बेबाक विचार

शरीफ से उम्मीद पालना जल्दबाजी होगी

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शरीफ से उम्मीद पालना जल्दबाजी होगी
पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ से कोई भी उम्मीद पालना जल्दबाजी होगी। वे एक ऐसी सरकार के मुखिया बने हैं, जिसके पास बहुत मामूली बहुमत है और जिसे एक बेहद आक्रामक विपक्ष का सामना करना है। दूसरे, उनके पास अधिकतम सात महीने का समय है। पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने कहा है कि उसे चुनाव कराने के लिए सात महीने का समय चाहिए। सो, मान कर चलें कि सात महीने में पाकिस्तान में चुनाव होंगे। उन चुनावों में क्या होगा, यह नहीं कहा जा सकता है। लेकिन यह तय है कि नई सरकार सात महीने में होने वाले संसदीय चुनावों को ध्यान में रख कर ही राजनीति और कूटनीति दोनों करेगी। तीसरे, पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति का कूटनीति पर बहुत असर होगा। सेना से टकराव, अफगानिस्तान पर राजनीति, अमेरिका विरोध और रूस-चीन धुरी का समर्थन जैसे मुद्दों पर इमरान की सरकार गई है। Pakistan Shahbaz Sharif PM ये सारे मुद्दे अभी खत्म नहीं हुए हैं। चौथे, पाकिस्तान और भारत दोनों की चिंताएं अलग अलग हैं। भारत की चिंता है कि आतंकवाद खत्म हो और इस क्षेत्र में स्थायी शांति बहाल हो तो पाकिस्तान की चिंता है कि कश्मीर मसला निपटे तभी भारत के साथ संबंध सुधार होगा। सो, भारत को बहुत सोच-समझ कर पाकिस्तान के साथ संबंधों में आगे बढ़ना होगा। चूंकि इमरान खान के कार्यकाल में भारत और पाकिस्तान के संबंध बहुत खराब हो गए थे और संबंध सुधार की कोई पहल नहीं हो रही थी इसलिए ऐसा लग रहा है कि उनके हटते ही दोनों देशों में संबंध सुधार की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी, दोनों देशों के बीच कूटनीतिक वार्ता भी शुरू हो जाएगी और स्थायी शांति की दिशा में पहल होगी। लेकिन ऐसा होने का कोई ठोस आधार अभी नहीं दिख रहा है। ध्यान रहे भारत और पाकिस्तान के संबंध इमरान खान के समय जिस मुकाम पर पहुंचे, उसकी शुरुआत नवाज शरीफ के प्रधानमंत्री रहते ही हो गई थी। सोचें, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तब के पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के घर गए थे। उससे पहले उनको अपने शपथ समारोह में भी बुलाया था। लेकिन बदले में क्या मिला था? एक के बाद एक सैन्य प्रतिष्ठानों पर हमले हुए थे। दोनों देशों के बीच सतत चलने वाली वार्ताएं उसी समय स्थगित हो गई थीं, जो इमरान खान के समय भी बंद रहीं। जहां तक नए प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की बात है तो वे हमेशा कश्मीर का मुद्दा उठाते रहे हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री चुने जाने से पहले और चुने जाने के बाद दो दिन में दो बार यह दोहराया कि भारत के साथ संबंध सुधार तभी संभव है, जब कश्मीर समस्या हल हो। सोचें, कश्मीर समस्या में क्या हल होना है? यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि कश्मीर भारत का अभिन्न और अविभाज्य अंग है। इसलिए कश्मीर समस्या में हल करने जैसा कुछ नहीं है। वहां शांति और लोगों की सुरक्षा भारत का आंतरिक मसला है, जिसे भारत को हल करना है। पाकिस्तान के साथ तो सिर्फ उसके कब्जे वाले कश्मीर के बारे में ही बात होनी चाहिए। फिर बार बार वे क्या कश्मीर मसला हल करने की बात करते हैं? ध्यान रहे प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने से पहले कश्मीर की चर्चा का मतलब यह है कि वे अंदरूनी राजनीतिक मजबूरियों से ही निर्देशित होंगे। अगर उनकी पार्टी को अगले चुनाव में जीतना है तो कश्मीर मसला उठाना उनकी मजबूरी है। वे खुद कहते रहे हैं कि ‘कश्मीर को अपना बना कर रहेंगे’। सो, तय मानें कि आने वाले दिनों में पाकिस्तान की राजनीति में कश्मीर का बहुत ज्यादा जिक्र होगा। वे जिन तीन पार्टियों के गठबंधन का नेतृत्व कर रहे हैं उनके लिए भी कश्मीर हजार साल लड़ने का मुद्दा रहा है। आसिफ अली जरदारी की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और मौलना फजलुर्रहमान की पार्टी जमात ए उलेमा ए इस्लाम के समर्थन से वे प्रधानमंत्री बने हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि इन पार्टियों का भारत के प्रति क्या रुख रहा है। फजलुर्रहमान कट्टरपंथी नेता हैं। ऊपर से इमरान खान ने भ्रष्टाचार के मामले में कार्रवाई करके तीनों बड़ी विपक्षी पार्टियों को एक कर दिया है। भारत की केंद्रीय एजेंसी ईडी जैसी पाकिस्तानी एजेंसी नेशनल अकाउंटेबिलिटी ब्यूरो यानी नैब का इमरान ने खूब इस्तेमाल किया और कई विपक्षी नेताओं पर शिकंजा कसा। सो, इमरान को रोकने के लिए तीनों पार्टियां साथ ही रहेंगी और तब शरीफ को अपने दोनों सहयोगियों के एजेंडे का भी ख्याल रखना होगा। Pakistan political crisis Read also मोदी-बाइडन सार्थक संवाद इमरान खान के प्रधानमंत्री रहते पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के तब के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद काबुल गए थे और तालिबान की सरकार का मंत्रिमंडल बनवाने और विभाग बंटवाने में उनकी अहम भूमिका रही थी। खूंखार आतंकवादी संगठन हक्कानी नेटवर्क के सिराजुद्दीन हक्कानी को अफगानिस्तान का गृह मंत्री बनाया गया। पाकिस्तानी सेना ने अब लेफ्टिनेंट जनरल नदीम अंजुम को आईएसआई का प्रमुख बना दिया है लेकिन क्या नई सरकार में पाकिस्तानी सेना और आईएसआई का तालिबान से संपर्क खत्म हो जाएगा? इमरान खान बतौर प्रधानमंत्री उस दिन रूस गए थे, जिस दिन रूस ने यूक्रेन पर हमला किया था। हमलावर राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ खड़े होकर उन्होंने रूस-चीन की धुरी का समर्थन किया था। अब पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने भी चीन को सबसे वफादार दोस्त बताया है। सोचें, प्रधानमंत्री पद पर नए व्यक्ति के आने के अलावा पाकिस्तान की राजनीति और कूटनीति में क्या बदला है, जो भारत किसी बदलाव की उम्मीद करे? ऐसा लग रहा है कि इमरान खान के हटने के बाद अमेरिका के साथ पाकिस्तान के संबंधों में सुधार आ सकता है। शहबाज शरीफ के प्रधानमंत्री चुने जाते ही अमेरिका ने पाकिस्तान के साथ अपने पुराने संबंधों की याद दिलाते हुए अच्छे संबंध की उम्मीद जताई। ध्यान रहे इमरान खान ने अमेरिका से अपने संबंध काफी खराब कर लिए थे। उन्होंने अपनी सरकारी गिरने के लिए सीधे तौर पर अमेरिका को जिम्मेदार ठहराया है। हालांकि अमेरिका इससे इनकार करता रहा है। यह देखना दिलचस्प होगा कि नए प्रधानमंत्री रूस-चीन की धुरी के प्रति वफादारी दिखाते हुए अमेरिका के साथ संबंध कैसे निभाते हैं। पाकिस्तान अभी जिस तरह के आर्थिक संकट में है उसे रूस व चीन नहीं, बल्कि अमेरिका ही निकाल सकता है। अगर शरीफ परिवार अमेरिका से संबंध सुधार करता है तो ऐसी स्थिति में भारत को भी अपनी कूटनीति में कोर्स करेक्शन करना होगा। यूक्रेन पर रूसी हमले के मामले में भारत अपने को तटस्थ दिखाता रहा है लेकिन असल में दुनिया उसे रूस के साथ देख रही है। भारत को यह धारणा बदलनी होगी। टू प्लस टू वार्ता के लिए अमेरिका गए विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इसकी शुरुआत कर दी है। उन्होंने रूस के साथ तेल खरीद बढ़ाने पर सफाई दी। उन्होंने कहा कि भारत जितना तेल रूस से पूरे महीने में खरीदता है, उतना यूरोप एक दोपहर में खरीद लेता है। टू प्लस टू वार्ता से पहले प्रधानमंत्री मोदी की राष्ट्रपति जो बाइडेन से हुई वार्ता भी इस लिहाज से अहम है। सो, भारत अगर अपना रुख बदलता है और पाकिस्तान की कूटनीति में कोई बड़ा शिफ्ट होता है तभी दक्षिण एशिया की राजनीति बदलेगी। भारत को उस स्थिति का इंतजार और उसके लिए तैयारी करनी चाहिए।
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