बेबाक विचार

जवाब हिंदू ब्रेन की तंत्रिकाओं में!

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जवाब हिंदू ब्रेन की तंत्रिकाओं में!
महामारीः सरकार क्या कर सकती है?-3 :  यदि मैं न्यूरोवैज्ञानिक, न्यूरोसर्जन होता तो खोपड़ी, ब्रेन की रिसर्च में हिंदू दिमाग के तंत्रिका संजाल, उसके मस्कुलोस्केलेटल वैरियबलों में गुलामी की स्मृति से कॉर्पस कैलोसम की उस बाधा, उस विकृति को जरूर  तलाशता, जिससे हिंदू चैतन्यता दबी पड़ी है, जिसके चलते हिंदू में न निडरता बनती है और न सोचने, चाहने व अनुभव के पंख विकसित होते हैं। हजार साल की गुलामी ने हिंदू के दिमाग को बांधा है। हिंदू डीएनए को बदला है और मनोभाव-संस्कारों में वह खोट बनाई है, जिससे वह डरा रहता है, सत्य से मुंह चुराता है। पूरा मामला हिंदू की अबूझ सभ्यतागत गुत्थी है। गुत्थी ही हिंदुओं के वर्तमान का सत्व-तत्व है तो उसकी नियति, उसकी बेबसी, परतंत्रता, रामभरोसे होने का राज है। इसी से हम औपनिवेशिक मानसिकता में जीते है और हिम्मत नहीं होती अपनी भाषा को अपनाने की, चीन से भिड़ने की! सोचे हिंदू और हिंदू राष्ट्र का व्यवहार मातृभूमि, मातृभाषा, निज स्वतंत्रता-निडरता में भी यदि किंतु-परंतु में कुचला हुआ है तो 138 करोड़ लोग बन कैसे सकते है? तभी हम नेहरू से ले कर नरेंद्र मोदी के सफर में क्या साहसी, मौलिक, सत्यवादी हो पाए? हम कैसे जी रहे है?  कैसी मूर्खताओं, झूठ, लंगूरी नैरेटिव और हल्ले में जी रहे है हम? क्या दुनिया में यह प्रमाणित नहीं हो रहा है कि हिंदुओं को राज करना नहीं आता है। हमने परमाणु हथियार बनाएं लेकिन चीन की घिग्घी नहीं बनी, आक्रामकता नहीं घटी। हम अपनी गली के भी चौधरी नहीं हैं। अफगानिस्तान में सेना उतारने का साहस नहीं बना। ऐसा ही बाकि क्षेत्रों में है। कहने को आईटी की महाताकत है लेकिन कुली सप्लायर की तरह। माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, फेसबुक जैसे उत्पाद-कंपनियां बना कर हम दुनिया पर राज नहीं कर रहे हैं लेकिन हां, वहा नौकरी जरूर करते हुए है। आर्थिक महाशक्ति हैं लेकिन चीन से सामान खरीद, उस पर निर्भर रहते हुए!  हम हिंदू न नोबेल पुरस्कार पाते हैं,  न ओलंपिक मेडल जीतते हैं। और हमसे कोई विश्व साहित्य, विश्व कला, विश्व सिनेमा हैं। इन वाक्यों को पढ़ते हुए हिंदू दिमाग क्या सोचेगा? यहीं न कि मैं फालतू बातें लिख रहा हूं। मैं ऐसे कैसे सोचता हूं। हम जो है वहीं बहुत है। अपना ब़ॉलीवुड़ है, अपना चेतन भगत है, अपना क्रिकेट है, अपना सुंदर पिचई है और दुनिया के देशों में अपने आईटीकर्मी, अपने डॉक्टर, पेशेवर, मजदूर हैं, अपने अंबानी-अदानी हैं तो यह क्या कम उपलब्धि है। अपने नेहरू थे, जिनके निर्गुट आंदोलन की दुनिया में वाह थी, अपने नरेंद्र मोदी हैं, जिनको ट्रंप गले लगाता है और खाड़ी का शहंशाह सम्मान से नवाजता है। हम बतौर राष्ट्र-राज्य जिंदा रह लिए, इतना कुछ बना लिया, इतना नाम कमा लिया, यह क्या कम है! ऐसे सोचना, ऐसी मनोदशा ही हिंदू ब्रेन, हिंदू दिमाग की वह गांठ है, जो हिंदू के सोचने-विचारने-समझने के दिमागी मस्कुलोस्केलेटल वैरियबलों को गुलामी के अनुभव से चेतन्यता को मंद-कुंद बनाए हुए है। हम नहीं बूझ पाते कि सुंदर पिचई अमेरिकी कंपनी में महज एक नौकर है और भारत की तमाम आईटी कंपनियां सस्ती मजदूरी देने वाली सर्विस प्रोवाइडर हैं। अमेरिकी ब्रेन, पश्चिमी सभ्यता, चीनी सभ्यता, इस्लामी सभ्यता के अरब-खाड़ी देशों में भारत का हिंदू कुल मिलाकर वैसा ही मजदूर है, जैसे अंग्रेजों के वक्त कैरेबियन देशों, फिजी, मॉरिशस के गन्ना खेतों में खेतिहर मजदूर था। वक्त, रूप परिवेश, हुनर बदला है लेकिन हम जीने के लिए वैसे ही आश्रित हैं, वैसे ही कृपापात्र हैं, वैसे ही जुगाड़ में हैं, जैसे अंग्रेजों के वक्त में थे। दुनिया ने पिछले सौ सालों में अफीमची चीनियों को खूंखार-पुरुषार्थियों में परिवर्तित होते देखा है तो अफ्रीका के अश्वेत, आसियान इलाके के सिंगापुर, विएतनाम,मलेशिया जैसे मामूली देशों, नस्लों को खुले आकाश की ऊंचाईयां छूते देखा है तो यह भी जगजाहिर है कि ये देश महामारी से कैसे लड़ रहे हैं जबकि भारत की हिंदू सरकार कैसे लड़ रही है। महामारी के खिलाफ मौजूदा लड़ाई का लाइव वैश्विक प्रसारण हमारा और उनका फर्क दिखला दे रहा है लेकिन हिंदू फर्क समझ, बूझ नहीं पा रहा। क्यों? इसलिए कि दुनिया को देखते हुए अपने आप पर, अपनी मूर्तियों पर, अपनी भक्ति पर, अपने आप पर विचार का हिंदू ब्रेन, हिंदू माथे, हिंदू खोपड़ी की तंत्रिकाओं में स्पंदन बनता जो नहीं! गुलामी की गांठ है जो न सोचने देती है और जो न सिर उठने देती है। हिंदू अपने दिमाग की गांठों, उससे बनी आदतों, व्यवहार, भय-भक्ति-गुलामी में इस कदर जकड़ा है कि जब मुगल आए, अंग्रेज आए या चीन आर्थिक गुलामी ले कर आया तो हिंदू ब्रेन को इतना भी फील नहीं हुआ कि इससे हमारा क्या होगा! हां, इतिहास का शर्मनाक सत्य-तथ्य है कि खैबर के दर्रे से पांच सौ यवन, मुसलमान, मुगल लोग घोड़ों पर बैठ दिल्ली आते थे और दिल्ली का तख्त उनका हो जाता था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने कुछ सौ गोरों, ब्रिटेन ने कुछ हजार अंग्रेज सैनिकों से भारत पर दो सौ साल राज किया! अब जरा आज के वक्त पर सोचें। 1978 में वाजपेयी के चीन जाने के बाद चीन ने धीरे-धीरे भारत को जैसे आर्थिक गुलामी में जकड़ा तो कभी, किसी वक्त हिंदू दिमाग में तनिक भी क्या यह विचार हुआ कि हम क्या होने दे रहे हैं? क्यों ब्रेन में स्पंदन नहीं, चेतन्यता नहीं? परिणामतः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  और उनकी सरकार चीन की आक्रामकता के बीच इस धर्मसंकट में है कि यदि लड़ाई हुई तो आर्थिकी का क्या होगा! सचमुच भारत में आज फोन-संचार सामान के डीलर, व्यापारियों से लेकर अरबपति सब दलील दे रहे हैं कि चीन से लड़े तो फोन कहां से आएंगें? धंधा-पैसा कहां से आएगा! जाहिर है हिंदू ब्रेन, हिंदू सरकार और हिंदू दिल्ली दरबार में कभी ख्याल नहीं बना कि जिस दुश्मन ने भारत को पहले मारा है उससे धंधा कर, उस पर आश्रित होना और गुलामी बनवाने वाला होगा! कोर बात दिमाग की चैतन्यता की है। जो चेतनता वियतनाम में चीन को ले कर है, वायरस पर है वह हमारी बुद्धि में नहीं है? महामारी से वियतनाम, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, यूरोपीय सभी देश लड़ते हुए हैं? जबकि भारत के 138 करोड़ लोग और उनकी सरकार रामभरोसे है। क्यों? कैसे हिंदुओं ने अपनी आर्थिक बरबादी में नरेंद्र मोदी को सौ फीसद छूट दे रखी है। नरेंद्र मोदी का यह जिक्र आज के वक्त से है। इससे पहले भी हिंदुओं ने पंडित नेहरू को सौ फीसद यह छूट दी थी कि वे चाहे जैसे उन पर आर्थिक प्रयोग करें। कह सकते हैं इसमें अनहोना क्या है। दुनिया में हर निर्वाचित नेता, लीडर ऐसे ही करता है। नहीं, यह सोचना भी प्रमाण है कि हिंदू बुद्धि अपने राजा, हाकिम, शासक के कांसेप्ट में जक़ड़ी हुई है। दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक (सभ्य-सच्चे) देश और तानाशाह (विचारधारा-सभ्यतागत गौरव केंद्रित) देश बुद्धि-विचार-उद्देश्य की सहभागिता में चलते हुए बने हैं। केवल भारत वह बिरला देश है, जहां हिंदू बुद्धि स्वंयस्फूर्त नेता की अनुयायी बन सौ टका उसके भरोसे हो जाती है। दिल्ली के तख्त पर जो बैठा, उसने फिर कितना ही जुल्म किया हो, कितनी ही बरबादी की हो, वह कितना ही नाकारा है, हिंदू बुद्धि उसकी अनुयायी बनी रहेगी। उसके दिमाग में विकल्प, विद्रोह, क्रांति आ नहीं सकती। याद करें बहादुर शाह जफर को, वह हर तरह से नकारा था लेकिन सत्ता के देवालय की मूर्ति  था तो हिंदुओं, मराठों ने अंग्रेजों के खिलाफ बहादुर शाह को वापिस गद्दी पर बैठाने का संकल्प बना कर विद्रोह किया। मैं भटक गया हूं। बुनियादी बात गुलामी की गांठ, डीएनए में हिंदू का सत्ता केंद्रीत, सत्ता गुलाम होना है। सत्ता सर्वोपरि है। हम सत्ता, तलवार के ऐसे खौफ में रहे कि दिमाग की एक-एक तंत्रिका उसकी दास है। न वह पंगा ले सकती है न वह विचार बना सकती है और न आजादी से उड़ सकती है या लोगों को उड़ने दे सकती है। इस हिंदू मनोविज्ञान में नरेंद्र मोदी बंधे हुए हैं तो देश भी बंधा हुआ है। पिछले छह सालों में नरेंद्र मोदी ने छप्पर फाड़ जनादेश के बावजूद विरोधियों-विपक्ष पर सरकारी एजेंसियों, भक्त लंगूरों को क्यों छोड़ा हुआ है? क्यों उन्हें पॉवर, और पॉवर, और पॉवर चाहिए? इसलिए ताकि वे अपने आपको सुरक्षित फील करते रहें! चीन से रक्षा उनकी प्राथमिकता नहीं है अपनी रक्षा प्राथमिकता है। इसमें वे अपनी मूर्ति को जितना प़ॉवरफुल, शृंगारपूर्ण बनाएंगें उतने फॉलोवर बढ़ेंगे और वे राष्ट्र के आस्था मंदिर बने रहेंगे। तभी सब कुछ निज केंद्रित। न आरएसएस का मतलब है, न मंत्रियों का मतलब है और न भाजपा या किसी का भी मतलब है। भारत में लोकतंत्र का हिंदुओं ने एक ऐसा देशज सामंती मंदिर स्वरूप विकसित किया है, जिसमें अपने आप नगर देवता, प्रदेश देवता, राष्ट्र देवता के देवालयों की जागीदारी में नागरिकों का सर्वस्व समर्पित होता है। 33 करोड़ देवी-देवताओं का हिंदू समाज दरअसल सत्ता के देवी-देवताओं का, हाकिम देवताओं का संजाल है। सत्ता और हाकिम के इन देवालयों की क्षेत्रवार चेन इतनी विस्तृत और गहरी पैठी हुई है कि हर हिंदू के लिए वहीं जीने की नियति है। उसी से जीने के आशीर्वाद, कृपा, प्रसाद, कल्पवृक्ष के दोहन के जुगाड़ हैं। तभी आजाद भारत की जमा उपलब्धि चूं-चूं का मुरब्बा है। एटमी हथियारों से बावजूद हमें चिंता है कि चीन को कैसे डराएं, कैसे पटाएं, उससे कैसे लड़ें। कैसे पाकिस्तान नाम के इतिहास भूत को बोतल में बंद करें? कैसे भारत के लोग गूगल, फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट याकि तकनीक के कुली न हों और अपना भी कुछ वैश्विक बनाएं? कैसे चीन की आर्थिक परतंत्रता से मुक्ति पाएं? कैसे महामारी से हम भी वैसे लड़ने का दमखम पाएं, जैसे हमारा पूर्व मालिक ब्रिटेन लड़ रहा है, वैक्सीन बना रहा है। पर मंद-कुंद बुद्धि ऐसे सोचने की बजाय अपने आपको दिलासा देगी कि अमेरिका में भी इतने मर रहे हैं या यह लाचारी-बेबसी कि इतनी बड़ी आबादी है तो कैसे प्रबंध हो सकता है? या सरकार क्या कर सकती है? मतलब घायल है और कोई  मसला बना नहीं कि हिंदू बुद्धि तुरंत बहाने सोचने लगेगी। खामोख्याली में खो जाएगी।
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