कांग्रेस पार्टी में साहसी फैसले शुरू हो गए हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह को हटाना मामूली फैसला नहीं था। कांग्रेस के बाकी सभी क्षत्रपों के मुकाबले कैप्टेन की स्थिति ज्यादा मजबूत थी क्योंकि वे दिवंगत राजीव गांधी और सोनिया गांधी के दोस्त हैं। इसके बावजूद कांग्रेस को जब पता चला कि उनकी कमान में पार्टी नहीं जीत पाएगी और उनके खिलाफ बहुत ज्यादा एंटी इन्कंबैंसी है तो उनको बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। अब इस बात पर चर्चा हो सकती है कि उनको हटाने का फैसला ठीक तरीके से हुआ या नहीं, लेकिन राहुल और प्रियंका का नेतृत्व स्थापित करने और अगले चुनाव के लिहाज से यह सही और साहसिक फैसला है। congress party rahul gandhi
एक तरफ जहां भारतीय जनता पार्टी राज्यों की मजबूत और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण जातियों को तरजीह दे रही है तो दूसरी ओर कांग्रेस ने इसके उलट राजनीति की है। जैसे भाजपा ने गुजरात में पाटीदार समाज के भूपेंद्र पटेल को कमान दी वैसे कांग्रेस ने पंजाब में जाट सिख को कमान न देकर दलित को मुख्यमंत्री बनाया। चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला भी बहुत साहसिक है और काफी हद तक विपक्षी पार्टियों को बैकफुट पर लाने वाला है। कांग्रेस आलाकमान पर हमला कर रही कोई पार्टी चन्नी को निशाना नहीं बना रही है। कांग्रेस ने भी अपने ऊपर होने वाले हमलों को यह ट्विस्ट दे दिया है कि विरोधियों को दलित मुख्यमंत्री बरदाश्त नहीं हो रहा है।
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इसी तरह कांग्रेस ने सीपीआई के नेता कन्हैया कुमार और गुजरात के दलित विधायक जिग्नेश मेवानी को पार्टी में शामिल करके भी साहस का काम किया है। कांग्रेस को पता है कि कन्हैया कुमार के खिलाफ भाजपा ने टुकड़े टुकड़े गैंग का नैरेटिव बनाया था और आगे भी उनको इस मसले पर घेरा जा सकता है। इसके बावजूद उनको पार्टी में शामिल करके कांग्रेस ने यह मैसेज बनवाया है कि वह भाजपा के आईटी सेल के बनाए नैरेटिव को ध्वस्त करना चाहती है। कांग्रेस का यह दांव सटीक बैठा तो उसे इसका बड़ा फायदा होगा। इसके जरिए वह आईटी सेल के बनवाए कई मिथकों को तोड़ सकती है, जिसमें से एक मिथक राहुल गांधी के पप्पू होने का भी है। भाजपा ने इस बात का ऐसा प्रचार किया है कि सचमुच लोग इस बात पर यकीन करने लगे हैं कि राहुल विपक्ष की कमान नहीं संभाल सकते हैं और न मोदी का मुकाबला कर सकते हैं।
कांग्रेस ने हाल के दिनों में दो और बड़े फैसले किए, जिन पर कम चर्चा हुई। एक फैसला तो असम में हुआ, जहां कांग्रेस ने बदरूद्दीन अजमल की पार्टी एआईयूडीएफ से तालमेल खत्म कर लिया। यह भी खबर है कि कांग्रेस राज्य में होने वाले उपचुनाव ऑल असम स्टूडेंट यूनियन से की बनाई असम जातीयता परिषद के लिए एक सीट छोड़ने वाली है। यह कांग्रेस की नई राजनीति है। इससे पहले कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में भी फुरफुरा शरीफ के पीरजादा मौलाना अब्बास सिद्दीकी की पार्टी इंडियन सेकुलर फ्रंट से भी दूरी बना ली। इन दोनों पार्टियों से अलग होकर कांग्रेस ने बहुसंख्यक मतदाताओं को बड़ा मैसेज दिया है। उसने बताया है कि वह मुस्लिम पार्टियों को छोड़ रही है और शिव सेना के साथ बनी हुई है। यह भी बड़ा साहसी मैसेज है।
वैसे भी अगले साल होने वाले चुनावों के लिए कांग्रेस ने जरूरी फैसला कर लिए हैं। उत्तर प्रदेश को छोड़ दें तो बाकी राज्यों में कांग्रेस लड़ती दिख रही है। नतीजे क्या होंगे, यह नहीं कहा जा सकता। लेकिन कांग्रेस ने उत्तराखंड में हरीश रावत का चेहरा आगे कर मुकाबला कांटे का बना दिया है तो पंजाब में दलित मुख्यमंत्री की वजह से कांग्रेस को शुरुआती बढ़त मिल गई है। गोवा में कांग्रेस ने वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम को चुनाव का जिम्मा दिया है। संगठन में चल रही उठापटक के बीच अगर कांग्रेस अगले साल चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करती है तो कुछ हालात सुधर सकते हैं।
कांग्रेस में फैसले तो हो रहे हैं
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