तान के तालिबान के साथ रीति-नीति में अमेरिका उसके साथ गहरा साझा बनाए। अच्छी बात है जो संयुक्त राष्ट्र की महासभा का सत्र शुरू होने और काबुल में तालिबान की एक महीने पुरानी सरकार के बावजूद तालिबान सरकार को वैश्विक मान्यता नहीं मिली है। चीन और पाकिस्तान की लॉबिंग के बावजूद काबुल सरकार दुनिया में अभी भी अमान्य है। तालिबान को मान्यता तभी मिलेगी जब अमेरिका, यूरोपीय देश और उनके बाद फिर अरब देश मान्यता दें। वक्त अपने आप यह बता दे रहा है कि पश्चिमी देशों का अफगानिस्तान से पिंड छुड़ा लेने को दुनिया जल्दी भुला देगी और भविष्य में पाकिस्तान व चीन को ही अफगानिस्तान में हाथ जलाने हैं।
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पर भारत भी दुनिया और खासकर पश्चिमी देशों के अफगानिस्तान मसले में अग्रिम चौकी की तरह हो गया है। वाशिंगटन और लंदन में पाकिस्तान आउट और उसकी जगह भारत के जरिए अमेरिका-यूरोपीय देश अफगानिस्तान-चीन-पाकिस्तान (ईरान पर भी) पर नजर चाहेंगे। क्या भारत इस भूमिका में समर्थ है? भारत के निजी हित और अमेरिका के निजी हितों में साझा है या अंतर्द्वंद्व जो वह क्या कूटनीति करे, कैसी रणनीति बनाए? भारत के पास अधिक विकल्प नहीं हैं। कोई माने या न माने, अपना मानना है कि तालिबान, पाकिस्तान, चरमपंथी इस्लाम और चीन चारों की रियलिटी के आगे भारत के पास विकल्प या किंतु, परंतु नहीं हैं। नई ‘नॉर्मल’ अंतरराष्ट्रीय राजनीति और उसकी क्षेत्रीय तालिबानी चुनौती के आगे बातों की डिप्लोमेसी से भारत का रास्ता नहीं बनता है। यों ‘नया इंडिया’ में कल भी डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने लिखा कि भारत क्यों अमेरिका के मन मुताबिक रूस, चीन, अफगानिस्तान से रिश्ते बनाए? अपनी दलील है कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान व चीन की वजह से, इसकी भू-राजनीतिक असलियत में उलटे भारत की यह जरूरत है जो वह अमेरिका-यूरोप की रीति-नीति को अपने मनमाफिक बनाए। तभी भारत व पश्चिम की चिंताओं में ठोस साझा अब वक्त का तकाजा है। शीतयुद्ध के वक्त की भारत तटस्थता, गुटनिरपेक्षता का कोई अर्थ नहीं बचा है। नई ‘नॉर्मल’ विश्व राजनीति में भारतीय विदेश नीति का मूल मंत्र तालिबान-आईएसआई-चीन के विस्तारवाद से कश्मीर और भारत को बचाना है। इस यर्थाथ, रियलिज्म में हम तटस्थ रह कर, तालिबान-इमरान खान-शी जिनफिंग के साथ सफेद कबूतर उड़ा कर, हिंदी-चीनी, भाई-भाई या हिंदी-तालिबानी भाई-भाई का मुगालता पाल व आर्यावर्त का सपना देख क्या अपने को बचा सकते हैं?
‘नॉर्मल’ दुनिया और भारत
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