बेबाक विचार

अमृत वर्ष में संसद का हाल

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अमृत वर्ष में संसद का हाल
देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है और इस बात की पूरी कोशिश हो रही है कि अमृत वर्ष में संसद का कम से कम एक सत्र नए भवन में आयोजित हो। इसके लिए नए भवन के निर्माण का कार्य जोर-शोर से चल रहा है। निर्माण कार्य पूरा होने से पहले ही शुभ मुहूर्त में पूजा-पाठ करके एक विशाल अशोक स्तंभ नए भवन के शीर्ष पर प्रतिष्ठित कर दिया गया है। संभव है कि संसद का शीतकालीन सत्र नए भवन में हो। कोरोना महामारी के दौरान नए संसद भवन की जरूरत और उसके निर्माण पर होने वाले खर्च को लेकर कई अहम सवाल उठे थे। सवाल जायज थे फिर भी इस तर्क से इसे न्यायसंगत माना जा सकता है कि सरकार ने अंग्रेजों के बनाए संसद भवन से निकल कर आजाद भारत में बने संसद भवन में अमृत वर्ष मनाने की सोच में इसका निर्माण कराया है। जैसा कि प्रधानमंत्री ने खुद कहा कि यह आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी भारत का प्रतीक होगा। फिर भी सवाल है कि क्या अंग्रेजों की बनाई संसद की इमारत से निकलने के साथ साथ भारत ब्रिटिश मॉडल से ली गई संसदीय राजनीति की आत्मा को भी छोड़ देगा? Read also अमेरिका के कारण नहीं है ताइवान संकट भारत में संसदीय प्रणाली ब्रिटेन के वेस्टमिनिस्टर मॉडल पर अपनाई गई, जिसमें राष्ट्रपति, राज्यसभा और लोकसभा मिल कर संसद का निर्माण करते हैं। संविधान में शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत अपनाया गया, जिसमें विधायिका यानी संसद और विधानसभाओं को कानून बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। साथ ही संविधान के जरिए कानून निर्माण की एक प्रक्रिया तय की गई, जिन्हें कायदे से संवैधानिक सिद्धांतों और लोकतांत्रिक परंपराओं के जरिए समय के साथ मजबूत होना चाहिए था। परंतु अफसोस की बात है कि भारत में समय के साथ कानून निर्माण की प्रक्रिया बेहतर होने की बजाय बदतर होती गई। विधायिका के ऊपर कार्यपालिका हावी हो गई और संसद का काम सरकार की ओर से बनाए गए कानूनों को मंजूरी देने भर का रह गया। सोचें, कितनी हैरानी की बात है कि संसद अपनी तरफ से किसी कानून की न तो जरूरत बता सकती है और न कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू कर सकती है। सत्र के दौरान हफ्ते में एक दिन प्राइवेट मेंबर बिल लाने का होता है। हर हफ्ते शुक्रवार को कोई भी सांसद देश और समाज की जरूरत को समझते हुए कोई बिल पेश कर सकता है। यह भी दुर्भाग्य है कि बिल चाहे कितना भी अच्छा और जरूरी हो, आज तक भारतीय संसद ने संभवतः किसी प्राइवेट मेंबर बिल को मंजूरी नहीं दी है। बहरहाल, आजादी के अमृत वर्ष में नए संसद भवन में संसदीय कार्यवाही शुरू होने से पहले आखिरी सत्र पुरानी संसद में चल रहा है। यह पुराने संसद भवन में विदाई सत्र है। इसके बाद कोई बैठक इस ऐतिहासिक संसद भवन में नहीं होगी। वैसे तो भारत में पहला संसदीय चुनाव 1952 में हुआ था लेकिन उससे पहले संविधान सभा की बैठकें इसी संसद भवन में हुई थीं। अगर संविधान सभाओं में हुई बहसों से शुरू करके अभी चल रहे विदाई सत्र तक की तुलना करें तो हैरानी भी होगी और दुख भी होगा कि भारत की संसदीय प्रणाली कहां से शुरू हुई और कहां पहुंची है! संविधान सभा में संविधान के एक एक अनुच्छेद और उसके अनुबंधों व उप अनुबंधों को लेकर लंबी लंबी बहसें हुईं। आजादी की लड़ाई से निकले तपे-तपाए कुछ राजनेता अपनी विद्वता से तो कुछ सिर्फ अपने अनुभव और जमीनी समझ के आधार पर बहसों में शामिल हुए और एक बेहतरीन संविधान और शासन की संसदीय प्रणाली तैयार की। बहस और संवाद की जिस परंपरा के साथ इस संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली की शुरुआत हुई थी आज वहीं नदारद है। आज संसद में संवाद और बहस की परंपरा विलुप्त हो गई है। कोई भी कानून बनाने से पहले बहस नहीं होती है। यहां तक कि कानून की बारीकियों पर कोई विचार नहीं किया जाता है, यह बात सुप्रीम कोर्ट ने भी कही है। सरकार के अधिकारी कानून का मसौदा बनाते हैं, जिस पर संसद की मुहर लग जाती है। सत्तापक्ष में सिर्फ मूर्तियां बैठाई जा रही हैं, जिनका काम सरकार के हर अच्छे-बुरे विधेयक को पक्ष में हाथ उठाना होता है। एकाध अपवादों को छोड़ दें तो आजाद भारत में इसकी मिसाल नहीं है कि सत्तापक्ष के किसी सांसद ने सरकार के लाए विधेयक का विरोध किया हो। संसद में व्हिप की ऐसी व्यवस्था लागू है कि कोई भी सांसद अपनी इच्छा से वोटिंग नहीं कर सकता है। सरकारी पक्ष के सांसद को बोलना नहीं है और विपक्ष के सांसद को बोलने नहीं दिया जा रहा है। उसे सरकार के प्रचंड बहुमत का दम दिखा कर चुप करा दिया जा रहा है। सो, कुल मिला कर देश की संसद अमृत वर्ष आते आते बदतर स्थिति में आ चुकी है। सरकार के एजेंडे से संसद चल रही है। संसदीय समितियों को निष्क्रिय कर दिया गया है। विधेयक संसदीय समितियों को विचार के लिए नहीं भेजे जा रहे हैं। पिछले कई बरसों से कोई संयुक्त संसदीय समिति नहीं बनी है और न कोई संयुक्त प्रवर समिति बनी है। संसद की सबसे महत्वपूर्ण समिति लोक लेखा समिति होती है, जो देश के नियंत्रक व महालेखापरीक्षक यानी कैग की रिपोर्ट पर विचार करती है पर अब कैग की रिपोर्ट्स की संख्या पहले से एक चौथाई रह गई है। उन पर भी विचार करते हुए सत्तापक्ष के सांसद अपने बहुमत के दम पर सरकार के पक्ष का फैसला करवाते हैं या समिति की रिपोर्ट रूकवा देते हैं। पेश होने से चंद मिनट या चंद घंटे पहले विधेयक सामने आ रहे हैं और मिनटों में उन्हें पास कराया जा रहा है। देश की व्यापक आबादी पर असर डालने वाले विधायक भी बिना विचार-विमर्श के पेश किए जा रहे हैं। विवादित विधेयकों को पास कराने के लिए विपक्ष को मार्शल के जरिए सदन से निकालवा देने या निलंबित कर देने की नए परंपरा शुरू हो गई है। संसद में प्रतिरोध को प्रतीकित करने वाले शब्दों को असंसदीय बनाया जा रहा है तो संसद परिसर में धरना-प्रदर्शन देने पर पाबंदी लगाई जा रही है। संसद के मॉनसून सत्र में दोनों सदनों से निलंबित सांसद 50 घंटे तक संसद परिसर में धरने पर बैठे रहे लेकिन दोनों सदनों के प्रमुखों से लेकर सरकार के संसदीय कार्य मंत्री तक किसी न उनसे बात करने की जरूरत नहीं समझी। उसकी पूरी तरह से अनदेखी कर दी गई। अमृत वर्ष के संसद सत्र में यह भी देखने को मिला को समूचा सत्ता पक्ष विपक्ष की एक नेता के इस्तीफे की मांग पर हंगामा कर रहा था। दोनों सदनों में केंद्रीय मंत्री चीख रहे थे और विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष का इस्तीफा मांग रहे थे। यह भी अद्भुत दृश्य था। सोचें, जब संसद में बहस नहीं होगी, किसी विधेयक पर चर्चा नहीं होगी, संसदीय समितियों को बिल नहीं भेजे जाएंगे, विपक्ष की कोई बात नहीं सुनी चाहिए, बल्कि विरोध करने पर उनको निलंबित कर दिया जाएगा, शब्दों को नियंत्रित किया जाएगा और धरने-प्रदर्शन रोके जाएंगे तो संसद चाहे कैसी भी फैंसी इमारत में चली जाए रहेगी तो वह बिना आत्मा के ही!
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