प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात में बहुत जोखिम भरा प्रयोग किया है। उन्होंने मुख्यमंत्री को हटाया तो उनके साथ सारे मंत्रियों को भी हटा दिया। यह कर्नाटक और उत्तराखंड से बिल्कुल अलग प्रयोग है। कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा के साथ मंत्री रहे लगभग सभी लोगों को बासवराज बोम्मई की सरकार में भी मंत्री बनाया गया। इसी तरह उत्तराखंड में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के साथ मंत्री रहे सारे लोग तीरथ सिंह रावत की सरकार में भी मंत्री बने और फिर वहीं सारे लोग पुष्कर सिंह धामी की सरकार में भी मंत्री हैं। जाहिर है प्रधानमंत्री ने कर्नाटक और उत्तराखंड में मुख्यमंत्री तो बदला लेकिन बाकी प्रदेश के मजबूत नेताओं की जरूरत को समझते हुए उनको मंत्री बनाए रखा।
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गुजरात में उन्होंने पुराने मंत्रियों की जरूरत नहीं समझी इसलिए उन्होंने मुख्यमंत्री के साथ साथ सारे मंत्रियों को भी हटा दिया। यह कई मायने में बहुत जोखिम वाला प्रयोग है। प्रधानमंत्री ने इतना जोखिम संभवतः इसलिए लिया क्योंकि उनको अपने करिश्मे और गुजराती अस्मिता की राजनीति पर भरोसा है। वे गुजरात के लोगों को समझा सकते हैं कि देश में गुजराती प्रधानमंत्री रहे इसके लिए जरूरी है कि राज्य में भाजपा जीते। लोग उनके नाम पर आंख मूंद कर ईवीएम में कमल के फूल के सामने बटन दबा सकते हैं। वे यह नहीं देखेंगे कि उनका उम्मीदवार कौन है या मुख्यमंत्री कौन बनेगा। वे मोदी को देख कर वोट करेंगे। लेकिन यह एक आदर्श स्थिति की कल्पना है। अगर स्थितियां अनुकूल नहीं रहती हैं और लोग सिर्फ अस्मिता की बजाय स्थानीय मुद्दों को तरजीह देते हैं और रोजमर्रा के जीवन की मुश्किलों के मसले पर वोट करते हैं तब क्या होगा?
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ध्यान रहे गुजरात देश से अलग निर्वात में बसा हुआ कोई टापू नहीं है। वहां भी वहीं समस्याएं हैं, जो पूरे देश में हैं। वहां भी आर्थिक संकट है। लोगों की नौकरियां गई हैं। रोजगार बंद हुए हैं। वहां भी कोरोना वायरस की महामारी ने तबाही मचाई और लोग सड़कों पर मरे। कोरोना वायरस के खराब प्रबंधन को लेकर हाई कोर्ट ने कई बार बेहद तल्ख टिप्पणियां कीं। ये सारे मुद्दे चुनाव में उठेंगे। गुजरात में अगर समय पर चुनाव होता है तो उस समय तक मोदी सरकार के साढ़े आठ साल पूरे होंगे और उसकी भी एंटी इन्कंबैंसी मामूली नहीं होगी। अभी हाल में हुए सर्वेक्षणों से पता चला है कि केंद्र सरकार के कामकाज से देश के लोग बहुत खुश नहीं हैं। मोदी सबसे लोकप्रिय नेता हैं इसके बावजूद केंद्र सरकार की नीतियों की बहुत आलोचना हुई है। महंगाई, आर्थिकी आदि ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर केंद्र की सरकार भी घिरेगी। इसलिए यह नहीं हो सकता है कि भूपेंद्र पटेल बिल्कुल क्लीन स्लेट हैं इसलिए उनके ऊपर कोई ठीकरा नहीं फूटेगा। भाजपा की ढाई दशक की राज्य सरकार और साढ़े आठ साल की केंद्र सरकार के कामकाज की विरासत पर ही उनको चुनाव लड़ना होगा।
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दूसरा बड़ा जोखिम यह है कि अगर अगले एक साल में कोई मजबूत प्रादेशिक क्षत्रप उभरता है तो दिल्ली से चुने गए भूपेंद्र पटेल के लिए बड़ी चुनौती हो सकती है। प्रादेशिक अस्मिता का दांव आम आदमी पार्टी भी खेल सकती है और कांग्रेस पार्टी भी ऐसा दांव चल सकती है। कामकाज की कमियों के साथ साथ अगर गुजरात की अस्मिता का प्रतिनिधित्व करने वाला या सबसे मजबूत राजनीतिक समुदाय पाटीदार की अस्मिता का प्रतिनिधित्व करने वाला चेहरा सामने आता है तो भाजपा के लिए बड़ी चुनौती होगी। इसमें यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि मुख्यमंत्री सहित जितने वरिष्ठ नेता मंत्री पद से हटाए गए हैं, वे जबरदस्ती ली गई अपनी इस कुर्बानी को आसानी से नहीं भूल जाएंगे। हटाए गए सारे मंत्री और वरिष्ठ नेता अगर चुप भी बैठ जाते हैं या परदे के पीछे से विरोध करते हैं तो भाजपा की मुश्किल और बढ़ जाएगी। इस बदलाव ने राज्य के अनेक बड़े नेताओं का राजनीतिक करियर लगभग खत्म कर दिया है। इससे पार्टी के अंदर अंतरकलह बढ़ने से इनकार नहीं किया जा सकता है। यह अंतरकलह अगले चुनाव में भाजपा के लिए भारी पड़ सकती है।
कर्नाटक, उत्तराखंड से अलग गुजरात का प्रयोग
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