बेबाक विचार

विनत राष्ट्रपति और संप्रभु प्रधानमंत्री का देश

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विनत राष्ट्रपति और संप्रभु प्रधानमंत्री का देश
रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बने आज 1365 दिन हो गए हैं और न जाने क्यों मेरे मन में यह सवाल उठ रहा है कि हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी इस बीच कितनी बार अपनी सरकार के कामकाज की जानकारी देने के लिए उन से मिलने गए हैं? नियम हो-न-हो, यह प्रथा हमेशा रही है कि सरकार के अहम फ़ैसलों और कामकाज की जानकारी देने के लिए प्रधानमंत्री एक नियमित अंतराल के बीच राष्ट्रपति के पास जाते हैं। विदेश यात्राओं से लौटने के बाद भी प्रधानमंत्री अपने दौरे में हुई बातचीत का ब्यौरा देने राष्ट्रपति से मिलने जाते हैं। राष्ट्रपति को सूचना-सामयिक बनाए रखने की परंपरा है। क्या नरेंद्र भाई यह परंपरा निभा रहे हैं? अगर मैं ग़लत नहीं हूं तो पिछले नौ महीने से तो वे इस तरह की किसी आचारिक-मुलाकात के लिए राष्ट्रपति के पास गए नहीं हैं। प्रधानमंत्री की राष्ट्रपति से पिछली प्रथागत भेंट पिछले साल 5 जुलाई को हुई थी। उसके बीस दिन पहले, 15 जून को, चीनी सरहद पर तक़रीबन दो दर्जन भारतीय जवान शहीद हो गए थे। इस पर देश भर में मचे शोर के बीच सेना का मनोबल ऊंचा बनाए रखने के मक़सद से नरेंद्र भाई ने 3 जुलाई को लेह जा कर सैनिकों के सामने एक ज़ोशीला भाषण दिया और लौट कर हालात की जानकारी देने के लिए राष्ट्रपति कोविंद से जा कर मिले थे। देश में नागरिकता क़ानून पर बवाल हुआ। हाथरस से पालघर तक की कलंक-कथाएं सामने आईं। संसद में किसान क़ानून हबड़-तबड़ पारित हुआ। महीनों से किसान राजधानी की सरहद पर बैठे हैं और गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में उनकी समानांतर परेड हुई। लेकिन क्या ये ऐसी बातें हैं कि नरेंद्र भाई जा कर राष्ट्रपति को यह बताते कि उनकी सरकार इन मसलों पर क्या कर रही है? रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बने आज 1365 दिन हो गए हैं और न जाने क्यों मेरे मन में यह सवाल उठ रहा है कि हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी इस बीच कितनी बार अपनी सरकार के कामकाज की जानकारी देने के लिए उन से मिलने गए हैं? नियम हो-न-हो, यह प्रथा हमेशा रही है कि सरकार के अहम फ़ैसलों और कामकाज की जानकारी देने के लिए प्रधानमंत्री एक नियमित अंतराल के बीच राष्ट्रपति के पास जाते हैं। आप ही बताइए, विधानसभा चुनावों की सभाओं से थके-मांदे लौटे प्रधानमंत्री पहले महामारी से निपटने के इंतज़ाम करें, सरकार की तैयारियों का प्रारूप सर्वोच्च न्यायालय के हवाले करें या राष्ट्रपति को हालात से अवगत कराने जाएं? चाहें तो राष्ट्रपति ख़ुद भी महामारी-कुप्रबंधन, कृषि-क़ानून और किसान-आंदोलन जैसे मसलों पर प्रधानमंत्री को तलब कर जानकारी ले सकते हैं। मगर कोविंद नफ़ासत और शराफ़त से सराबोर व्यक्तित्व के धनी हैं। उन्होंने अपना पैतृक मकान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दान कर दिया था। 1977 में आपातकाल हटने के बाद वे दिल्ली हाइकोर्ट में केंद्र सरकार के वकील नियुक्त हो गए थे। वे प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के निजी सचिव भी रहे। दो बार विधानसभा का चुनाव हारने के बाद वे राज्यसभा में पहुंचे और बारह बरस सदन में रहे। मगर फिर नौ साल उन्होंने तब तक राजनीतिक वनवास भोगा, जब तक कि नरेंद्र भाई प्रधानमंत्री नहीं बन गए और उन्होंने कोविंद को अगस्त 2015 में बिहार का राज्यपाल नहीं बना दिया। फिर जुलाई 2017 में राष्ट्रपति भी उन्हें नरेंद्र भाई ने ही बनाया। सो, स्वभावगत विनम्र कोविंद से आप 75 बरस की उम्र में अगर यह उम्मीद रखते हैं कि वे अपनी सरकार के प्रधानमंत्री को राष्ट्रपति भवन बुला कर किसी भी किस्म की राष्ट्रीय आपदा पर कोई सवाल करेंगे तो यह उनके विनत-भाव के प्रति ज़्यादती होगी। उन्हें अपनी सरकार के कर्तव्य-बोध पर संपूर्ण विश्वास रखने का हक़ है। आख़िर ऐसा कोई कारण तो हो कि वे सरकार के मुखिया से कुछ पूछें-पाछें। क्या किसान-क़ानून पर दस्तख़त करने के पहले उन्होंने कोई सवाल किया? क्या जब नवंबर 2019 की 24 तारीख़ को महाराष्ट्र से राष्ट्रपति शासन हटाने का फ़रमान एकदम तड़के कोविंद के हाथ में थमा दिया गया तो उन्होंने प्रधानमंत्री से पूछा कि इसके लिए मंत्रिमंडल की बैठक क्यों नहीं बुलाई गई? सो, नरेंद्र भाई के कामकाज में मीन-मेख निकालना कोविंद का काम है ही नहीं। इस पृष्ठ-पटल पर मुझे 34 बरस पुराने दृश्य नज़र आ रहे हैं। मैं नवभारत टाइम्स, दिल्ली में विशेष संवाददाता था। 1987 के शुरुआती दिनों की बात है। राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति। दोनों के बीच गहन तनातनी चल रही थी। तब अख़बार के पहले पन्ने पर एक रविवार मेरा दिया मुख्य-समाचार छपा, जिसमें संकेत था कि प्रधानमंत्री कार्यालय को ऐसी जानकारियां मिली हैं कि खालिस्तान आंदोलन से जुड़े कुछ लोगों का राष्ट्रपति भवन में आना-जाना-ठहरना होता रहता है। तरलोचन सिंह राष्ट्रपति के प्रेस सलाहकार थे। उन्होंने नवभारत टाइम्स के दफ़्तर आ कर बहुत हंगामा किया और खुल कर कहा कि यह ख़बर राजीव गांधी ने ‘प्लांट’ की है। तो राजीव और जैल सिंह के बीच संबंधों का समीकरण तक़रीबन शत्रुवत था। राजीव ने जैल सिंह से प्रथागत-मुलाकातें भी बंद कर दी थीं। वे विदेश से लौट कर राष्ट्रपति से मिलने नहीं जाते थे। जैल सिंह ने समय-समय पर बाक़ायदा पत्र भेज कर इस पर एतराज़ किया और उन्हें बुलाया, लेकिन राजीव नहीं गए। अपनी एक ऐसी चिट्ठी जैल सिंह ने ‘लीक’ भी कर दी। राष्ट्रपति की बगल-मंडली उन्हें भड़काती रही और राजीव की उन्हें। दोनों के बीच ऐसी ठन गई कि जैल सिंह अख़बारों में इस आशय की ख़बरें रोपित कराने लगे कि वे प्रधानमंत्री को बरख़ास्त भी कर सकते हैं। इस सियासी-अंधड़ के बीच कुछ मध्यस्थों ने दोनों को महीनों समझाया। आखि़रकार 15 अप्रैल 1987 को दोपहर सवा बारह बजे राजीव और जैल सिंह की मुलाकात का वक़्त तय हुआ। राजीव राष्ट्रपति भवन पहुंचे। भूतल पर बने अध्ययन कक्ष में दोनों की पूरे 130 मिनट बातचीत हुई। जैल सिंह भी पूरी तैयारी से थे और राजीव भी। जैल सिंह ने संविधान में राष्ट्रपति को दिए गए अधिकारों का विस्तार से ज़िक्र किया। कहा कि उन्हें संवैधानिक हक़ है कि वे सरकार से कोई भी सूचना मांग सकें और सरकार को वह जानकारी देनी होगी। राजीव ने कहा कि सरकार की तरफ़ से भेजी जाने वाली सूचनाएं राष्ट्रपति भवन से ‘लीक’ हो रही हैं, इसलिए सरकार को सोचना होगा कि कौन-सी सूचना दे और कौन-सी नहीं। बहरहाल, बर्फ़ थोड़ी-सी पिघली, मगर शीत-युद्ध पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ। उसी शाम राष्ट्रपति भवन में पद्म-सम्मान समारोह था। उसके बाद अनौपचारिक चाय-पान में राजीव और जैल सिंह साथ-साथ खड़े थे। पत्रकारों ने पूछा कि क्या अब भी आप एक-दूसरे को पत्र लिखेंगे? जैल सिंह ने हंस कर जवाब दिया कि जब तक हम दोनों जीवित हैं, एक-दूसरे को ख़त लिखते रहेंगे। फिर बोले कि हमारे ये पत्र 80 साल बाद प्रकाशित होंगे, तब उन्हें पढ़ना। राजीव ने तपाक से कहा, 80 नहीं, 50 साल बाद। जैल सिंह ने गेंद लपकी और कहा कि कब प्रकाशित होंगे, इसका कोई महत्व नहीं है, मगर एक बात तय है कि तब न ये प्रधानमंत्री रहेंगे, न मैं राष्ट्रपति। फिर एक आंख हलकी-सी दबा कर बोले, लेकिन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री नाम की संस्थाएं तब भी मौजूद रहेंगी। सो, मसला कोविंद की लिहाज़दारी और नरेंद्र भाई की ख़ुदमुख़्तारी का नहीं, संस्थाओं के बीच की आचार-संहिता का है। क्या आपको लगता है कि दोनों अपने-अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं? (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)
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