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फ्रांसः मैक्रों जीते पर लोकतंत्र हारा!

फ्रांस में जनता हारी, राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों जीते। जबरदस्त क्रोध, प्रतिरोध और विरोध के बावजूद फ्रांस में पेंशन सुधारों को कानूनी जामा मिल गया।14 अप्रैल को फ्रांस के सर्वोच्च संवैधानिक न्यायालय ने राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के 62 से बढ़ाकर 64 वर्ष पर पैंशन देने के अलोकप्रिय प्रस्ताव पर ठप्पा लगाया।

निसंदेह यह राष्ट्रपति की जीत है परन्तु वे इसका जश्न नहीं मना सकते हैं।फ्रांस में न तो विरोध प्रदर्शन बंद होंगे और ना ही घरेलू राजनैतिक संकट समाप्त होगा। धुर दक्षिणपंथी नेशनल रैली की मुखिया मरीन ल पेन ने कहा है कि ‘क्रूर एवं अनुचित सुधारों’ को कानून का रूप देने से ‘फ्रांस की जनता और इमेन्युएल मेक्रों का नाता हमेशा के लिए टूट गया है’।

यह चिंताजनक है कि अख़बारों में इस विषय पर लेख लिखे जा रहे हैं कि क्या फ्रांस में लोकतंत्र बचा है और ऐसे लेखों में राष्ट्रपति की कड़ी आलोचना हो रही है। हाल में वे जब द हेग में भाषण दे रहे हैं तब कुछ कार्यकर्ताओं ने बीच में शोर मचाकर फ्रांस में प्रजातंत्र की स्थिति पर प्रश्न उठाए। मैक्रों जब नेक्सस इंस्टिट्यूट को उन्हें आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद दे रहे थे तभी एक विरोध प्रदर्शनकारी ने चिल्ला कर कहा, “मुझे लगता है कि हमने कुछ खो दिया है। फ्रांस का लोकतंत्र कहाँ है?”

फैसले के दिन पूरे देश में तनाव था; पुलिस हाई अलर्ट पर थी और सर्वोच्च संवैधानिक न्यायालय, जिसे कांस्टीट्यूशनल कौंसिल कहा जाता है, के आसपास प्रदर्शनों पर पाबंदी लगा दी गई थी। विपक्ष को उम्मीद थी कि कौंसिल इस फैसले को पलट देगी और जनता को आशा थी कि उनके अधिकारों की जीत होगी।

दोनों को निराशा हाथ लगी। नौ सदस्यीय परिषद ने फैसला दिया कि सरकार द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया असंवैधानिक नहीं मानी जा सकती। उसने नए कानून के उस हिस्से को भी मान्य ठहराया जिसमें सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ायी गई थी। नए नियम सन् 2030 से लागू होंगे।इसके कुछ ही समय बाद माहौल हिंसक हो गया। सैकड़ों प्रदर्शनकारियों ने पेरिस सिटी हाल से मैरे क्षेत्र तक रैली निकाली, नारेबाजी की और कचरे के डिब्बों से लेकर पुलिस स्टेशनों तक में आग लगाई। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह निर्णय फ्रांस की संसद और जनता दोनों की इच्छा के विरूद्ध लागू किया गया है। कौंसिल ने पेंशन की आयु 62 वर्ष बनाए रखने के मुद्दे पर जनमत संग्रह के विपक्षी सांसदों के प्रस्ताव को भी ख़ारिज कर दिया।

कौंसिल के निर्णय से लोगों की नाराजगी और बढ़ गई है और यह लगभग निश्चित है कि विरोध जारी रहेगा। पेरिस की सड़कों पर बदबू और सड़न के हालात कायम रहेंगे, हवाईअड्डों पर कामकाज बाधित रहेगा और आक्रोश बना रहेगा। कौंसिल के फैसले के पहले की गई रायशुमारी से ज्ञात हुआ कि 52 प्रतिशत फ्रांसीसी विरोध जारी रखने के पक्ष में हैं। लेकिन राष्ट्रपति मैक्रों अड़े हुए हैं। उन्होंने कहा कि “अपनी राह पर चलते रहना ही मेरा सिद्धांत है”।

यद्यपि राष्ट्रपति मैक्रों ने बातचीत से इंकार नहीं किया है। उन्होंने ट्रेड यूनियन प्रतिनिधियों को चर्चा एवं फैसले का औचित्य समझाने के लिए 18 अप्रैल को अपने कार्यालय में आमंत्रित किया था। किंतु कौंसिल के फैसले के बाद चर्चा रद्द हो गई है। बल्कि अब तो मजदूर दिवस 1 मई को जबरदस्त विरोध प्रदर्शन का आव्हान किया गया है।

राष्ट्रपति मैक्रों को फूँक-फूँक कर कदम रखना पड़ रहा है। उनके इस तर्क को कोई स्वीकार नहीं कर रहा है कि अगर सरकारी पेंशन व्यवस्था को बनाए रखा जाना है तो पात्रता की न्यूनतम आयु को बढ़ाना जरूरी है क्योंकि लोग अब ज्यादा सालों तक जिंदा रहने लगे हैं। यहां तक कि बेरोजगारी की दर को वर्तमान 7 प्रतिशत से घटाकर 5 प्रतिशत (1979 के बाद यह कभी इतनी कम नहीं थी) पर लाने के उनके ‘अगले चुनाव के संकल्प’ की ओर भी कोई ध्यान ही नहीं दे रहा है। यूनियनें उनके साथ सहयोग करने के मूड में नहीं हैं। राजनैतिक दृष्टि से भी वे सुरक्षित नहीं है। मैक्रों अपनी अल्पमत सरकार को दो बार संकट में डाल चुके हैं। अलोकप्रिय कानूनों को संसद में पारित करवाने के लिए उन्होंने दो बार विश्वास मत पर वोटिंग करवाई। आने वाला समय ही बतलायेगा कि वे एक बंटे हुए देश को कैसे सम्हालते हैं।

अब तक तो विरोध, नफरत व अलगाव के ज्वार के बीच भी मैक्रों दृढ बने हुए हैं। सन 2017 में मैक्रों ने अपने आप को एक मध्यमार्गी नेता के रूप में प्रस्तुत किया था, जिसकी अपनी पार्टी थी, जो फ्रेंच रिपब्लिक को मज़बूत और लोगों के जीवनस्तर को बेहतर बनाना चाहता था और फ़्रांस के लोगों और देश की राजनैतिक प्रणाली में बेहतर तालमेल स्थापित करने का इच्छुक था। यही कारण है कि 2017 और 2022 के चुनावों में उन्होंने आसानी से मरीन ल पेन की घोर दक्षिणपंथी चुनौती पर जीत हासिल कर ली। लेकिन फिर मैक्रों ने अपनी चलाना और अपनी मर्ज़ी लोगों पर लादना शुरू कर दिया, जो कि उनके चुनावी वायदों के विपरीत था। आज 70 प्रतिशत लोग मैक्रों को पसंद नहीं करते और उनका स्थान अति-दक्षिणपंथी मरीन ल पेन ले रहीं हैं। फ्रेंच बिज़नेस चैनल बीएफएम द्वारा करवाए गए एक सर्वेक्षण, जो इस महीने की शुरुआत में प्रकशित हुआ, अगर आज जनता को मैक्रों और मरीन ल पेन के बीच चुनने को कहा जाये तो मैक्रों 45 प्रतिशत मत हासिल कर हार जाएंगे।

मैक्रों ने अपनी विश्वसनीयता खो दी है। कभी उदारवादियों की आशाओं का केंद्र रहे मैक्रों इन दिनों तिरस्कृत हैं। और अगर वे इसी राह पर चलते रहे तो जल्दी ही स्कोर होगा: इमैनुएल मैक्रों शून्य; जनता – शून्य। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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