राजनीति में पैसा सबसे अहम है लेकिन सवाल है कि क्या सिर्फ पैसे के दम पर भाजपा और नरेंद्र मोदी चुनाव जीत रहे हैं? ऐसा नहीं कहा जा सकता है। भाजपा ने चुनाव को पैसे का खेल बनाया है लेकिन साथ साथ यह भी बंदोबस्त किया है कि किसी न किसी तरीके से विपक्षी पार्टियों खास कर प्रादेशिक क्षत्रपों के पैसे का सोर्स बंद हो। याद करें नवंबर 2016 में जब प्रधानमंत्री ने चार घंटे की नोटिस पर पांच सौ और एक हजार रुपए के नोट बंद करने का ऐलान किया था तो उसका क्या राजनीतिक नैरेटिव बना था! सोशल मीडिया में भाजपा समर्थकों का प्रचार था कि नोटबंदी इसलिए मास्टर स्ट्रोक है क्योंकि उत्तर प्रदेश में दोनों प्रादेशिक क्षत्रपों की काला धन खत्म हो जाएगा। गौरतलब है कि नवंबर में नोटबंदी हुई थी और फरवरी-मार्च में उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले थे।
सो, ऐन चुनाव से पहले नकदी का ऐसा संकट खड़ा हुआ कि सभी पार्टियों के हाथ बंध गए। उस समय प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी बसपा को अपने सैकड़ों करोड़ रुपए घोषित करके बैंक में जमा कराना पड़ा। वह नरेंद्र मोदी की सत्ता का दूसरा साल था। तब उन्होंने नोटबंदी को हथियार बनाया। उसके बाद शुरू हुआ सीबीआई, आयकर और ईडी का तांडव। उनके शासन के अगले छह साल में देश की शायद कोई पार्टी नहीं बची, जिसके प्रमुख नेताओं पर केंद्रीय एजेंसियों का शिकंजा नहीं कस गया। ऐसा लग रहा है, जैसे प्रधानमंत्री मोदी को पहले से सब पता था और उन्होंने सभी पार्टियों की पोल खोल दी। सारे नेता रिश्वत लेने और बेहिसाब संपत्ति जमा करने के मामले में फंसे। इससे दो फायदे हुए। पहला तो यह कि उन विरोधी पार्टियों का पैसा एजेंसियों ने जब्त किया और पैसे का सोर्स बंद हुआ और दूसरा यह कि विरोधी नेताओं की साख खराब हुई।
हैरानी की बात है कि किसी ने नरेंद्र मोदी से यह नहीं सीखा कि चाहे जो करो परंतु प्रचार करो की मैं तो फकीर हूं, मुझे पैसे की क्या जरूरत है। प्रधानमंत्री मोदी के बारे आम लोगों के बीच यह धारणा बनी है कि वे अपना हर काम अपने वेतन के पैसे से करते हैं। वे किसी का एक रुपया नहीं लेते। अपने लिए कोई संपत्ति नहीं बनाई। अपने भाई-भतीजों को आगे बढ़ाना तो छोड़िए अपनी बूढ़ी मां तक को अपने साथ नहीं रखते। इसके बरक्स विपक्षी पार्टियों के बारे में धारणा बनी कि वे वंशवादी हैं, भाई-भतीजों को आगे बढ़ाते हैं, सरकारी संपत्ति को अपनी संपत्ति मानते हैं, अपने लिए पैसे इकट्ठा करते हैं, घर बनवाते हैं और जमीनें लेते हैं। लालू प्रसाद के परिवार से लेकर बसपा सुप्रीमो मायावती और मुलायम परिवार से लेकर ममता बनर्जी के परिवार तक लगभग सारे क्षत्रप इस किस्म के आरोपों में घिरे हैं। महाराष्ट्र में पवार परिवार हो या तेलंगाना में केसीआर, आंध्र प्रदेश में जगन मोहन और तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार के ऊपर भी इस किस्म के आरोप लगे हैं और केंद्रीय एजेंसियों की जांच की तलवार लटक रही है।
नरेंद्र मोदी ने यह धारणा बनवाई है कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं पहले देश के लिए और फिर पार्टी के लिए कर रहे हैं। अपने लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। सोचें, प्रधानमंत्री को अपने लिए कुछ करने की क्या जरूरत है? उन्हें पद की वजह से दुनिया की सारी सुख-सुविधाएं ऐसे ही मिली हुईं, जिनका वे भरपूर लाभ उठाते हैं, फिर अपने लिए पैसा इकट्ठा करने की क्या जरूरत है? उन्हें सिर्फ यह बंदोबस्त करना है कि चुनाव में चाहे जितना खर्च हो पर पार्टी जीते ताकि वे पद पर रहें। सो, अगर प्रादेशिक क्षत्रप निजी संपत्ति बनाने और बेहिसाब धन इकट्ठा करने की बजाय पार्टी को मजबूत करते और पार्टी के लिए संसाधन जुटाते तो उनकी छवि भी बची रहती और पद भी बचा रहता।
इस लिहाज से आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल, तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी और जदयू के नेता नीतीश कुमार अपेक्षाकृत साफ-सुथरे दिख रहे थे। परंतु ममता बनर्जी की पार्टी के नेता और मंत्री रहे पार्थ चटर्जी का पकड़ा जाना और उनकी करीबी के यहां से 50 करोड़ रुपए से ज्यादा की नकदी की बरामदगी ने उनकी साख को निर्णायक रूप से कमजोर किया है। सत्येंद्र जैन की गिरफ्तारी और मनीष सिसोदिया पर सीबीआई जांच की तलवार के बावजूद केजरीवाल को लेकर यह धारणा है कि वे ईमानदार हैं और अपने लिए कुछ इकट्ठा नहीं कर रहे हैं। वे और उनकी पत्नी दोनों आईआरएस अधिकारी थे और उनके दोनों बच्चे आईआईटी में पढ़ाई कर रहे हैं। इसी तरह नीतीश कुमार के बारे में भी धारणा है कि वे अपने लिए कुछ भी इकट्ठा नहीं कर रहे हैं। ऐसे नेता ही प्रधानमंत्री के लिए चुनौती के तौर पर देखे जा रहे हैं। इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि इनकी साख खराब करने वाली क्या चीज सामने आती है।
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