बेबाक विचार

पीएमओ है या सीएमओ

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पीएमओ है या सीएमओ
ऐसा नहीं है कि सिर्फ लोकसभा या राज्यसभा अप्रासंगिक हुई है, केंद्र से लेकर राज्यों तक पूरा राजनीतिक सिस्टम अप्रासंगिक हो गया है। अब सिर्फ दो संस्थाओं की प्रासंगिकता है। केंद्र में प्रधानमंत्री कार्यालय और राज्यों में मुख्यमंत्री कार्यालय। केंद्र सरकार में कहने को 75 से ज्यादा मंत्री हैं लेकिन ज्यादातर मंत्रियों का कोई मतलब नहीं है। भारत के सिस्टम में पहले भी राज्यमंत्रियों की कोई खास भूमिका नहीं होती थी। यह पहले से चल रहा है कि जो कैबिनेट मंत्री होता है वह राज्यमंत्रियों को काम नहीं देता है। राज्यमंत्रियों का काम सिर्फ संसदीय सवालों के जवाब तैयार करना और कैबिनेट मंत्री की गैरहाजिरी में सवालों के जवाब देना। इस सिस्टम के मुताबिक ही अभी की सरकार के भी राज्यमंत्रियों का कोई खास काम नहीं है और न मतलब है। मतलब तो कैबिनेट मंत्रियों का भी खास नहीं है। एकाध कैबिनेट मंत्रियों को छोड़ दें तो बाकी किसी भी मंत्री की हैसियत ऐसी नहीं है कि वह कोई नीतिगत पहल कर सके। सारे नीतिगत फैसले प्रधानमंत्री कार्यालय से होंगे। प्रधानमंत्री कार्यालय और कैबिनेट सचिवालय नई नीति बनाने और नीतियों में बदलाव की पहल करेंगे और बाकी सब लोगों को वहां से मिले निर्देश का अनुपालन करना होगा। एक व्यक्ति या एक व्यक्ति के इलहाम से सरकारी नीतियां बनती-बिगड़ती हैं। यह सब जानते हैं कि भारत सरकार के किसी मंत्री को नोटबंदी जैसे बड़े फैसले की जानकारी नहीं थी। उन्हें सीधे कैबिनेट की बैठक में बताया गया और वे कुछ समझते उससे पहले इसकी घोषणा हो गई। लगभग सभी नीतियों के मामले में ऐसा ही होता है। एक व्यक्ति के करिश्मे से सत्तारूढ़ दल के सारे लोग चुनाव जीते हैं और उसी व्यक्ति की कृपा से मंत्री बने हैं इसलिए सोचने-विचारने और सारे फैसले करने का अधिकार भी उसी व्यक्ति के पास है। ऐसा नहीं है कि सरकार के कैबिनेट मंत्री इस व्यवस्था से दुखी होंगे। वे खुश होंगे कि उन्हें कुछ नहीं करना है। उन्हें ऊपर से निर्देश मिलता है और उस हिसाब से वे फाइल तैयार करते हैं और आगे बढ़ा देते हैं। हर चीज प्रधानमंत्री कार्यालय से संचालित है और हर चीज का श्रेय भी प्रधानमंत्री और उनके कार्यालय को ही मिलना है। किसी गड़बड़ी का ठीकरा फोड़ने की नौबत ही नहीं आती है क्योंकि इस सरकार ने यह धारणा बना रखी है कि वह कुछ भी गलत नहीं करती है। अगर किसी चीज को गलत कहा जा रहा है तो वह भी गलत है नहीं, लोग उसे गलत समझ रहे हैं। जैसा कृषि कानूनों के मामले में हुआ। सरकार ने कानून बनाया, एक साल तक उसे बिना लागू किए बनाए रखा और फिर वापस ले लिया लेकिन यह नहीं माना कि उससे कोई गलती हुई थी, बल्कि यह कहा गया कि कुछ लोगों को सरकार इसके बारे में समझा नहीं पाई। बहरहाल, जो व्यवस्था केंद्र में पीएमओ की है वहीं व्यवस्था राज्यों में सीएमओ की है। राज्यों में भी जो कुछ होना है वह मुख्यमंत्री कार्यालय से होना है। मुख्यमंत्री को किसी दिन इलहाम हुआ कि राज्य में राजस्व बढ़ाने के लिए शराब की और दुकानें खोलने की जरूरत है तो वह सौ-दो सौ लाइसेंस जारी कर देगा और फिर उसी मुख्यमंत्री को इलहाम होगा कि शराब पीना बुरी बात है तो वह शराबबंदी कर देगा। उसे किसी से पूछने या सलाह लेने की जरूरत नहीं है। किसी मुख्यमंत्री को लगा कि अमुक जगह पर नई राजधानी बनानी चाहिए तो वह फैसला कर लेगा और काम शुरू कर देगा लेकिन किसी दूसरे मुख्यमंत्री को लगा कि इलहाम हुआ कि वह जगह  राजधानी के लिए ठीक नहीं है तो वह बीच में काम रोक देगा। इसके लिए भी उसे किसी के सलाह मशविरे की जरूरत नहीं है। जिन राज्यों में प्रादेशिक पार्टियों का शासन है वहां सरकार और पार्टी का भेद खत्म हो गया है। पार्टी का मुखिया ही सरकार का प्रधान है। वह जैसे पार्टी चलाता है वैसे ही सरकार चलाता है। उसके सामने न पार्टी में कोई कुछ बोल सकता है और न सरकार में। राष्ट्रीय पार्टियों में पहले जरूर मुख्यमंत्रियों की मनमानी नहीं चलती थी। लेकिन अब वह भी खत्म हो गई है। कांग्रेस आलाकमान के कमजोर होने के बाद मुख्यमंत्रियों पर से पार्टी की पकड़ कमजोर हो गई है। सीपीएम जैसी पार्टी के महासचिव भी अपने इकलौते मुख्यमंत्री पर कोई लगाम नहीं लगा सकते। जहां तक भाजपा का सवाल है तो पहले उसके क्षत्रप मुख्यमंत्री होते थे और अपने हिसाब से काम करते थे। अब लगभग सारे मुख्यमंत्री आलाकमान की कृपा से बने हैं और उसकी कृपा तक बने रहेंगे। इसलिए वे भी पीएमओ का मॉडल फॉलो करने की आजादी लिए हुए हैं।
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