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बिहार और हिंदी पट्टी की राजनीति

आजाद भारत के इतिहास में दो बार- 1977 और 1989 में विपक्ष ने एकजुट होकर सत्तारूढ़ दल को हराया है। दोनों बार के बदलाव में बिहार की बड़ी भूमिका रही थी। इसी रेपुटेशन की वजह से इस बार भी जब भाजपा के खिलाफ विपक्ष का गठबंधन बनाने की बात हो रही है तो बिहार की भूमिका देख रही है। बिहार की भूमिका इस वजह से भी बढ़ी है क्योंकि जिस समय भाजपा अपने ऑपरेशन लोटस के तहत मध्य प्रदेश से लेकर कर्नाटक और महाराष्ट्र तक कांग्रेस की सरकार गिरा कर अपनी सरकार बना रही थी उस समय बिहार में नीतीश कुमार ने भाजपा से नाता तोड़ कर राजद और कांग्रेस के साथ सरकार बनाई। इस तरह भाजपा को बिहार की सत्ता से बाहर किया। उसके बाद से ही नीतीश और उनकी पार्टी के नेता यह राजनीतिक विमर्श चलाए हुए हैं कि देश के आधा दर्जन राज्यों में भाजपा की सीटें कम की जा सकती हैं, जिससे वह अगले चुनाव में बहुमत नहीं हासिल कर पाएगी।

इस थ्योरी को देने के बाद नीतीश इस पर अमल के लिए भागदौड़ कर रहे हैं। दिल्ली में जब वे मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी से मिले तो उन्होंने कहा है कि वे यूपीए से बाहर की छह पार्टियों के नेताओं से बात कर सकते हैं। इसमें उन्होंने तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस जगन मोहन रेड्डी, ओड़िशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से बात करने की बात कही। हालांकि नवीन पटनायक और जगन मोहन रेड्डी के बारे में सबको पता है कि वे विपक्षी गठबंधन में शामिल नहीं होंगे। के चंद्रशेखर राव व ममता बनर्जी पहले से विपक्षी गठबंधन बनाने के प्रयास में हैं इसलिए उनके साथ ज्यादा बात करने की जरूरत नहीं है। असली मसला उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और बाकी हिंदी प्रदेशों में अरविंद केजरीवाल से तालमेल बनवाने का है। क्या नीतीश यह काम कर पाएंगे?

खड़गे और राहुल गांधी से मिलने के बाद बुधवार को नीतीश कुमार ने अरविंद केजरीवाल से मुलाकात की। इसके अगले दिन आप के राज्यसभा सांसद संजय सिंह से मिले। केजरीवाल से मुलाकात तो औपचारिक प्रकृति की थी लेकिन संजय सिंह से गंभीर राजनीतिक बात हुई है। अगर नीतीश कुमार किसी तरह से केजरीवाल के साथ विपक्ष और खास कर कांग्रेस का गठबंधन बनवाते हैं तो वह बहुत बड़ी बात होगी क्योंकि कांग्रेस को असली खतरा सिर्फ आम आदमी पार्टी से है। वे बाकी प्रादेशिक पार्टियों के खिलाफ चुनाव लड़ने उनके असर वाले राज्य में नहीं जा रहे हैं। उनको बंगाल या तेलंगाना में चुनाव नहीं लड़ना है और न बिहार या तमिलनाडु में लड़ना है। उनको दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात आदि राज्यों में लड़ना है, जहां मोटे तौर पर कांग्रेस की सीधी लड़ाई भाजपा से है। वे इन राज्यों में कांग्रेस का खेल बिगाड़ सकते हैं। जब से उनको राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिला है तब से वे और ज्यादा उत्साहित हैं। ऐसे में उनको समझना बहुत मुश्किल होगा। उनको अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा छोड़ने और विपक्ष को मजबूत करने के लिए गठबंधन में शामिल करने के लिए तैयार करना बहुत मुश्किल होगा। अभी वे कर्नाटक में चुनाव लड़ रहे हैं और साल के अंत में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे है।

नीतीश की असली परीक्षा केजरीवाल को साधने में होगी। इसके बाद उनको अखिलेश यादव को विपक्षी गठबंधन में शामिल होने के लिए तैयार करना होगा। उत्तर प्रदेश में माफिया को मिट्टी में मिला देने की जैसी राजनीति हो रही है उसे देखते हुए अखिलेश के पास ज्यादा विकल्प नहीं दिख रहे हैं। यदि अगले महीने होने वाले नगर निगम चुनाव में उनकी पार्टी का प्रदर्शन खराब होता है तो फिर ज्यादा संभावना है कि वे विपक्षी गठबंधन में शामिल होंगे। इस काम में लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव भी नीतीश की मदद कर सकते है। कायदे से लालू प्रसाद और नीतीश कुमार को अखिलेश यादव और हेमंत सोरेन से बात करके तीन राज्यों का एक मजबूत गठबंधन बनाना चाहिए। इन तीन राज्यों में लोकसभा की 134 सीटें हैं, जिनमें भाजपा के पास 93 सीटें हैं और एनडीए के पास एक सौ सीट है। जदयू के अलग होने से पहले एनडीए के पास 116 सीटें थीं। अगर इन तीन राज्यों का एक पायलट प्रोजेक्ट बनता है, जिसमें सभी 134 सीटों पर भाजपा के मुकाबले विपक्ष का एक उम्मीदवार हो तो उतने भर से बहुत कुछ बदल जाएगा।

लेकिन उससे पहले भाजपा ने बिहार में ही नीतीश कुमार को घेरना शुरू कर दिया है। जिस समय नीतीश दिल्ली में विपक्षी गठबंधन की राजनीति कर रहे थे उसी समय उनके सहयोगी जीतन राम मांझी दिल्ली में अमित शाह से मिले। मिलने का आधिकारिक कारण अलग बताया गया। लेकिन जानकार सूत्रों के मुताबिक मांझी दूसरी तरफ भी विकल्प देख रहे हैं। नीतीश के एक और सहयोगी मुकेश सहनी भी भाजपा के संपर्क में बताए जा रहे हैं। हालांकि बिहार में एनडीए में भी कम शह-मात का खेल नहीं चल रहा है। पिछले दिनों चिराग पासवान राजद की ओर से दी गई इफ्तार की दावत में शामिल हुए। वे भाजपा पर ज्यादा सीट के लिए दबाव बना रहे हैं। सो, वहां भी डाल-डाल, पात-पात की राजनीति हो रही है। इसके बावजूद अगर नीतीश हिंदी पट्टी के बड़े राज्यों में विपक्षी गठबंधन बनवाने में कामयाब होते हैं तो 2024 के लोकसभा चुनाव की तस्वीर बहुत बदलेगी।

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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