बीते फरवरी में दिल्ली के उत्तर-पूर्वी इलाकों में हुए दंगों के दौरान और उसके बाद जांच के क्रम में पुलिस की भूमिका पर कई हलकों से संदेह उठाया गया था। क्या पुलिस ने एकतरफा कार्रवाइयां कीं, क्या उसने पीड़ितों को बचाने में तत्परता नहीं दिखाई, क्या वह एक समुदाय को कथित तौर पर सबक सिखाने की कार्रवाइयों में शामिल थी, ऐसे कई सवाल पहले से उठे थे। तब अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी ऐसे सवालों को उठाने वाली रिपोर्टें खूब छपी थीं। अब दिल्ली की एक अदालत ने इस जांच पर ऐसी टिप्पणी की है, जिस से उन सवालों को बल मिल गया है। दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में अतिरिक्त सेशंस जज धर्मेंद्र राणा ने सुनवाई के बाद अपने एक आदेश में कहा कि ‘केस डायरी को पढ़ने से एक परेशान करने वाला तथ्य निकल कर आता है। ऐसा लगता है कि जांच में सिर्फ एक पक्ष को निशाना बनाया जा रहा है। जांच अधिकारी भी अभी तक ये नहीं बता पाए हैं कि दूसरे पक्ष की संलग्नता में क्या जांच की गई है।’ जज ने मामले से संबंधित डीसीपी को केस पर ‘निगरानी’ रखने और ‘निष्पक्ष जांच सुनिश्चित’ करने को कहा। अब सवाल है कि इससे सख्त टिप्पणी और क्या हो सकती है? मगर आज देश का जो राजनीतिक माहौल है, उसके बीच इस टिप्पणी से भी ज्यादा फर्क पड़ेगा, ये कहना मुश्किल है।
कोर्ट में सुनवाई जामिया मिल्लिया इस्लामिया के 24 वर्षीय छात्र आसिफ इकबाल तन्हा की गिरफ्तारी को लेकर हो रही थी। तन्हा को 21 मई को दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने आतंकवादियों के खिलाफ इस्तेमाल किए जाने वाले कानून यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया। पुलिस का आरोप है कि तन्हा ने 15 दिसंबर 2019 को दक्षिणी दिल्ली के जामिया नगर में नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन आयोजित किया था और अपने भाषण से वहां जमा हुई भीड़ को भड़काया था, जिसके बाद वहां हिंसा हुई। तन्हा के अलावा भी जामिया और जेएनयू के कई छात्र इस मामले में यूएपीए के तहत पकड़े गए हैं।
आम तौर पर यही धारणा बनी है कि ये कार्रवाइयां एंटी सीएए आंदोलन के दौरान उन छात्रों की भूमिका की वजह से हुई हैं, ना कि हिंसा भड़काने में उनके कथित रोल के कारण। मगर जब मीडिया और सरकारी एजेंसियां एक तरफ खड़ी हों तो बुनियादी सवाल अक्सर दब ही जाते हैं। ऐसे में एक जज का ये सवाल उठाना भले ही मामूली लेकिन राहत की वजह है।