विपक्षी दलों को अभी इस बात का अहसास ही नहीं है कि मौजूदा राजनीतिक परिवेश में चीजें किस हद तक बदल चुकी हैं। वरना, एक राजनीतिक मामले में न्यायिक राहत पाने की उम्मीद सिरे से निराधार थी।
केंद्रीय एजेंसियों की विपक्षी नेताओं पर कार्रवाई के मामले में सुप्रीम कोर्ट जाने की 14 विपक्षी दलों की साझा रणनीति आरंभ से समस्याग्रस्त थी। इससे यह संकेत मिला कि विपक्षी दलों को अभी इस बात का अहसास ही नहीं है कि मौजूदा राजनीतिक परिवेश में चीजें किस हद तक बदल चुकी हैं। सार यह है कि एक राजनीतिक मामले में न्यायिक राहत पाने की उम्मीद निराधार थी। वैसे इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी से विपक्ष चाहे, तो आगे लिए सीख ले सकता है। न्यायालय ने यह कहा है कि विपक्ष अपनी राजनीतिक लड़ाई को कोर्ट के सिर पर डालना चाहता है। सुप्रीम कोर्ट की एक दूसरी टिप्पणी ने राजनीति बनाम न्याय प्रक्रिया की बहस को और स्पष्टता प्रदान की है। कोर्ट ने कहा कि कानूनन आम व्यक्ति और राजनेता में फर्क करना संभव नहीं है। यह बात तार्किक है। आखिर केंद्रीय एजेंसियां जो कार्रवाई कर रही हैं वे किसी ना किसी व्यक्ति के खिलाफ होती हैं, जो राजनेता भी है।
उस व्यक्ति पर आरोप लगाए जाते हैं। फिर उनकी जांच शुरू की जाती है। चूंकि विपक्षी नेताओं के मामले में इसका का ट्रेंड बन गया है, इसलिए यह धारणा बनी है कि विपक्षी नेताओं को योजनाबद्ध ढंग से निशाना बनाया जा रहा है। लेकिन कोर्ट धारणा के आधार पर काम नहीं कर सकता। वह न्याय के सिद्धांत और साक्ष्य के आधार पर काम करता है। यह वैधानिक स्थिति है। बहरहाल, व्यवहार में न्यायपालिका के बारे में भी एक धारणा बनती गई है। वो यह कि न्यायपालिका आज के सत्ता पक्ष के राजनीतिक मकसदों को साधने में सहायक बन रही है। कम से कम निचले स्तरों पर ऐसा होने के संदेह पैदा हुए हैं। वैसे ऊपरी स्तर पर भी जिस तरह संविधान संशोधन जैसे अनेक मामलों को लटका कर रखा गया है, उससे ऐसी धारणा को बल मिला है। कहा जा सकता है कि केंद्रीय एजेंसियों के खिलाफ याचिका दायर करने के मामले में विपक्ष ने इन दोनों धारणाओं को ध्यान में नहीं रखा। नतीजा यह हुआ है कि इस मामले में उसने सत्ता पक्ष को यह तर्क प्रदान किया है कि विपक्ष सुप्रीम कोर्ट में हार गया।