
उदयपुर की घटना, संगरूर से सिमरनजीत सिंह मान की जीत और महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे का मुख्यमंत्री बनना बुरे वक्त में फैलती छिन्न-भिन्न राजनीति का प्रमाण है। आने वाले वक्त में कांग्रेस, अखिलेश यादव से लेकर तेजस्वी यादव आदि सभी सेकुलर पार्टियों के लिए भाजपा से लड़ना और मुश्किल होगा। सेकुलर पार्टियों को दोतरफा मार है। उन्हें हताश-निराश मुसलमान वोटों को ओवैसी की पार्टी में जाने से रोकना है तो दूसरी और हिंदू वोटों को पटाना है। सभी के लिए सन् 2024 का लोकसभा चुनाव अहम है। मगर इससे पहले देश में जो माहौल बनता हुआ है और खासकर उत्तर भारत में तो दोनों तरफ के फ्रिंज एलीमेंट बेकाबू होंगे। ऐसे में न नूपुर शर्मा आदि की आलोचना आसान है और न उदयपुर के आतंकियों की भर्त्सना से हिंदुओं का विश्वास जीत सकना सेकुलरों के लिए आसान है।
मतलब विपक्षी पार्टियों के लिए आगे अस्तित्व का यह संकट होगा कि वह कैसे दोनों समुदायों का विश्वास बनाएं। दोनों समुदायों में मन ही मन जो सोच बनती हुई है उसमें दोनों तरफ भाजपा और ओवैसी की पार्टी के लिए तो मौका है लेकिन सेकुलर पार्टियों के लिए नहीं। आप पार्टी पर विचार करें। उसके आगे अब यह चुनौती है कि वह पंजाब में कैसे हिंदू और सिख वोटों का साझा विश्वास पहले जैसा बनाए रखे। संगरूर के उपचुनाव में खालिस्तानी भावना के प्रतिनिधि मान की जीत का सीधा अर्थ है कि पंजाब की सिख राजनीति में न केवल कांग्रेस, भाजपा पार्टी खत्म है, बल्कि बादल परिवार का अकाली दल भी खत्म है। मुख्यमंत्री मान और अरविंद केजरीवाल भले अभी अपने को समर्थवान समझ रहे हैं लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा ने सिख मनोविज्ञान को जैसे आहत किया है उससे प्रदेश में उग्रवादी-अलगाववादी भभका ऑटो मोड़ में है।
सवाल है क्या नरेंद्र मोदी ने परिवारवादी पार्टियों को खत्म करने की रणनीति में ही अकाली पार्टी को वैसे ही नहीं निपटाया है, जैसे अभी शिव सेना को खत्म करने के रोडमैप से जाहिर हुआ है? भाजपा की दोनों पुरानी सहयोगी पार्टियां, और भाजपा ने दोनों के परिवार को किस स्थिति में पहुंचाया! अपनी जगह यह चतुराई भरी रणनीति है जो परिवारवादी राजनीति को खत्म करने के नाम पर उन पार्टियों को खत्म किया जाए, जिनका खानदानी नेतृत्व है। इससे अपने आप भाजपा और संघ परिवार का अकेले भारत में स्थायी दीर्घकालीन दबदबा बनेगा। मोदी और संघ परिवार का यह सोचना गलत नहीं है कि अकाली दल और शिव सेना खत्म हों तो दोनों प्रदेशों में हिंदू वोटों की अपने आप भाजपा के लिए गोलबंदी होगी। हालिया चुनाव में आप को भले पंजाब में हिंदू वोट मिले हों लेकिन यदि सिमरनजीत सिंह मान और उग्रवादी राजनीति बढ़ती गई तो 2024 के लोकसभा चुनाव तक पंजाब में भाजपा के वोट भारी जंप लिए हुए होंगे।
महाराष्ट्र में मुंबई के लोकल बीएमसी चुनाव में एकनाथ शिंदे यदि शिव सेना का नंबर एक पार्टी का रूतबा खत्म करा देते हैं तो उसके बाद ठाकरे की परिवारवादी पार्टी का पतन तय है। महाराष्ट्र में एनसीपी और कांग्रेस का जीवन-मरण भी अब इस बात पर निर्भर है कि उद्धव ठाकरे और उनकी शिव सेना हिंदुओं में जमी रहती है या नहीं? मुंबई-ठाणे-कोंकण के शि्व सैनिकों को सत्तावान (एकनाथ शिंदे से ले कर नारायण राणे) बना कर मोदी-शाह ने महाराष्ट्र की 48 लोकसभा सीटों की वह राजनीति पकाई है, जिसका अंदाज शरद पवार, अशोक चव्हाण आदि किसी को नहीं होगा। उद्धव ठाकरे की पार्टी के खत्म होने का अर्थ होगा कि देश में कोई दूसरी पार्टी हिंदू राजनीति का दावा करने वाली नहीं बचे। समावेशी राजनीति से मुसलमान के भरोसे की गुंजाईश भी खत्म।
सोचें, राहुल गांधी के नेतृत्व के परिवारवादी हल्ले में कांग्रेस और एनसीपी भी शरद पवार की परिवारवादी पार्टी। इन्हें और इनके साथ यदि सभी परिवारवादी पार्टियों का 2024 में दम टूट जाए तो भारत की राजनीति में हिंदुवादी भाजपा और संघ परिवार की हमेशा के लिए एकछत्रता बनेगी या नहीं?