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विपक्ष अभी मुद्दे तलाश रहा है

भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व के मुकाबले विपक्ष के पास क्या है? हिंदुत्व बनाम क्या? क्या हिंदुत्व बनाम हिंदुत्व का खुला विरोध लोकसभा चुनाव का केंद्रीय मुद्दा हो सकता है? बिहार और उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टियों के नेता जैसी बयानबाजी कर रहे हैं उससे लग रहा कि वे मंदिर और धर्म की राजनीति से सीधी टक्कर लेने की तैयारी में हैं। लेकिन क्या बाकी पार्टियां इसी लाइन पर राजनीति करेंगी? यह लाख टके का सवाल है। भाजपा का चुनावी एजेंडा तय है। उसे हिंदुत्व के मुद्दे पर चुनाव लड़ना है। पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने त्रिपुरा में ऐलान किया कि एक जनवरी 2024 तक अयोध्या में भव्य राममंदिर बन कर तैयार हो जाएगा। इसके थोड़े दिन के बाद राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट की ओर से देश भर के पत्रकारों को अयोध्या बुला कर मंदिर निर्माण की प्रगति दिखाई गई। तभी यह तय है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा अयोध्या के राममंदिर को बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश करेगी। इसके साथ और भी मंदिर होंगे, जैसे काशी कॉरिडोर है, महाकाल लोक है, विंध्यवासिनी मंदिर का कॉरिडोर है आदि।

उम्मीद की जा रही है कि अगले लोकसभा चुनाव से पहले केंद्र सरकार संशोधित नागरिकता कानून यानी सीएए को लागू करने के नियम बना लेगी। इसे चुनाव से ऐन पहले लागू किया जा सकता है। यह कानून पड़ोसी देशों से प्रताड़ित होकर आने वाले हिंदुओं और अन्य गैर मुस्लिमों को भारत की नागरिकता देने का प्रावधान करता है। इस कानून के सहारे नरेंद्र मोदी की छवि एकमात्र हिंदू रक्षक की बनेगी। जम्मू कश्मीर में चुनाव कराने और मुस्लिम बहुल इस राज्य में हिंदू मुख्यमंत्री बनाने की योजना भी भाजपा के पास है। इसके अलावा हिजाब पर पाबंदी के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आएगा। तीन तलाक का मसला निपट चुका है और अब अदालत में बहुविवाह और हलाला के मसले पर सुनवाई होगी। लव जिहाद रोकने के नाम पर भाजपा शासित सभी राज्यों में इस साल धर्मांतरण रोकने का कानून लागू हो जाने की संभावना है। कई राज्यों ने कानून बना दिया है तो कई राज्यों ने इस पर विचार के लिए कमेटी बनाई है। समान नागरिक संहिता लागू करने के उपाय भी खोजे जा रहे हैं। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ये सभी हिंदुत्व से जुड़े मुद्दे हैं।

अब देखिए कि इनके बरक्स विपक्ष के पास क्या है? असलियत यह है कि विपक्ष के नेता भाजपा के एजेंडे को समझ रहे हैं लेकिन उसका मुकाबला करने के लिए अपना केंद्रीय एजेंडा तय नहीं कर पा रहे हैं। कई विपक्षी नेता तो इसी चक्कर में हैं कि भाजपा की तरह ही हिंदुत्व की राजनीति करके चुनाव लड़ा जाए। हालांकि उनको निराशा हाथ लगेगी क्योंकि असली के रहते कोई बहुरूपिए को तरजीह नहीं देगा। कांग्रेस को यह बात समझ में आ गई है तभी पार्टी सॉफ्ट हिंदुत्व का रास्त छोड़ कर लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और उदार राजनीति के रास्ते पर लौटी है, जो पुरानी कांग्रेस का रास्ता रहा है। राहुल गांधी ने जोखिम लेकर अपनी भारत जोड़ो यात्रा का स्वर और भंगिमा दोनों धर्मनिरपेक्ष रखा है। ध्यान रहे पिछले आठ साल में धर्मनिरपेक्षता को गाली की तरह बना दिया गया है। धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब टुकड़े टुकड़े गैंग से होना और देशविरोधी होना माना जाता है। ऐसे समय में राहुल ने धर्मनिरेपक्षता का रास्ता चुना है तो इसका मतलब है कि वे भाजपा के हिंदुत्व के मुकाबले कोई वैकल्पिक नैरेटिव पेश करने की तैयारी कर रहे हैं। हालांकि उनकी भी यात्रा समाप्त होने जा रही है और अभी तक वह नैरेटिव सामने नहीं आया है। इसका कारण यह है कि राहुल जो बातें कर रहे हैं वह बहुत तक अकादमिक और अमूर्त सी हैं। हो सकता है कि आगे वे कोई ठोस एजेंडा पेश करें।

कांग्रेस के बाद कांग्रेस की साझीदार या पहले साझीदार रही पार्टियों का एक ब्लॉक है। इसमें राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी मुख्य है। राजद 40 लोकसभा सीट वाले बिहार की सबसे बड़ी पार्टी है और सपा 80 लोकसभा सीट वाले उत्तर प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी है। ये दोनों पार्टियां हिंदुत्व की राजनीति से हेडऑन यानी सीधी टक्कर की तैयारी में हैं। राजद के नेता चंद्रशेखर और सपा के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य का रामचरित मानस को दलित और पिछड़ा ठहराने वाला बयान इसी राजनीति का हिस्सा है। वे हिंदुत्व के मुकाबले जाति का नैरेटिव बना रहे हैं और हिंदुत्व की राजनीति के प्रतीकों को दलित व पिछड़ा विरोधी ठहरा रहे हैं।

इस बात को बिहार के एक दूसरे राजद नेता और राज्य सरकार के मंत्री आलोक मेहता के नए बयान में देखा जा सकता है। उन्होंने भगवान राम और अयोध्या के मंदिर के बाद उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े हिंदू प्रतीक योगी आदित्यनाथ को निशाना बनाया है। वह निशाना उनके कामकाज को लेकर नहीं है, बल्कि उनके पहनावे और उनकी आस्था को लेकर बनाया गया। आलोक मेहता ने कहा- जो मंदिरों में घंटियां बजाते थे आज शक्तिशाली पदों पर आसीन हैं, उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को देख लीजिए। उन्होंने आगे कहा कि जो 10 फीसदी उच्च जाति अंग्रेजों का एजेंट हुआ करती थी आज 90 फीसदी वंचित और पिछड़े समुदाय पर अधिकार चला रही है। ये दोनों बातें हिंदुत्व की राजनीति का कंट्रास्ट हैं। सो, कम से कम इन दो राज्यों की राजनीति का एजेंडा तो तय होता दिख रहा है। हिंदुत्व बनाम हिंदुत्व का खुला विरोध, जिसमें एक तरफ धर्म के प्रतीक हैं तो दूसरी ओर जाति के पुरोधा। अगड़ा और पिछड़ा की राजनीति इस एजेंडे में अंतर्निहित है।

जहां तक विपक्ष की अन्य पार्टियों का मामला है तो वे अभी अपना स्टैंड तय नहीं कर पाई हैं। वे दुविधा में हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को लग रहा है कि वे नरम हिंदुत्व की राजनीति से ही अपनी सीटें बढ़ा पाएंगी। पिछली बार धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण से भाजपा को 18 लोकसभा सीटें मिल गई थीं। विधानसभा में भी यह ध्रुवीकरण कायम रहा। भाजपा भले सिर्फ 77 सीट जीत पाई लेकिन उसका वोट उतना ही मिला, जितना लोकसभा में मिला था। इसी से ममता की चिंता बढ़ी है। उनको लग रहा है कि 38 से 40 फीसदी वोट के दम पर भाजपा फिर 18 या उससे ज्यादा सीट जीत सकती है। तभी उन्होंने आरएसएस, भाजपा और मोदी के प्रति नजरिया बदल दिया है। अब वे काफी नरम हो गईं है, जिससे यह मैसेज है कि वे भाजपा के साथ मैनेज हो गई हैं। इससे उनको लग रहा है कि व्यापक हिंदू समाज उनके खिलाफ नहीं होगा और तब उनकी सीटें बढ़ जाएंगी।

विपक्ष का एक एजेंडा अस्मिता की राजनीति का है। ममता बनर्जी भी यह राजनीति कर सकती हैं और के चंद्रशेखर राव तो कर ही रहे हैं। चंद्रशेखर राव ने अपने राज्य में होने वाले चुनाव से पहले अपनी पार्टी का नाम तेलंगाना राष्ट्र समिति से बदल कर भारत राष्ट्र समिति कर दिया है। उसके बाद उन्होंने पिछले दिनों खम्मम में एक रैली की, जिसमें आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी, सीपीएम आदि के सारे बड़े नेता जुटे। इस तरह उन्होंने अपने राज्य के लोगों को मैसेज दिया है कि अगर इस बार वे जीत कर तीसरी बार मुख्यमंत्री बनते हैं तो अगले साल देश के प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं। इस नैरेटिव का फायदा उनको निश्चित रूप से विधानसभा चुनाव में मिलेगा और लोकसभा चुनाव में तो मिलेगा ही। ममता बनर्जी भी यह राजनीति कर सकती हैं, अगर वे यह नैरेटिव बनाएं कि वे पहली बंगाली हो सकती हैं, जो प्रधानमंत्री बने। बिहार में नीतीश कुमार भी यह राजनीति कर सकते हैं और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नवीन पटनायक भी ओड़िशा में ऐसा नैरेटिव बनवा सकते हैं। जिस राज्य में उप राष्ट्रीयता का भाव जितना प्रबल है वहां इस राजनीति के सफल होने की उतनी ज्यादा संभावना है।

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