बेबाक विचार

पहले पशु, तब मनुष्य!

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पहले पशु, तब मनुष्य!
स्तनपायी प्राणियों के होमो, होमिनिड, वनमानुष, चिम्पांजी, प्राइमेट्स वंशजों की खोपड़ी और दिमाग में पशु जीन की प्रवृतियां होती है। इनके अलग-अलग इवोल्यूशन से मनुष्य आदिम, आदिवासी, अर्द्ध, व पूर्ण विकास की विविधताओँ की स्मृतियां समेटे हुए है। वनमानुष वंशजों की खोपड़ी की नंबर एक खूबी दिमाग में स्मृति का संचयन है। इसी से मनुष्य अस्तित्व, पहचान, प्रकृति, भिन्नताओं का प्रकटीकरण है। ... मेमोरी, अतीत और इतिहास बोध ही मनुष्य की पशुओं से भिन्नता है। उसका मनुष्य होना मेमोरी से है। प्रलय का मुहाना- 14: कल्पना करें अंतरिक्ष में कही कोई जीव टेलिस्कोप से पृथ्वी को देंखे तो धरातल पर पशुओं और आठ अरब लोगों की भिन्नता क्या बायोमास में दिखेगी? नहीं। जैविक जीव जगत एक कैनवस है। इसमें मनुष्य भी बाकि जीव-जंतुओं का हिस्सा है। पृथ्वी का जीव जगत बायोमास मुश्किल से ढाई प्रतिशत है। इनमें मनुष्य बायोमास सिर्फ 0.01 प्रतिशत। सोचे, पृथ्वी के जैविक वजूद में आठ अरब मनुष्यों का हिस्सा महज 0.01 प्रतिशत। तो पहली बात, ब्रहाण्ड में पृथ्वी एक किंगडम एनिमिया है। इसमें मानव भले अपने को श्रेष्ठ, पृथक-विशिष्ट प्राणी समझे मगर असलियत में वह 87 लाख किस्म के जीव-जंतुओं के बायोमास में एक जीव है। उसकी वनमानुष प्रजातियां बाकि पशुओं से कुछ स्मार्ट है लेकिन उससे उलटे वह आत्मसंहारक, पृथ्वी संहारक बनी है। मनुष्य का दिमाग पशुगत प्रवृतियों, पशुगत जिनोमी लिए हुए है। बावजूद इसके वह अपने को बुद्धीमान समझता है। असलियत में वह पशु-मनुष्य की स्प्लिट पर्सनल्टी है। इसमें पहले पशुगत जैविक रचना है। फिर  बेसुध बनाम सुध, जंगली बनाम सभ्य, भयाकुल बनाम निडर का विभाजित व्यक्तित्व, नरसिंह अवतार हैं। वह विकास है तो विनाश भी है। बहुसंख्यक मनुष्यों की रियलिटी कैटल क्लास, वनमानुष की जिंदगी है। मगर वह ज्ञानी मानुष, होमो सेपियन होने के इलहाम में जीता है। मेमोरी और अल्जाइमर जीव जगत दो हिस्सों में विभाजित (इनवर्टिब्रेट बनाम वर्टिब्रेट, अस्थिमान-बिनाअस्थिमान) है। इसके इनवर्टिब्रेट ग्रुप के मैमल याकि स्तनपायी प्राणियों में होमो, होमिनिड, वनमानुष, चिम्पांजी, प्राइमेट्स वंशज खोपड़ी और दिमाग में पशु जीन की प्रवृतियां लिए हुए है। इसी से मनुष्य दिमाग अलग ध़ड़कता है। प्रवृतियों के अलग-अलग इवोल्यूशन से मनुष्य आदिम, आदिवासी, अर्द्ध, व पूर्ण विकास की विविधताओँ की स्मृतियां समेटे हुए है। वनमानुष वंशजों की खोपड़ी की नंबर एक खूबी दिमाग में स्मृति का संचयन है। इसी से मनुष्य अस्तित्व, पहचान, प्रकृति, भिन्नताओं का प्रकटीकरण है। स्मृति याकि मेमोरी। यही वजह है जिससे 87 लाख किस्म के जीव-जंतुओं के बीच मनुष्य मष्तिष्क अलग तरह से काम करता है। मनुष्य, मनुष्य होता है। कभी गौर करें अल्जाइमर से ग्रस्त, स्मृति विहीन रोगी व्यक्ति पर। वह बिना मेमोरी के बिना सुध के होता है। उसका जैविक शरीर न मानुष है और न वनमानुष। शरीर मानो खाली खोका। वह अनुभव, समझ, चेतना में पूरी तरह शून्य, खाली। उसका नश्वर शरीर अचेतन पशु की तरह। एक स्वस्थ, प्रज्ञावान मनुष्य को बुढ़ापे में जब अल्जाइमर का रोग होता है तो दिमाग की मेमोरी धीरे-धीरे विलुप्त होते हुए अंत में पूरी तरह दिमाग में ऐसे खत्म होती है मानों इंद्रियों की चेतना खत्म। अल्जाइमर का रोगी खाने-पीने- चलने-बूझने, पहचानने आदि सभी में असमर्थ होता है। यह सत्य सबूत है कि मेमोरी, अतीत और इतिहास बोध ही मनुष्य की पशुओं से भिन्नता है। उसका मनुष्य होना मेमोरी से है। मेमोरी के कम-ज्यादा, सही-गलत व परतंत्र-स्वतंत्र व्यवहार के फर्क से ही अर्द्ध मानुष, पूर्ण ज्ञानी मानुष की अवस्था और व्यवहार है। मनुष्यों में कैटल, बिजनेश, पायलट और आईंस्टाईन क्लास का भिन्न-भिन्न जीवन है। जेनेटिक सीपीयू सारा खेल स्मृति का है। उसके संचयन का है! मेमोरी की ड्राइव, संचयक मनुष्य खोपड़ी है। खोपड़ी के दिमाग में उसकी प्रोसेसिग अवस्थित तंत्रिकाओं, रसायनों से होती है। तब वह गतिमान होती है। सत्य और झूठ में, गंवारपने या समझदारी में जिंदगी का व्यवहार बनता है। मेमोरी के रखरखाव, संचालन की प्रक्रिया का सीपीयू जैविक डीएनए याकि जीन के तानेबाने में गुथा होता है। मोटामोटी  तमाम स्तनपायी प्राणियों, मैमल की एक नेसर्गिक, बेसिक जैविक रचना है। इसकी भिन्नताएं अवस्थाओं, परिवेश, इवोल्यूशन से बनी होती है। उन भिन्नताओं को चाहे तो होमिनिड, चिम्पांजी, प्राइमेट्स, वनमानुष, मानुष, होमो, होमो सेपियन, होमो डेयस की नामावली में टैग कर सकते है। स्मार्टनेस की पहचान बना सकते है। होमिनिड के तमाम वंशजों की खोपड़ी, दिमाग के जेनेटिक सीपीयू की बुनावट के कारण स्मार्टनेस जहां कम-ज्यादा वही परिणाम और रंग-रूप भी अलग-अलग। इस बात को जीव विज्ञान के इस सत्य में समझे कि फ़ेलिडाए कुल की संताने है शेर, बाघ, चीते, तेंदुएं और बिल्ली। परिस्थितियों, परिवेश के क्रमिक विकास से कुल की संताने अलग-अलग तरह की प्रवृतियों, गुणों, परिवर्तित जीन के साथ है। विज्ञान इसे जान कर अलग-अलग डीएनए के मिक्स से नई बिल्लियां बना चुका है। सो फ़ेलिडाए कुल के शेर, बाघ, चीते, तेंदुएं और बिल्ली जैसे पशु अलग-अलग स्मार्टनेस लिए हुए है तो ऐसे ही वनमानुष कुल की होमो प्रजाति के मनुष्य वंश की स्मार्टनेश, मानसिक विकास में भिन्नता, बायोडायवरसिटी क्यों नहीं होगी? लेकिन विकासवाद के सिद्धांत ने रंग-रूप, कद-काठी, शारीरिक बुनावट में मनुष्य को कॉकेसॉयड, मंगोलॉयड और नीग्रॉयड और फिर इनके भी उपभागों में मनुष्य को बांट विवेचना की है लेकिन मनुष्य प्रजातियों की मेमोरी, प्रवृतियों और मानसिक अवस्था की भिन्नताओं को समझने, उनके वर्गीकरण में में मानवशास्त्र कोताही बरते हुए है। पांच स्वभावों की मेमोरी वनमानुष,  मानुष, होमिनिड,  होमो सेपियन ने आपादाओं-विपदाओं में जीवन जीते हुए जिज्ञासा, भय, असुरक्षा, भूख व स्वतंत्र-घुमंतू जीवन की वंशानुगत स्मृतियां दिमाग में गहरे पैठा रखी है। ये वंशानुगत ट्रांसफर होती है। इसलिए कुल की प्रजातियों ने बाकि पशुओं के मुकाबले स्मृतियों का विशाल संचयन किया हुआ है और इससे वह सचेतन है। अपना मानना है कि प्राइमेट्स अवस्था में वनमानुषों में जिज्ञासा, भय, असुरक्षा, भूख व स्वतंत्र-घुमंतू जीवन के पांच अनुभव गहरे, स्थाई  तौर पर अंकित हुए। इन्ही पांच अनुभवों के धक्को, उत्प्रेरणाओं, स्मृतियों से मनुष्य प्रजाति का स्वभाव बना। मानसिक विकास हुआ। इन्ही से मनुष्य का विकासवाद और विनासवाद है। इन्ही से गुण-अवगुण व जैविक रचना की मानव बायो भिन्नताएं है। जैविक विकास के अलग-अलग चरण है। संभव है प्राइमेट्स अवस्था में होमो, होमिनिड,  होमो सेपियन ने बाकि जानवरों खासकर भेड-बकरी, विविध पक्षियों, सांप, खरगोश, कछुए, शेर, भेडियों आदि के अनुभवों को भी स्मृतियों में समेटा हो। परिवेश से उन जैसा व्यवहार सलेक्ट किया हो। जिनके जेनेटिक परिशोधन ने बुद्धी में चक्रवर्तीय रफ्तार से आयाम बनाए हो। ये कल्पनाएं नहीं है। बल्कि मानव खोपड़ी की संज्ञानात्मकता, कॉग्निटिवी की प्रक्रिया, जिनेटिक बुनावट के विज्ञान, मनोदशा के मनोवेज्ञानिक रिसर्च के विषय है। मनुष्य की खोपड़ी में स्मृतियों से जो सचंयन हुआ है, उनके प्रभाव और विकास में ही मानव की माया है। आदिमानव का जैविक जीवन मानसिक अनुभवों, परिवेश विविधताओं में अलग-अलग तरह से पकते हुए आगे बढ़ा है। जिज्ञासा, भय, असुरक्षा, भूख से परिवार, समाज, जीवन, लड़ाई आदि के व्यवहार के असंख्य बीज फूटे। जीवन चक्र बने। उनका जन्म-जन्मातंर वंशानुगत संचयन होता गया। स्वभाव-आदत-व्यवहार बना। उनसे भी परिवेश बना तो परिवेश ने उन्हे और विस्तार दिया। अनुभव बढ़ते गए, विकट और विकसित होते गए। उसी अनुसार मनोवैज्ञानिक स्वभाव में जटिलताएं बनी। लोगों-आबादियों के मानसिक विकास में फर्क बने। चिंपाजी जहां पैदल उछलता-कूदता, सरल व्यवहार की बुद्धी में ढला रहा वहीं मानव अंतरिक्ष यान में उड़ता हुआ है। यहां नोट रखने वाला सत्य है चिंपाजियों के बीच भी मनुष्यों की तरह पिंजरे-पालतू बनाम स्वतंत्र-स्वछंद परिवेश से मानसिक दशा, प्रवृतियों का फर्क, बुद्धी के विकास का फर्क कॉग्निटीवी शोध से प्रमाणित है। बहरहाल स्मृतियों के बल और उनके संचयन से मनुष्य खास पशु है। यदि स्मृति गायब तो मनुष्य जैविक रूप से नश्वर और असहाय भेड-बकरी वाली अवस्था में वक्त काटता हुआ। मनुष्य की खोपडी का ऊपरी जैविक हिस्सा कट जाए, या किसी इंजेक्शन से उसे बेजान बना दिया जाए तो मनुष्य स्तनपायी प्राणियों में सर्वाधिक गया गुजरा पशु होगा। त्रासद रियलिटी है कि मनुष्य ने अपने ही द्वारा ऐसी स्थितियां, ऐसा परिवेश मुमकिन बनाया है जिससे वह ब्रेनवास अवस्था में पशु बना जीवन जीता है। मोटा मोटी, कुल और वंश की विरासत में, संज्ञात्मक बुनावट, प्रवृतियों में होमो सेपियन की स्प्लिट पर्सनल्टी पहले पशु जीन और प्रवृतियां लिए हुए है फिर ऊपरी मानव चेहरा और दिमागी संज्ञात्मक सरचना। पशुगत जैविक रचना और दिमागी चेतना के नरसिंह अवतार से ही फिर कहानियां है। संदेह नहीं कि इन कहानियों की चमत्कारिकता, भौतिक स्मृतियों, अनुभवों, उपलब्धियों की अमीरी का मामला लाजवाब व अतुलनीय है। तभी विज्ञान और सत्य के बावजूद मनुष्य दिमाग नहीं स्वीकारता है कि वह पशु है! वह सभी पशु प्रवृतियों का संग्रहक और उनके समुच्चय का एक सुपर पशु है! पशु विरासत को नकारना मनुष्य स्मृति के कारण अपने को महान, पशुओं से पृथक और भिन्न मानता है। वह क्योंकि पशु जगत में सर्वाधिक बलशाही है और बाकि पशुओं को मारता-काटता है तो समझता है वह उनसे अलग। उसके कारण सृष्टि है। और यह सृष्टि, यह पृथ्वी भगवानजी की रचना, उनके ऐल्‌गरिद़म्‌, कंप्यूटिंग पॉवर से संचालित है। जाहिर है मनुष्य जैसा सोचता है, जिस इलहाम में रहता है वही मानता है। वह बाकि पशुओं को लेकर सोचता है कि उनका शरीर मांस का लोथड़ा। उनका जन्मना-मरना बेमतलब जबकि हमारा जन्म-मरण खास है। जबकि विज्ञान की  आनुवंशिक अंतर्दृष्टि के अनुसार मनुष्य एक जानवर है। उसमें ऐसा एक्स्ट्रा बायोलॉजिकल कुछ नहीं हैं जिससे वह अपने को सृष्टि की विशेष रचना कहे और पशुओं को बलि का बकरा! पहेली है कि मनुष्य को जेनेटिकली समद्ध जानवर समझे या मेमोरी, जीन से स्वचालित यांत्रिक मशीन? पहेली है कि मनुष्य शरीर की जैविक रचना की बुनावट में बायो डायवरसिटी कैसे और क्या है?  ऐसा होना मनुष्य वंश के होमिनिड, प्राइमेट्स, वनमानुष, होमो सेपियन की विविधताओं में आंशिक, अर्द्ध, पूर्ण मनुष्य बने होने के फर्क से है या दो लाख साल के सफर में हुए क्रमिक विकास से है? मनुष्य बनाम मनुष्य में भेद का मामला गंभीर है। ह्यूमन बायो डायवरसिटी का जेनेटिक सच पृथ्वी के एनिमल फार्म के भीतर वह विशाल ह्यूमन बाड़ा बनाए हुए है जिसके भीतर किस्म-किस्म की कहानियों, चारिदवारियों में रहती मनुष्य प्रजातियां है। जिनका स्वभाव तेरे-मेरे, जात-पात, पहचान की विविधताओं के संर्घष, लड़ाईयां, असमानता, शोषण की लगातार लड़ाईयों का है। तभी यक्ष प्रश्न की ऐसा क्यों और कब तक?  मनुष्य की चेतनता में कब तक तेरे-मेरे की भूख और अंधापन चलेगा? और क्या यही तो वह कारण नहीं है जिससे विकास और विनाश दोनों है। कुछ मनुष्य प्रजातियां सुपर वैभव में जी रही है तो उनका वह जीना भी भस्समासुरी है। आठ अरब लोगों की आम भूख जहां पृथ्वी के लिए दीमक है वही विलासी भूख पृथ्वी का दुष्ट दुश्मन! इसलिए क्या लगता नहीं है कि मनुष्य कैसा भी हो, उसके किंगडम एनिमिया का व्यवहार खुद के लिए आदमखोर और पृथ्वी के लिए भस्मासुरी है! (जारी)
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