बेबाक विचार

सरकार क्या कर सकती है?

Share
सरकार क्या कर सकती है?
महामारी और भारत-1: यह सवाल उन लोगों का है जो या तो खांटी हिंदू भक्त हैं या जिनमें रामभरोसे जीने के डीएनए हैं। मतलब जो विकासवादी जिंदादिल नहीं, बल्कि कछुआ हैं। उस नाते पृथ्वी के पौने आठ अरब लोगों में भारत के हिंदुओं में और हिंदुओं के राज करने के कौशल में यह फुलस्टॉप इतिहासजन्य है कि भला हमारे बस में क्या है? हम कर क्या सकते हैं? हममें वह सामर्थ्य कतई नहीं है, जैसा अमेरिका, चीन, ब्रिटेन याकि बाकी सभ्यतागत देशों में बौद्धिक बल से है। सन् 2020 के मौजूदा वक्त की चुनौतियों ने बुद्धि में हिंदू को इस कदर पैदल बनाया है कि हर समस्या में अंत सवाल निकलेगा कि क्या कर सकते हैं? आर्थिकी दिवालिया है तो सरकार क्या कर सकती है? चीन आक्रामक है तो सरकार क्या कर सकती है? महामारी सुरसा की तरह बढ़ रही है तो सरकार क्या कर सकती है? जनता का जहां सवाल है वह पहले से ही कुछ करने में इसलिए असमर्थ है क्योंकि उसके लिए सरकार माईबाप है और राजा भगवान का अवतार। नागरिक पहले से पैदल है और सरकार कुछ कर नहीं सकती है तो सोचें कैसे विकट काल में है आज भारत! विकट काल का विकट सवाल है सरकार के क्या कर सकने का। भारत में लोग असहायता, लाचारगी, बेबसी में सोच और पूछ रहे हैं कि सरकार क्या कर सकती है? ऐसे सोचना बाकी देशों की चर्चाओं, विमर्श में नहीं मिलेगा। क्यों? वजह मुर्दा बनाम जिंदा कौम का फर्क है। हम भाग्यवादी हैं और वे कर्मवादी? हम मुगालतों और झूठ में जीते हैं और वे यथार्थ व सत्य में। वे धारा बनाते हैं, वैक्सीन बनाते हैं और हम धारा में बहते हैं, वैक्सीन का इंतजार करते हैं। हम टाइमपास करते हैं वे भिड़ते हैं, चैलेंज के आगे जिंदादिली से लड़ते हैं। हां, यह यथार्थ है  जो ब्रिटेन, ब्राजील, चीन, जर्मनी, यूरोपीय देशों में लोग, जहां सरकार से सवाल कर रहे हैं तो सरकार खुद वहां जवाबदेही में चौबीसों घंटे सत्य बताती हुई है। सरकार दिन-प्रतिदिन यह सोचते हुए, यह एक्शन लेते हुए है कि मौत कम से कम हो। टेस्ट लगातार बढ़ते जाएं। किसी को इलाज के लिए भटकना नहीं पड़े। वैक्सीन जल्दी आए। जाहिर है कुंद-मंद-मुर्दा-गुलाम बुद्धि बनाम जिंदा, तेज, निर्भीक, स्वतंत्र बुद्धि का अंतर महामारी के मौजूदा विकट काल में मुर्दा बनाम जिंदा कौम का फर्क भी दुनिया के आगे है। दुनिया जान रही है कि भारत के लोगों का व्यवहार, हिंदुओं का सोचना कैसा है। भारत में लोग न केवल अपने को, बल्कि सरकार को भी लाचारी के इस चश्मे से देख रहे हैं कि भला वह क्या कर सकती है! भारत में मौत और बीमारी घर-घर पहुंच रही है लेकिन भारत की खबरों में मौत-बीमारी नहीं है। लोग संक्रमित हैं लेकिन सुन रहे हैं कि संक्रमण कम है और लोग ठीक ज्यादा हो रहे हैं। महामारी का इलाज कम है लेकिन हेडलाइन मैनेजमेंट अधिक। बीमारी की संक्रमण संख्या की जितनी खबर बनेगी उतनी ही बीमारी खत्म होने और सब कुछ ‘नॉर्मल’ होने की खबरें होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भारत सरकार, भारत की संसद, भारत के अखबार, भारत के टीवी चैनल और राष्ट्रीय शोर और विमर्श में महामारी गायब है और इसकी जगह रिया चक्रवर्ती, कंगना रनौत, बॉलीवुड, नशा, कृषि सुधार के बिल, किसान का वह हल्ला है, जिनकी चुसनियों में लोगों की मुर्दनगी यह सवाल बनाती है कि सरकार क्या कर सकती है? महामारी पर क्या सोचना रिया पर सोचो! ठीक विपरीत यूरोप, अमेरिका है और वहां के लोग हैं। उनकी इंसानी चेतना यह सोचते हुए धड़के हुए है कि ऐसा कैसे हो रहा है, क्या करें, कैसे पार पाया जाए? वे लोग, उनके अखबार, उनके टीवी चैनल, उनकी संसद, उनकी सरकार, उनकी व्यवस्था चौबीसों घंटे महामारी को नंबर एक सुर्खी बनाए हुए है। नंबर एक सुर्खी, नंबर एक चिंता में ये देश, इनकी सरकारें महामारी पर काबू पाने की वैसी ही कोशिश में है, जैसे पिछली महामारियों में थी। हां, वायरस के जन्मदाता और एक अरब, चालीस करोड़ की आबादी वाले चीन ने पिछले नौ महीनों में महामारी को चींटी की तरह कुचला। उसने प्रति दस लाख आबादी के पीछे 1,11,163 टेस्ट करा कर वायरस को सिर्फ 85 हजार संकमितों में बांधा है तो यह इस सवाल का जवाब है कि सरकार क्या कर सकती है! ऐसे ही चीनी नववर्ष की वजह से दिसंबर-जनवरी में चीनी यात्रियों से सर्वाधिक संक्रमण लिए इटली-स्पेन-ब्रिटेन-फ्रांस वाले यूरोपीय संघ के 31 देशों ने नौ महीनों में वायरस से लड़ते हुए उसे 28 लाख लोगों में बांधा है, जिसमें जर्मनी, डेनमार्क, फिनलैंड, नार्वे जैसे देशों में मृत्यु दर 0.1 प्रतिशत है तो यह भी प्रमाण है कि सरकार क्या कर सकती है? फिर अमेरिका पर गौर करें तो न्यूयॉर्क वह प्रांत है जो अमेरिका-चीन के लोगों में बीच आवाजाही का नंबर एक एपिसेंटर है और उस महानगर में जब वायरस की सुनामी आई तो दुनिया हिली लेकिन वहां के गवर्नर एंड्री कुमो ने अपनी सरकार का जो व्यवहार बनाया तो आज न्यूयॉर्क में कोई 1,10,000 टेस्ट रोजाना हो रहे हैं और टेस्ट-संक्रमण अनुपात 0.89 प्रतिशत की रेट पर है। न्यूयॉर्क बाकी अमेरिकी राज्यों के मुकाबले इन दिनों सुरक्षित है तो यह भी इस बात का प्रमाण है कि सरकार क्या कर सकती है। अमेरिका से दुनिया ने जाना है कि एक ही देश में एक राष्ट्रपति जहां अपनी मूर्खता, झूठ में महामारी के लिए मौका बनाता है तो प्रांत का एक गवर्नर लड़ाई को प्राथमिकता से लड़ कर लोगों का जीना सुरक्षित बना सकता है! इन उदाहरणों से क्या प्रमाणित है? पहली बात इन देशों में जिंदा कौम, जिंदा लोग बसते हैं।  इसलिए ये न खुद रामभरोसे जीते हैं और न यह सवाल बनता है कि सरकार क्या कर सकती है। नागरिक और सरकार दोनों जुगलजोड़ी में वक्त के सत्य को स्वीकारते हुए, उससे जूझते हुए, चौबीसों घंटे केवल उसी पर फोकस रख बचाव बनवाते हैं और भविष्य में सुरक्षा के स्थायी बंदोबस्त बनाते हैं। अमेरिका, जापान में जैसे भयावह समुद्री तूफान, बाढ़, सुनामी, भूकंप और जंगल में आग की विपदाएं आती हैं उसकी हम लोग कल्पना नहीं कर सकते हैं लेकिन बावजूद इसके उस महाविनाश में लोगों का मरना न्यूनतम होता है जबकि भारत में हर साल बाढ़, बिजली कड़कने से ले कर ट्रेन दुर्घटनाओं में जान-माल का भारी नुकसान सामान्य स्थायी रूटिन है। भारत में साल-दर-साल बाढ़ आती है और लोग सोचते हैं हम क्या कर सकते हैं? सरकार क्या कर सकती है? ईश्वर की लीला है सो, रामभरोसे, राम रची राखा में जीवन जीना है! विडंबना कि यह तब है जब हिंदू के लिए सरकार माईबाप है। जब हिंदू राजा अपने आपको भगवान से कम नहीं मानता हैं। हिंदू उसे भगवान विष्णु का अवतार मानता है। औसत हिंदू के मनोविश्व में भगवान और सरकार दोनों समान भाव नियति के कर्ता-धर्ता हैं लेकिन कैसी अजीब बात है कि दोनों में हिंदू की बुद्धि अंततः दिवाल पर यह सोचते हुए माथा फोड़ती है कि सरकार क्या कर सकती है? भगवान नरेंद्र मोदी क्या कर सकते हैं। दोनों जैसे रखेंगे वैसे जी लेंगे। ठीक विपरीत बाकी नस्ल, बाकि सभ्यतागत देशों में सोचना होता है। (अब तीसरी दुनिया, पिछड़े देशों से अपने आपकी इसलिए तुलना न करें क्योंकि हम हमारी सभ्यता, संस्कृति, धर्म में यह बोध लिए हुए है कि हमारा सनातनी जीना विश्वगुरूता वाला है।) भारत में सरकार माईबाप है, राजा भगवान है लेकिन वह दुनिया के विकासवाद पर आश्रित है। हमारा जीना मुर्दा जीना है और उनका जीना अपने को बनाते हुए जिंदादिली में जीना है। हम टाइमपास में यह सोचते हुए जीते हैं कि दुनिया टीका बना लेगी तो उससे हम भी जी लेंगे। जबकि ब्रिटेन और अमेरिका, चीन, रूस आदि पहले दिन से अरबों रुपए उड़ेल कर टीका बनवाने का न केवल मिशन बनाए हुए हैं, बल्कि अऱबों रुपए एडवांस में दे कर बुकिंग भी करवा चुके हैं। वहां महामारी हर पल, हर क्षण, हर दिन, हर एजेंडे, हर प्राथमिकता में टॉप-नंबर वन की चुनौती है जबकि भारत में वह महामारी को अवसर बना, बीमार-असहाय को लूटने-उल्लू बनाने, ध्यान बंटवाने का वह काल है जिसमें औसत कुंद-मुर्दा नागरिक या तो टाइमपास के लिए शापित है या रोजी-रोटी की फिक्र में अधमरा जीवन जी रहा है। ऐसे में तब भला यह सोचने की क्षमता कैसे बनेगी कि सरकार क्या कर सकती है?  (जारी)
Published

और पढ़ें