बेबाक विचार

प्रतीकों के खेल में मोदी बेजोड़

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प्रतीकों के खेल में मोदी बेजोड़
राजनीति धारणा और प्रतीकों का खेल है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि प्रतीकों के जरिए धारणा बनाने का खेल है। इस खेल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बेमिसाल खिलाड़ी हैं। प्रतीकों का इस्तेमाल उनसे बेहतर कोई नहीं कर सकता है और न उन प्रतीकों से धारणा बनाने-बदलने का काम कोई उनसे अच्छा कर सकता है। उन्होंने आजादी की 75वीं वर्षगांठ के मौके पर लाल किले से भाषण देते हुए एक के बाद एक कई प्रतीकों का इस्तेमाल किया और उनसे जनमानस को प्रभावित किया या करने का प्रयास किया। आजादी के अमृत वर्ष में उनकी पार्टी ने देश को पहली आदिवासी राष्ट्रपति दिया था। वह भी एक महिला के रूप में। आजादी दिवस से ठीक पहले द्रौपदी मुर्मू देश की राष्ट्रपति बनीं। यह महिला और आदिवासी दोनों प्रतीकों को चुनावी विमर्श में स्थापित करने का प्रयास था। लाल किले से भाषण में भी प्रधानमंत्री ने इसका इस्तेमाल किया। प्रधानमंत्री मोदी ने लाल किले से अपने भाषण की शुरुआत में खासतौर पर आजादी की लड़ाई में आदिवासी योद्धाओं के योगदान और उनकी शहादत को याद किया। उन्होंने भगवान बिरसा मुंडा और सिद्धो-कान्हो का नाम लिया। ये नाम आदिवासी गौरव से जुड़े हैं, उनकी अस्मिता से जुड़े हैं और उनको लोक कथाओं का हिस्सा हैं। लाल किले से शायद ही कभी किसी प्रधानमंत्री ने इनका नाम लिया होगा। वह सचमुच गर्व का क्षण था, जब ऐतिहासिक लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी ने भगवान बिरसा मुंडा, सिद्धो-कान्हो और सीताराम राजू का नाम लिया। सोचें, इस संबोधन से देश के आदिवासी समाज ने अपने को किस तरह से प्रधानमंत्री के साथ जुड़ा हुआ महसूस किया होगा! ध्यान रहे आदिवासी बहुल झारखंड और छत्तीसगढ़ में भाजपा बेहद कमजोर हुई है और ओडिशा में अभी अपनी जगह ही तलाश रही है। लेकिन आदिवासी राष्ट्रपति के बाद आदिवासी योद्धाओं का लाल किले से जिक्र करके प्रधानमंत्री ने उन्हें अपने साथ जोड़ने की पहल की है। दूसरा बेहद प्रभावशाली प्रतीक, जिसे प्रधानमंत्री ने चुना वह महिलाओं का है। उन्होंने बहुत भावुक और कुछ हद तक असहज होते हुए नारी के अपमान की बात कही। उनका भावुक और असहज होना बड़ा स्वाभाविक था लेकिन अगर वह अभिनय था तो बेहद दमदार था। उन्होंने कहा कि पता नहीं कैसे नारी का अपमान हमारी बोलचाल से लेकर सहज स्वभाव का हिस्सा हो गया है। प्रधानमंत्री का इसके लिए आभार व्यक्त किया जाना चाहिए कि उन्होंने लाल किले से यह बात कही। सोचें, किस तरह से नारी का अपमान भारतीय समाज में स्वीकार्य हो गया है। नारी के सम्मान में सैकड़ों श्लोक और कविताएं लिखी गईं हैं लेकिन लगभग सारी गालियां भी स्त्रियों को लेकर ही बनी हैं। अगर प्रधानमंत्री की अपील से जरा सा भी बदलाव आता है तो वह बहुत बड़ी बात होगी। अब सवाल है कि प्रधानमंत्री ने जो कहा उसे प्रतीकात्मक क्यों माना जाए? इसलिए क्योंकि वास्तविकता कुछ और है। प्रधानमंत्री ने खुद विपक्ष की महिला नेताओं- सोनिया गांधी, रेणुका चौधरी, ममता बनर्जी और दिवंगत सुनंदा पुष्कर के बारे में ऐसी ऐसी बातें कहीं हैं, जो किसी भी स्त्री के लिए अपमानजनक है। उनकी पार्टी और सरकार स्त्रियों के प्रति कैसा भाव रखती है यह आजादी दिवस के भाषण के अगले ही दिन पता चल गया, जब गुजरात में एक गर्भवती स्त्री से बलात्कार करने और उसकी नवजात बच्ची सहित कई लोगों की हत्या करने के दोषियों को जेल से रिहा कर दिया गया। तीसरा प्रतीक परिवारवाद का है। परिवारवाद राजनीति की या समाज की एक बुराई हो सकती है लेकिन प्रधानमंत्री के लिए यह प्रतीकात्मक ही है क्योंकि उनको सिर्फ विपक्षी पार्टियों के नेताओं का परिवारवाद दिखता है। किसी न किसी राजनीतिक परिवार से जुड़े दर्जनों नेता इस समय भाजपा में भी हैं। वे सांसद हैं, विधायक हैं, केंद्र व राज्य सरकार में मंत्री हैं और यहां तक कि मुख्यमंत्री भी हैं। लेकिन उसमें प्रधानमंत्री को कोई बुराई नहीं दिखती है। भाजपा की कई सहयोगी पार्टियां राजनीतिक परिवारों की हैं, जिनका नेतृत्व एक ही परिवार की दूसरी या तीसरी पीढ़ी कर रही है। लेकिन उसमें भी कोई दिक्कत नहीं है। इतना होते हुए भी प्रधानमंत्री इतनी जोर से परिवारवाद के खिलाफ बोलते हैं कि सबको लगता है कि यह आदमी कुछ भी हो सकता है परिवारवादी नहीं होगा। उन्हें और उनकी पार्टी को लालू प्रसाद के बेटे तेजस्वी यादव का उप मुख्यमंत्री बनना परिवारवादी लगता है लेकिन चौधरी देवीलाल के पड़पोते, ओमप्रकाश चौटाला के पोते और अजय चौटाला के बेटे दुष्यंत चौटाला का उप मुख्यमंत्री बनना लोकतांत्रिक लगता है! उन्हें मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव का मुख्यमंत्री बनना परिवारवादी लगता है लेकिन दोरजी खांडू के बेटे पेमा खांडू का मुख्यमंत्री बनना लोकतांत्रिक लगता है। इस किस्म की अनगिनत मिसालें हैं, सब लिखने की जरूरत नहीं है। इसके बावजूद उन्होंने परिवारवाद के प्रतीक का इस्तेमाल विपक्ष को बैकफुट पर लाने के लिए सफलतापूर्वक किया है। भ्रष्टाचार का विरोध भी ऐसी ही प्रतीकात्मक राजनीति का हिस्सा है। उन्होंने लाल किले के अपने भाषण में भ्रष्टाचार पर हमला बोलते हुए यहां तक कह दिया कि लोग भ्रष्टाचारियों से नफरत करें। बुद्ध से लेकर गांधी तक कहते रहे हैं कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं। लेकिन प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचारियों से घृणा करने की बात कही। यह अलग बात है कि भ्रष्टाचार के कितने ही आरोपी भाजपा में शामिल हो गए और पार्टी ने उनसे नफरत करने की बजाय उनको गले लगा लिया। ऐसे नेताओं की संख्या उंगलियों पर नहीं गिनी जा सकती है, जिनके खिलाफ पहले केंद्रीय एजेंसियों की जांच चल रही थी, छापे पड़े थे और वे भाजपा में शामिल हो गए तो सारी प्रक्रिया थम गई। भ्रष्टाचार के लड़ने का यह सेलेक्टिव तरीका इस सरकार की पहचान बन गया है। फिर भी प्रधानमंत्री ने बहुत ऊंची आवाज में और बहुत ऊंची जगह से भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान छेड़ने और उसमें जनता से सहयोग करने की अपील की। वास्तविकता अपनी जगह है कि लेकिन यह अपील देश के करोड़ों नागरिकों के कान में गूंजती रहेगी। प्रधानमंत्री ने भाषा से लेकर विरासत तक के प्रतीकों का इस्तेमाल किया और इतने शानदार तरीके से किया कि विपक्ष काफी समय तक हकबकाया रहा कि इसका कैसे जवाब दें। विपक्ष की मुश्किल यह है कि वह इन प्रतीकों का तिलिस्म उजागर करने में नाकाम हो रहा है, उलटे इसी तिलिस्म में उलझ जा रहा है।
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