यक्ष प्रश्न है कि भाजपा विरोधी पार्टियों के बीच एकजुटता तथा आपसी विन-विन समझौता कौन कराएगा? ऐसा समझौता, जिसमें किसी पार्टी का नुकसान न हो और भाजपा को साझा टक्कर दें। पार्टियों को समझना होगा कि वे जो समस्याएं झेल रही हैं उनका समाधान यह नहीं है कि वे सीधे भाजपा से लड़ती रहें। ध्यान रहे आज देश की कोई पार्टी या कोई नेता ऐसा नहीं है, जिसके ऊपर केंद्रीय एजेंसियों की जांच की तलवार नहीं लटकी है। अरविंद केजरीवाल की सरकार के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की सीबीआई और ईडी दोनों से जांच चल रही है। एक मंत्री सत्येंद्र जैन हवाले से जुड़े मामले में जेल में बंद हैं। जल बोर्ड में कथित घोटाले की जांच के लिए लिख दिया गया है। बस घोटाले की जांच की आंच सीधे केजरीवाल तक पहुंच सकती है। विपक्षी एकता के लिए सबसे मुखर होकर काम करने वाले तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की एमएलसी बेटी कविता को दिल्ली के शराब घोटाले में समन जारी हुआ है। लालू प्रसाद से लेकर अखिलेश यादव और ममता बनर्जी से लेकर उद्धव ठाकरे तक हर नेता के परिवार या पार्टी के दूसरे लोगों के खिलाफ जांच चल रही है।
भाजपा विरोधी पार्टियों के सामने यह इकलौती समस्या नहीं है। बल्कि सबके सामने अस्तित्व का संकट है। केंद्रीय एजेंसियों के दबाव के अलाव कई और तरह की समस्याएं हैं। जहां विपक्षी पार्टियों की सरकारें हैं वहां राज्यपालों के जरिए सरकार के कामकाज में दखल है। विधानसभा से पास बिल रोके जा रहे हैं। फैसले लटकाए जा रहे हैं। जहां विपक्षी पार्टियां जीत रही हैं वहां उनके विधायक और पार्षद तोड़े या खरीदे जा रहे हैं। भय या लालच में नेताओं की दलबदल हो रही है। ज्यादातर पार्टियों के फंड खत्म हो रहे हैं। उन पर निगरानी हो रही है। ऐसा सिस्टम बना दिया गया है कि कॉरपोरेट का चंदा उनको नहीं मिल पाए। अगर कोई पार्टी यह सोचती है कि वह अकेले चुनाव लड़ कर भाजपा को हरा देगी और इन समस्याओं से निजात पा जाएगी तो वह बड़ी गलतफहमी में है।
लेकिन सवाल है कि यह बात विपक्षी पार्टियों को कौन समझाएगा? किसके बूते संभव है कि सभी विरोधी पार्टियों को एक टेबल पर लाया जाए और राज्यवार गठबंधन की पहल की जाए? संभव नहीं है कि 1977 की तरह सारी विपक्षी पार्टियां एक चुनाव चिन्ह पर लड़ें या 1989 की तरह कोई बड़ी लहर पैदा हो और एक अंब्रेला अलायंस बने।
सन् 2024 के चुनाव के लिए सभी विपक्षी पार्टियों को आपस में राज्यवार गठबंधन बनाना होगा। जिस राज्य में जो पार्टी बड़ी ताकत है वह बड़ी ताकत रहे, बाकी पार्टियां उसकी मदद करें और बदले में बड़ी पार्टी दूसरी छोटी पार्टियों के हितों का ख्याल रखे। मिसाल के तौर पर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी बड़ी पार्टी के तौर पर लड़ें। लेकिन कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों को भी सम्मानजनक सीट मिले। अगर ममता इस भरोसे में हैं कि वे विधानसभा जीती हैं तो लोकसभा में भाजपा की जीती 18 सीटें छीन लेंगी तो गलतफहमी है। भाजपा को रोकने के लिए उनको कांग्रेस और लेफ्ट की मदद की जरूरत होगी। इसी तरह तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव बड़ी ताकत के तौर पर लड़ें लेकिन कांग्रेस के हितों का भी ध्यान रखें। ध्यान रहे किसी क्षेत्रीय पार्टी को दूसरे के राज्य में जाकर नहीं लड़ना चाहिए। सबको अपने राज्य में लड़ना है। अपने राज्य में उनके वोट का बंटवारा न हो, इसका समझौता करना है।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ऐसी पहल की है। उनसे पहले के चंद्रशेखर राव ने पहल की थी। वे विपक्षी पार्टियों के शासन वाले कई राज्यों में गए, मुख्यमंत्रियों और विपक्षी पार्टियों के नेतओं से मिले और एक संघीय मोर्चा बनाने पर चर्चा की। चंद्रशेखर राव चाहें तो विपक्षी एकता का काम कर सकते हैं पर मुश्किल यह है कि उनके यहां अगले साल के अंत में चुनाव है। अगर वे लगातार तीसरी बार चुनाव जीत जाते हैं तो उनका कद और बढ़ेगा। तब वे ज्यादा दम के साथ पहल कर सकेंगे लेकिन उसके बाद समय बहुत कम बचेगा। इस लिहाज से समय नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और एमके स्टालिन के पास है। ये नेता भी पहल कर सकते हैं और सभी पार्टियों से बात कर सकते हैं।
सबसे जरूरी बात अरविंद केजरीवाल को समझाने की है। देश के ज्यादातर राज्यों में क्षत्रपों की अपनी राजनीति है। कोई दूसरा क्षत्रप उनकी राजनीति में दखल देने नहीं जा रहा है। कांग्रेस हर जगह है लेकिन बिहार से लेकर झारखंड और तमिलनाडु से लेकर महाराष्ट्र तक उसने प्रादेशिक क्षत्रपों के साथ गठबंधन किया है और उनके साथ लड़ती है। सिर्फ आम आदमी पार्टी और ओवैसी की एमआईएम पार्टी है, जो कहीं भी जाकर लडते हैं। इन दोनों से कांग्रेस को भी नुकसान है और दूसरी प्रादेशिक पार्टियों को भी है। ज्यादा समस्या कांग्रेस को है क्योंकि जिन राज्यों में कांग्रेस की भाजपा से सीधी लड़ाई है उन्हीं राज्यों पर केजरीवाल की नजर है। कांग्रेस के साथ समस्या है कि वह जिस तरह से राज्यों में क्षत्रपों के लिए अपनी जमीन छोड़ती गई उसी तरह आप के लिए छोड़ेगी तो वह खत्म हो जाएगी। इसलिए कोई ऐसा नेता चाहिए, जो केजरीवाल और कांग्रेस से इस तरह की बात कराए, जिसमें दोनों में से किसी के हित को बहुत ज्यादा नुकसान न पहुंचे।