बेबाक विचार

मनुष्य हाल-फिलहाल समर्थ नहीं!

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मनुष्य हाल-फिलहाल समर्थ नहीं!
पृथ्वी को बचाने का मानव संसाधन कहां है? वह कितना समर्थ और समझदार है? क्या संभव है जो चंद ज्ञानी-विज्ञानी-सत्यवादी देवर्षियों के सामर्थ्य से पृथ्वी बच जाए? वे जलवायु जैसे खतरों का वैज्ञानिक-मैकेनिकल उपायों से समाधान निकाल लें? मानव वंशज के संरक्षण की दूसरे ग्रह में बस्ती बना ले? मान लें आईसीयू के उपायों से पृथ्वी सौ-दो साल जिंदा रहे, अमेरिका जैसे विकसित देशों के अग्रणी पचास हजार लोग मरते-खपते मंगल ग्रह पर बस्ती बसा लें तो मनुष्य भीड़ (तब तक 11-12 अरब लोग) का क्या बनेगा? हमारी-आपकी, मौजूदा आठ अरब लोगों की दो-तीन पीढ़ी बाद की संतानों को तो अग्नि, जल, वायु के प्रलय में वैसे ही मरना है, जैसे तब पृथ्वी मरते हुए होगी!   प्रलय का मुहाना-19: मनुष्य प्रकृति की लंबी-चौड़ी विवेचना से लगेगा कि इंसान समझ से परे है। हालांकि विज्ञान के आईने में सब कुछ साफ और पारदर्शी है। यह खामोख्याली फालतू है कि मनुष्य खास प्रकृति का। वह भी पशुओं जैसी बॉयोलॉजिक रचना है। जिस खोपड़ी-दिमाग के कारण मनुष्य को किंगडम एनिमेलिया अलग जीव बनने का मौका था वह पशुगत विरासत में जाया हुआ। चिम्पांजी की तरह मनुष्य टोलों (धर्म, नस्ल, देश) में रहता है। यदि पशुओं के व्यवहार अनुसार व्यक्ति के स्वभाव की तुलना करेंगे तो समझ आएगा कि मनुष्य न केवल किंगडम एनिमेलिया का विस्तार है, बल्कि पशुओं के स्वभावों का वर्णसंकर मिक्स है। स्वभाव की भिन्नताओं में उसका अलग-अलग व्यवहार होता है। ह्यूमन एनिमेलिया में अधिकतम लोग भेड़-बकरी स्वभाव की प्रजाति हैं। फिर स्वामित्ववादी जंगली राजा, गड़ेरिए लोग हैं। शोषक, मोटे सुअर माफिक धनपशु हैं। इनसे अलग बिरले स्वभाव के ज्ञानी-मानव वे हैं जो हंस की तरह दूध-पानी को अलग-अलग करके पीने में समर्थ हैं। ये सत्य के मोती चुगते देवर्षि हैं। यांत्रिकता से मुश्किल वैज्ञानिकों को आगे शोध करना चाहिए कि पृथ्वी की प्रकृति, कॉस्मिक ऊर्जाओं के असर की तो यह माया नहीं जो सभी जीव-जंतु (मनुष्य सहित) गुण-अवगुण, स्वभाव-व्यवहार की भिन्नताओं के अलग-अलग दिमाग लिए हुए हैं। कहीं कॉस्मिक ऊर्जाओं-प्रकृति के नियमों की वजह से तो दिमागों की भिन्नता और उनकी यांत्रिकता व नियति की जिंदगी नहीं है? बुनियादी बात पृथ्वी को बचाने का मानव संसाधन कहां है? वह कितना समर्थ और समझदार है? क्या संभव है जो चंद ज्ञानी-विज्ञानी-सत्यवादी देवर्षियों के सामर्थ्य से पृथ्वी बच जाए? वे जलवायु जैसे खतरों का वैज्ञानिक-मैकेनिकल उपायों से समाधान निकाल लें? मानव वंशज के सरंक्षण की दूसरे ग्रह में बस्ती बना ले? मान लें आईसीयू के उपायों से पृथ्वी सौ-दो साल जिंदा रहे, अमेरिका जैसे विकसित देशों के अग्रणी पचास हजार लोग मरते-खपते मंगल ग्रह पर बस्ती बसा लें तो मनुष्य भीड़ (तब तक 11-12 अरब लोग) का क्या बनेगा? हमारी-आपकी, मौजूदा आठ अरब लोगों की दो-तीन पीढ़ी बाद की संतानों को तो अग्नि, जल, वायु के प्रलय में वैसे ही मरना है, जैसे तब पृथ्वी मरते हुए होगी! संभव है ऐसी बातें आपको फालतू, झूठ-मूठ में डराने की निराशावादी, कपोल कल्पित लगती हो। यही मनुष्य खोपड़ी की अज्ञानता, सामूहिक नामसझी का प्रमाण है। इससे जाहिर है कि पृथ्वी के आठ अरब लोगों का दिमाग बिना भविष्य चेतना के है। जैसे शेर, जंगली जानवरों को पता नहीं होता कि उनकी प्रजाति विलुप्त होती हुई है वैसे आठ अरब मनुष्यों की भीड़, उनके बाड़ों, सभ्यताओं के सामूहिक दिमाग में चिंता नहीं बनती है कि उनकी अगली पीढ़ियां बचेंगी या नहीं? दिमाग क्योंकि पशु डीएनए का है तो ज्ञानी-विज्ञानी भले सौ-दो सौ वर्षों में पृथ्वी के खत्म होने की चेतावनी दें लेकिन आम मनुष्य की खोपड़ी में एलर्ट नहीं बनेगा। भविष्य दृष्टि बिना मनुष्य सचमुच आठ अरब लोगों की आबादी में चंद, एक प्रतिशत लोग भी नहीं होंगे जो मनुष्य होने की खूबी याकि ज्ञान-विज्ञान और सत्य की भविष्य दृष्टि की विशिष्टता लिए हुए हों। लोगों का वंशानुगत दिमाग पशुकाल के डीएनए डिलीट नहीं कर पाया हैं। उनकी सुध होते ही वह अचेतन है। तभी परिणाम में अमानवीय, पशुगत, नारकीय जीवन है। इस तरह का दिमाग भविष्य, आगे की पीढ़ियों को बचाने में समर्थ नहीं हो सकता। भविष्य का हर सिनेरियो, ज्ञान-विज्ञान का हर सत्य पृथ्वी को खतरे में बतला रहा है। विज्ञान से ज्ञात है कि पृथ्वी का नश्वर अस्तित्व (सौर्य मंडल सहित), अंनत ब्रह्माण्ड की विशाल चुंबकीय सुरंग में है और क्षणिक भी असंतुलन हुआ तो प्रलय। तात्कालिक संकट पृथ्वी की सेहत का है। सेहत के बिगड़ने, जर्जर होने पर बेइंतहां रिसर्च है। किन-किन कारणों, गैसों से, मनुष्य व्यवहार की प्रवृत्तियों से पृथ्वी विनाश की ओर है, यह सब समझ आ रहा है। मगर मनुष्यों की भीड़ जलवायु अनुभव के बावजूद इस रियलिटी की गंभीरता को समझने को तैयार नहीं है। क्यों? वजह मानव भीड़ का यांत्रिक जीवन है। बुद्धिहीनता, भूख, आपसी लड़ाइयों के मानसिक विकार है। तात्कालिकता में लोगों का जीना है। दरअसल मनुष्य की चेतना और बुद्धि के संकल्प अल्पकालिक व छोटे दायरों के होते हैं। लोग रोजमर्रा की हेडलाइन में जीवन जीते हैं। आठ अरब लोगों की आबादी में यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि कितने प्रतिशत लोग रोजाना की मजदूरी और राशन-पानी की चिंता में रहते हैं। अरबपति हों या राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री, वे भी अपनी भूख और लिप्सा में हर दिन, दिन प्रतिदिन शेयर मार्केट के उतार-चढ़ाव या उस दिन की सुर्खियों, ट्विटर के क्षण-प्रतिक्षण के ट्रेंड में खोए रहते हैं। 99.9 प्रतिशत लोगों की खोपड़ी तत्क्षण की चिंताओं, ख्यालों, एजेंडे की बंधक होती है। अभी जो होता हुआ है उसी में दिमाग सिमटा हुआ। भला यह लक्जरी कितने मनुष्यों को संभव है कि वह दिमाग-बुद्धि के पंख ले कर हंस की तरह अनंत आकाशा में उड़ता रहे। ऊपर से जमीन-जीवन की दशा-दिशा को देखते हुए भविष्य के मोती चुगे। मानवता के लिए सत्य खोजते हुए हो। इससे भी बड़ी मुश्किल आठ अरब लोगों का कहानियों में बंधा हुआ होना है। मोटा-मोटी सन् 2020 के आंकड़ों पर अनुमान है कि पृथ्वी के 85 प्रतिशत लोगों ने धर्म और उनकी मान्यताओं के सुपुर्द अपनी जिंदगी की हुई है। सो, आठ अरब की आबादी में पौने सात अरब लोग सृष्टि को ईश्वर की माया मानते हैं। वे अपनी और पृथ्वी की चिंता में ईश्वर की पूजा करते रहेंगे लेकिन अपनी ओर से नरसंहारक परमाणु हथियार, लड़ाइयों और पृथ्वी के दोहन को नहीं छोड़ेंगे। जो पंद्रह प्रतिशत नास्तिक हैं उनमें जीवन क्योंकि अधिक भौतिकवादी है तो उनमें भी कितने प्रतिशत समझदार पृथ्वी रक्षक होंगे! मनुष्य, पृथ्वी दोनों लावारिस! तभी जैसे मानव समाज लावारिस है वैसे पृथ्वी भी लावारिस है। सोचें, 1.91 अरब मुसलमान पृथ्वी को अपने रंग में रंगने के मिशन पर फोकस ख्याल रखेंगे या पृथ्वी की सेहत पर? वैज्ञानिकों ने भविष्य के खाद्यान्न संकट और पर्यावरण नुकसान में पशुपालन और मांसाहार को जिम्मेवार घोषित किया है लेकिन अब्राहम की संतानें याकि पौने छह अरब ईसाई, मुस्लिम और यहूदी क्या मांसाहार का व्यवहार छोड़ सकते हैं? यही सवाल 1.16 अरब हिंदुओं के मासांहारी लोगों के व्यवहार को लेकर भी है। सचमुच मनुष्य प्रजाति की प्रकृति है जो पृथ्वी के उपयोग का उसका व्यवहार भस्मासुरी है। तब कोर्स करेक्शन कैसे हो? और वह करेगा कौन? क्या संयुक्त राष्ट्र की घोषणाओं, पेरिस समझौते के रोडमैप से संभव है? कतई नहीं। मनुष्य दिमाग में इतनी तरह की जहरीली गैसें भरी हुई हैं कि हर इंसान, हर देश एक-दूसरे पर गर्मी निकालता है। अपने दबदबे, स्वामित्व की खुराफात में बेइंतहां नासमझ है। ध्यान होगा 35 साल पहले मालदीव के राष्ट्रपति ने संयुक्त राष्ट्र में समुद्र के बढ़ते जलस्तर की रियलिटी के हवाले चेताया था कि उनका देश डूबता, हुआ है। साढ़े तीन दशक पुरानी चेतावनी। उसके बाद सयुंक्त राष्ट्र की एजेंसी ने भी जल स्तर के उठने से 52 देशों पर खतरे की चेतावनी दी है। 43 द्विपीय देशों के डूबने और समुद्री सीमा के देशों के तटीय इलाकों में रहने वाले बीस करोड़ लोगों की जिंदगी और जिविकोपार्जन खतरे में है। लेकिन क्या लगता है कि वैश्विक मानव सभ्यता कोई चिंता करते हुए है? नहीं। क्यों? इसलिए कि डूबने वाले अंधकार-अंधविश्वासों में जीते हुए हैं। वही बचाने वालों की समझदारी मनुष्य प्रकृति के व्यवहारों की गुलाम है। कीड़े-मकोड़ों की तरह यदि द्विपीय देश, उनकी आबादी डूब भी जाए तो आठ अरब लोगों की भीड़ को क्या फर्क पड़ेगा? भारत में सर्वाधिक प्रदूषित हवा है। लोग जल्दी मरते हैं और वैज्ञानिक रिसर्च के मुताबिक प्रदूषण से होने वाली मौतों में भारत नंबर एक पर है तो इस सत्य, खबर का एक ट्विट से अधिक क्या मतलब है? भारत, चीन, रूस, ब्राजील से लेकर दो अरब होती मुस्लिम आबादी वाले देशों और तमाम अधिनायकवादी देशों में लोगों ने जब अपने आपको प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों और ईश्वर के आगे समर्पित किया हुआ है तो बुद्धि-दिमाग में जागरूकता और व्यवहार बदलने की जरूरत कैसे बनेगी? इसलिए धर्मावलंबियों की आबादी ईश्वर के सुपुर्द है। तानाशाही में रहने वाली प्रजा पिंजरों में बंद, नेताओं की गुलाम है। तभी हाल-फिलहाल के मानव संसाधन की दशा में इस सत्य को नोट करें कि पृथ्वी पर सिर्फ साढ़े चार प्रतिशत लोग बुद्धि-विचार-सत्य के पोषक परिवेश के ‘पूर्ण लोकतंत्र’ में जिंदगी जी रहे हैं। बाकी सब मनुष्य लोकतंत्र के अर्द्ध सत्य, आडंबर और झूठ में भेड़-बकरी का जीवन जीते हुए हैं। सोचें, पृथ्वी की 95 प्रतिशत आबादी यदि पिंजरों में जी रही है तो उनकी प्रवृत्तियों का बदलना, उनका पृथ्वी को बचा सकना भला कैसे संभव है! तभी इतिहास को भी टटोलना होगा कि वह कैसे खलनायक है?  (जारी)
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