बेबाक विचार

अब असली राजनीति करें राहुल

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अब असली राजनीति करें राहुल
राहुल गांधी जब से कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय हुए हैं तब से उनको सलाह देने का सिलसिला चल रहा है। कांग्रेस कवर करने वाले नए-पुराने पत्रकारों से लेकर पार्टी के नेता और राजनीतिक विचारकों से लेकर इतिहासकार तक उनको सलाह दे रहे हैं। कुछ दिन पहले समकालीन इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने राहुल गांधी की राजनीति पर लंबी टिप्पणी की। उन्होंने राहुल की पांच कमियां बताईं, जिनसे उनको लग रहा है कि वे राजनीति में सफल नहीं हो पा रहे हैं। बाद में महात्मा गांधी के प्रपौत्र राजमोहन गांधी ने रामचंद्र गुहा के तर्कों को खारिज करते हुए एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने राहुल गांधी के साहस और उनके उठाए गए मुद्दों की तारीफ की। इसमें कोई संदेह नहीं है कि राहुल गांधी का साहस उनकी असली ताकत है और वहीं उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी भी है। यह मामूली बात नहीं है कि जब प्रधानमंत्री को ही सरकार और देश दोनों मान लिया गया है और सरकार की मामूली आलोचना को भी देशद्रोह ठहराया जा रहा हो, उस समय राहुल न सिर्फ जरूरी मुद्दे उठा कर उन पर सरकार की आलोचना कर रहे हैं, बल्कि सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। उन्होंने पिछले चुनाव में ‘चौकीदार चोर है’ का नारा दिया था, उन्होंने अब भी कहा है कि ‘राफेल खरीद में देश के खजाने का पैसा चोरी हो गया’। उन्होंने ‘सूट-बूट की सरकार’ का नारा भी दिया था। वे चीन के मसले पर सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं और कई साल पहले किसानों के मामले में सरकार को पीछे हटने के लिए मजबूर किया था। कोरोना वायरस के संक्रमण और उससे होने वाली आर्थिक तबाही के मसले पर राहुल गांधी किसी नजूमी की तरह साबित हुए हैं। उनकी कही बात अक्षरशः सही साबित हुई है। उन्होंने राजनीति का जो विमर्श तय किया या जो मुद्दे उठाए उनसे वे किसी भी विचारक नेता की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। परंतु उन्होंने सरकार को निशाना बनाने के लिए जो शब्दावली चुनी वह भारतीय राजनीति की आजमाई हुई शब्दावली है। उन्होंने ‘चौकीदार चोर है’ कहा, इससे बहुत पहले 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी के नेता इंदिरा गांधी को लेकर यह नारा लगाते थे। ‘गली-गली में शोर है, इंदिरा गांधी चोर है’ का नारा जनता पार्टी ने दिया था और तमाम बड़े नेता यह नारा लगाते थे। तब इंदिरा गांधी के ऊपर इमरजेंसी लगाने की तोहमत तो थी पर चोरी का कोई इल्जाम नहीं था। फिर भी उनको चोर बताने का नारा लगा। इसलिए रामचंद्र गुहा अगर ‘चौकीदार चोर है’ के नारे को राहुल की कमजोरी बता रहे हैं और 2019 की हार को उससे जोड़ रहे हैं तो वे अधूरी तस्वीर देख रहे हैं। उन्हें पता नहीं है कि मई 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले नवंबर 2018 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की हर सभा में राहुल गांधी ने इसी नारे के जरिए प्रधानमंत्री पर हमला किया था और तीनों राज्यों में कांग्रेस जीती थी। बहरहाल, वैचारिक मुद्दे उठाना, उन्हें विमर्श के केंद्र में लाना, नारे गढ़ना आदि राजनीति का एक पहलू हैं। यह मुख्य रूप से परदे के पीछे का खेल है। असली राजनीति इससे अलग होती है। जो नेता होता है, वह असली राजनीति करता है। अफसोस की बात है कि अपनी तमाम सदिच्छा और राजनीतिक मुद्दों को पहचानने, उन्हें साहस के साथ उठाने के बावजूद राहुल गांधी असली राजनीति नहीं करते हैं। अगर वे असली राजनीति कर रहे होते तो यह स्थिति नहीं आती कि पार्टी के दो दर्जन नेताओं को अपनी बात कहने के लिए पार्टी अध्यक्ष को चिट्ठी लिखनी होती। यह तय मानें कि जिन 23 नेताओं ने कांग्रेस अध्यक्ष को चिट्ठी लिखी है, उनमें से ज्यादातर नेताओं से कांग्रेस अध्यक्ष की या राहुल गांधी की महीनों से बात नहीं हुई होगी, इसके बावजूद कि चिट्ठी लिखने वालों में कांग्रेस कार्य समिति के सदस्य हैं, पूर्व मुख्यमंत्री हैं, पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं, पार्टी के संसदीय नेता हैं। सो, राहुल गांधी को सबसे पहले पार्टी के नेताओं के साथ दोतरफा संवाद की व्यवस्था बनानी चाहिए। राहुल गांधी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए कहा था कि वे अकेले नेता थे, जो किसी भी समय उनके घर आ सकते थे। यह स्थिति कांग्रेस के हर नेता के लिए बनानी होगी। तमाम बड़े नेताओं के घर के दरवाजे अपनी पार्टी के नेताओं के लिए खुले होने चाहिए, खास कर जब पार्टी विपक्ष में हो। पार्टी नेताओं के बीच दोतरफा संवाद की व्यवस्था होनी चाहिए। इससे पार्टी के शीर्ष नेता को अलग अलग किस्म की जमीनी फीडबैक मिलती रहती है, जिसका वह अपने हिसाब से इस्तेमाल कर सकता है। अभी ऐसा लगता है कि सोनिया या राहुल गांधी के पास सेकेंड हैंड फीडबैक पहुंचती है। विपक्ष के नेता को हमेशा फर्स्ट हैंड फीडबैक की पुख्ता व्यवस्था बनानी चाहिए। कांग्रेस की आखिरी बड़ी नेता इंदिरा गांधी थीं, जिनके पास ऐसी व्यवस्था थी। चूंकि राहुल गांधी अपनी ओर से पार्टी के नेताओं से संपर्क करके उनसे संवाद नहीं कर रहे हैं इसलिए पार्टी के नेता भी धीरे धीरे उनसे दूर हो रहे हैं। यह भी लग रहा है कि राहुल गांधी और उनकी टीम रोज ट्विट करके केंद्र सरकार पर हमला करने को राजनीति करना समझ रही है। यह कतई राजनीति नहीं है। यह काम तो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लाखों और लोग भी कर रहे हैं तो क्या वे सब राजनीति कर रहे हैं? न तो सोशल मीडिया में सरकार के समर्थन में पोस्ट करना राजनीति है और न उसका विरोध करना राजनीति है। असली राजनीति लगातार अपनी पार्टी को और पार्टी के तमाम नेताओं को संगठन के काम में, राजनीतिक गतिविधियों में और रचनात्मक कार्यों में सक्रिय बनाए रखने से होती है। ऐसी कोई खबर देखने, पढ़ने को नहीं मिलती है कि राहुल गांधी कांग्रेस की प्रदेश इकाइयों के नेताओं के साथ बैठक कर रहे हैं, मुख्यमंत्रियों से बात कर रहे हैं, प्रदेश अध्यक्षों को फोन करके उनके कामकाज का ब्योरा उनसे पूछ रहे हैं, किसी आंदोलन की रूप-रेखा बना रहे हैं या पार्टी को आंदोलन के लिए प्रेरित कर रहे हैं। पिछले दिनों उन्होंने बिहार प्रदेश के नेताओं, कार्यकर्ताओं से चुनाव को लेकर चर्चा की उनकी इस वीडियो कांफ्रेंस ने सचमुच पार्टी के प्रदेश नेताओं में जान फूंकी। वे चाहें तो हर दिन एक राज्य के नेताओं से इस किस्म की बातचीत कर सकते हैं। एक नेता के तौर पर यह उनकी जिम्मेदारी भी है कि वे हर राज्य के अपने नेताओं की खबर रखें। जिसे अध्यक्ष या मुख्यमंत्री बनाया है, वह क्या काम कर रहा है, जो नहीं बन पाया है वह किस तिकड़म में लगा हुआ है, कौन नया दावेदार है, कौन अच्छा काम कर रहा है, कौन निष्क्रिय बैठा हुआ है, संगठन में संतुलन बैठाने के लिए क्या करना है, किसके जरिए किसको शह या मात दी जा सकती है, कौन पसंद नहीं है फिर भी पार्टी के लिए जरूरी है, इसकी पहचान नेता को खुद से होनी चाहिए। पार्टी और संगठन के रोज-रोज का घटनाक्रम उसकी जानकारी में होना चाहिए। राहुल को यह ध्यान रखना चाहिए कि सुर्खियों के प्रबंधन से सरकार तो चल सकती है पर विपक्ष की राजनीति उससे नहीं हो सकती, उसके लिए संगठन मजबूत करना होगा और संघर्ष के लिए जमीन पर उतरना होगा।
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