बेबाक विचार

सभ्यता, ओझाई अतिशयता!

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सभ्यता, ओझाई अतिशयता!
धारणा सही नहीं है कि बस्ती बसना और खेती साथ-साथ घटित घटनाएं हैं। यह भी फालतू बात है कि इन दोनों से फिर सभ्यता निर्माण आरंभ हुआ। पुरातात्विक प्रमाणों से जाहिर है कि लोगों का सेटल होना, बस्ती बसा कर सामुदायिक जीवन का आरंभ पहले से था। कृषि से पहले कम से कम तीन हजार वर्षों तक मनुष्य कई जगह स्थायी बस्तियों में रहते हुए थे। उस बस्ती जीवन में शिकार-पशुपालन के कबीलाई जीवन में ओझे-पुजारी ही सभी की जिंदगी को गाइड करते थे। प्रलय का मुहाना-29: सभ्यता मनुष्य की खानाबदोश जिंदगी से निकला जादू-टोना है। पशुगत आदिम प्रवृत्तियों की संस्थागत सरंचना है। आदिम प्रवृत्तियों का विस्तार है। जादू-टोनों का समयानुकूल क्रमिक विकास है। आधुनिक आकार-प्रकार और सांचों को बनाते जाने के बीज मंत्र है। सभ्यताएं ओझाओं-सरदारों के अलग-अलग नामों-रूपों-व्यवहारों का इतिहास है। सभ्यता निर्माण कोई पांच हजार साल पुरानी बात है लेकिन इसके बीज 10-15 हजार साल पहले नियोलिथिक काल में बने थे। वक्त के अनुभवों, जादू-टोनों, अनुष्ठानों, मान्यताओं से खानाबदोश जिंदगी में बुद्धि का जो विकास हुआ उससे पवित्र स्थान, मंदिर, बस्तियों का आइडिया बना। मनुष्य को खेती बूझी। जीवन में ओझाओं-पुजारियों का महत्व बढ़ा। नतीजतन उनके कहे में मनुष्य का वह सफर बना, जिससे समाज-धर्म-राजनीति के फॉर्मूले बने। मानव का वह सफर बना, जिसमें एक पटरी आदिम प्रवृत्तियों की और दूसरी सभ्यता की। तभी पांच हजार साल बाद अब मानव और पृथ्वी दोनों सभ्यता की अतिशयता के शिकार हैं। ओझाओं-सरदारों याकि धर्म और राजनीति के आधिक्य के मारे हैं। होमो सेपियन इतिहास का सत्य है कि शिकारी-पशुपालन-खानाबदोश मनुष्य जीवन को धर्म-विश्वास की सामुदायिक बस्तियों में धकेलने का काम कबीलाई ओझा-पुजारी-पंडितों का है। परिस्थितियों की गुत्थी ऐसा हो सकने की परिस्थितियों का जहां सवाल है तो उसके पीछे कई कारण हैं। पहला कारण होमो सेपियन के नियोलिथिक काल में मनोविज्ञान परिवर्तन है। दूसरा कयास जलवायु और पर्यावरणीय परिवर्तनों का है। 11,500 साल पहले अंतिम हिम युग समाप्ति के साथ पृथ्वी गर्म और शुष्क हुई, जिससे लोगों और जानवरों को नदियों, नखलिस्तान और अन्य जल स्रोतों के पास इकट्ठा होना पड़ा। बस्तियां बसीं। लेकिन यह थ्योरी इसलिए दमदार नहीं है क्योंकि भूगर्भविदों और वनस्पति विज्ञानियों ने पाया है कि हिम युग के बाद की जलवायु वास्तव में गीली थी, न कि शुष्क। एक थ्योरी है कि शुरुआती इंसान वहीं रहते थे, जहां शिकार और इकट्ठा होना आसान था। जैसे-जैसे आबादी बढ़ी वैसे-वैसे प्रतिस्पर्धा हुई। इसके झगड़ों-तनावों से लोगों का पशुपालन और पेड़-पौधों को पालने का रूझान बना। पर यह बात पुरातात्विक साक्ष्यों में फिट नहीं है। साक्ष्य अनुसार शिकारी और समूहों के इकट्ठे होने के जो आदर्श इलाके थे वहीं पशुपालन-और प्लांटपालन भी हुआ। प्राथमिक कारण मनुष्य दिमाग का विकास है। दस से पंद्रह हजार साल पहले नियोलिथिक काल में मनुष्य दिमाग की मानसिक क्षमताएं बढ़ीं। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार इसकी परिस्थतियां जलवायु परिवर्तन के दबावों से थीं। दिमाग जंगली घास (अनाज) की फसलों, मिट्टी के प्रकार, बारिश, सूरज की रोशनी, तापमान और मौसम परिवर्तन के अनुभवों में पारस्परिक संबंधों, कारण-प्रभाव का बूझने लगा। उसने जाना कि वह खुद प्रकृति की नकल कर सकता है। घास-अनाज पैदा होने की प्राकृतिक प्रक्रिया दोहरा सकता है। दिमाग की इस नई सृजनात्मकता से अपने आप दिमाग में कई तरह के कौशल और विशेषज्ञताएं तथा योजना व। सगठन की क्षमताएं बनीं। अलौकिक शक्ति का भान दिमागी विकास में प्राथमिक सरोकार क्योंकि भूख, भय, असुरक्षा की आदिम प्रवृत्तियों का है तो खानाबदोश कबीलों में जादू-टोना करने वाले ओझाओं-पुजारियों की निर्णायकता बढ़ती हुई थी। मनुष्य चिंतन पूरी तरह अलौकिक शक्ति में बंधता हुआ था। पहले से ही सूर्यग्रहण, ग्रह-नक्षत्र आदि के अनुभवों में मान्यताएं थीं। नए मानसिक विकास में अशुभ प्रभावों, अलौकिक शक्तियों के परस्पर संबंधों, परिणामों की चेन में दिल-दिमाग में सिम्बल याकि प्रतीक बने। सिम्बॉलिक सोच से प्रकृति की रियलिटी में दिमाग पौराणिक संस्कृति की जीवन धारणाएं बुनता हुआ था। ईश्वरीय ताकत और उसकी वास्तविकता को मानते हुए दिमाग प्रतीकों, पूजा, रिवाज और कायदों को अपनाता हुआ था। ईश्वर और उसके प्रतीक चिन्ह, स्थान, मूर्ति की अनुभूतियां कल्पित होती गईं। मानव चेतना में ब्रह्मांड के सहज ज्ञान बतौर मिथक पैठते हुए थे। कुल मिलाकर विश्वासों और आचरण के नैतिक नियमों में कबीलाई जीवन भी पुजारियों को जिंदगी की धुरी बनाता और मानता हुआ था। कबीलों में सर्वाधिक असरदार ओझा-पुजारी इसलिए था क्योंकि वहीं रीति-रिवाज-कायदों व मान्यताओं का रक्षक-पालक-विस्तारक-प्रचारक था। वह लोगों की श्रद्धा का, लोगों के दिमाग की जरूरत का केंद्र बिंदु था। कबीले-डेरे-बस्ती का मुखिया-सरदार भी क्यों न हो उसकी भी, और सबकी जरूरतों का याकि डर-बीमारी का हल निकालने वाला ज्ञानी, गुरू और डॉक्टर यदि कोई था तो वह ओझा-पुजारी था। सभी उसके कहे को मानते थे। बाकी सब गंवार अकेला वह समझदार! इसलिए आश्चर्यजनक नहीं है जो नियोलिथिक काल का मनुष्य निर्माण याकि पहला पुरातात्विक प्रमाण एक स्मारकनुमा मंदिर है। सोचें, सभ्यता शुरू होने से सात हजार साल पहले नियोलिथिक काल में मंदिर का एक स्थायी रूप! दक्षिण-पूर्व तुर्की में गोबेकली टेप नाम की इस साइट को 1996-2014 में जर्मन पुरातत्वविद क्लाउस श्मिट की टीम ने खोदा। परिणामों के बाद श्मिट ने साइट को मानवता का पहला "पहाड़ी पर कैथेड्रल" बताया। यह निर्माण एक ऐसी गैर-आवासीय जगह पर है, जिसमें खंभों से बने विभिन्न आलो में शक्तियों के सिम्बल है। गोबेकली टेप में शेर, भालू और अन्य जंगली जानवरों की इमेज से सजाए पत्थर के खंभे हैं। एक तरह से शक्ति स्थान जैसा स्मारक। अनुष्ठानों का एक औपचारिक और सामुदायिक केंद्र। मेले जैसे धार्मिक समारोह की जगह। यह स्थान लोगों को पूजा के लिए खींचता रहा होगा। इस जगह कबीलों और उनके लोग पूजा के लिए पहुंचते थे। इसका क्या अर्थ है? संभवतया किसी ओझा-पुजारी ने उस जगह को घटना विशेष से जोड़ कर यह मान्यता बनवाई होगी कि यह जगह अलौकिक शक्ति वाली है। तभी मंदिरनुमा स्मारक का निर्माण। मनुष्य का पहला पत्थर के स्तंभों का स्थायी निर्माण, अलौकिक शक्ति का स्थायी मंदिर। उस नाते स्थायी घर, बस्ती, बसावट, सेटलमेंट की प्रवृत्ति को बतलाता ईसा पूर्व सन् 10,000 का पुजारी का यह आइडिया क्या मील का पत्थर नहीं है? खेती जानी लेकिन की नहीं! नियोलिथिक काल की दूसरी रियलिटी है कि आज से 11,500 से 14,000 के कालखंड में मनुष्य ने खेती को जान लिया था। पर उसने खेती नहीं अपनाई। वह हजारों साल शिकार और पशुपालन में ही रमा रहा। लोगों की बस्तियां बसीं। गांव बने लेकिन लोग खेती नहीं करते थे। आधुनिक इजराइल-जॉर्डन-तुर्की में हुए उत्खननों का साक्ष्य है कि चौदह हजार साल पहले इजराइल-जॉर्डन में सर्वप्रथम पत्थर के घरों की बस्तियां थीं। तब के शिकारी नाटुफियन लोग मृतकों को अपने घरों में या उसके नीचे दफनाते थे। खेती को लेकर प्रामाणिक रिकार्ड 11,500 साल पहले जॉर्डन वैली में जेरिको और यूफ्रेट्सवैली में मुरेबेट के लेवेंटाइन कॉरिडोर का है। इन दो प्रमाणों से साबित है कि मनुष्य खेती से बहुत पहले ही बस्ती बना कर रहने लगा था। अन्य शब्दों में मनुष्य दिमाग में पहले साथ रहने का सामुदायिक विकास हुआ। उसमें धर्म और पुजारी लोगों को गाइड करता हुआ था। बहुत बाद में तीन से पांच हजार साल बाद के समय में कृषि और खेतिहर जिंदगी का सिलसिला शुरू हुआ। उसमें भी पुजारी का रोल। ‘नियोलिथिक क्रांति’ के वक्त का एक पुरातात्विक महत्व का स्थान तुर्की में उत्खनित कैटाल्होयुक (चाहाथालह्यूक Chah-tahl-hew-yook) बस्ती है। बस्ती में 8,000 लोग इकट्ठा रहते थे। गांव के निवासियों में गेहूं और जौ का उपयोग था। साथ ही दाल, मटर, कड़वी पशुचिका जैसी फलियों का भी। वे भेड़-बकरियों को चराते थे। गांव दलदली भूमि के बीच में था। जहां वर्ष में दो या तीन महीने तक बाढ़ हो सकती थी। शोध से पता चला है कि गांव खेती वाले किसी भी इलाके के पास नहीं था। मतलब खेती नहीं थी। शिकारी-संग्रहक खानाबदोश की जीवन शैली वाली बस्ती थी। इस साढ़े नौ हजार साल पुरानी बस्ती के उत्खनन के बाद वैज्ञानिकों में बहस हुई कि जब घूमंतू कबीले भेड़-बकरियों, बारहसिंघों आदि पशुओं का शिकार या पशुपालन करते हुए थे तथा फल-नट्स, अनाज, जंगली घासफूस इकठ्टे करते हुए थे तो उन्हें क्यों एक जगह बसने, पत्थरों के घरों में एक साथ रहने की जरूरत हुई? लोग क्यों स्थायी समुदाय बनाते हुए थे? प्रतीकों की क्रांति ऐसा होना पुजारियों के कारण था। खानाबदोश कबीलों के पुजारियों ने अंधविश्वास में स्थान विशेष की महतत्ता बनाई। स्मारक-मंदिर, बस्ती बनवा अपना प्रभाव बनाया। नियोलिथिक क्रांति "प्रतीकों की क्रांति" से पहले थी। दुनिया के बारे में मनुष्यों में ज्यों-ज्यों नई मान्यताओं का जन्म हुआ त्यों-त्यों मनोविज्ञान और अनुभूति में परिवर्तन हुए। इसे कैटाल्होयुक बस्ती के उत्खनन विज्ञानी होडर ने भी बूझा। उनके अनुसार धर्म कैटाल्होयुक बस्ती के लोगों के जीवन का केंद्र था। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि लोग एक मां देवी की पूजा करते थे। जाहिर है मूर्तियां धार्मिक देवताओं का प्रतिनिधित्व करती थी। इसलिए यह कयास गलत नहीं है कि कबीलों और उनके पुजारियों ने बस्ती निर्माण के साथ पहले अपने आस-पास के जंगली पौधों और जानवरों को पालतू बनाने, जंगली प्रकृति को वश में करने के धर्म टोटकों की कोई मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया बनाई होगी। स्थान-जगह को सही बनाने का टोटका चला होगा। जो हो, पहली बात यह धारणा सही नहीं है कि बस्ती बसना और खेती साथ-साथ घटित घटनाएं हैं। यह भी फालतू बात है कि इन दोनों से फिर सभ्यता निर्माण आरंभ हुआ। पुरातात्विक प्रमाणों से जाहिर है कि लोगों का सेटल होना, बस्ती बसा कर सामुदायिक जीवन का आरंभ पहले से था। कृषि से पहले कम से कम तीन हजार वर्षों तक मनुष्य कई जगह स्थायी बस्तियों में रहते हुए थे। उस बस्ती जीवन में कबीलाई ओझे-पुजारी लोगों की जिंदगी और कबीले के मुखिया को गाइड करते थे। मनुष्य ने जंगल के जीव-जंतुओं से अपने डर मिटाने, मौत से बचने के उपायों में दिमाग को दौड़ाया। बस्ती में जंगली जानवरों और मौत के प्रतीकों को अपने घरों में लाकर अपने को सुरक्षित याकि डर मिटाने के अनुष्ठान बनाए। मनोवैज्ञानिक स्वभाव बना। कैटाल्होयुक की बस्ती में नियोलिथिक लोगों का दो ही बातों पर फोकस था। एक खाने-पीने की सप्लाई सुरक्षित रहे और दूसरे धर्म की अनुष्ठान प्रथाओं पर फोकस। जीवन की बजाय धर्म का तब भी अधिक महत्व। कैटाल्होयुक में लोगों ने निर्वहन की तुलना में संस्कृति और धर्म को उच्च प्राथमिकता दी। लोग धर्म की साझा अनुभुतियों, सामुदायिक विश्वासों में एक साथ हुए और बस्ती बसीं। धर्म, अंधविश्वास, आस्था का आलम यह था जो कैटाल्होयुक में, एक महिला के अस्थिपंजर के गले पर किसी की चित्रित (प्लास्टर से) खोपड़ी मिली है। इसका अर्थ संभवतः वह खोपड़ी उसकी जिंदगी के लिए महत्वपूर्ण रही होगी। मान्यताओं में गले में खोपड़ी धर कर अंतिम सांस ली होगी या खोपड़ी मृत्यु के बाद रखी गई। सोचें, जीवन और मृत्यु के साथ-साथ में तब भी मनुष्य चेतना धर्म, अनुष्ठानों में कितनी गुंथी हुई थी। प्रकृति के डर और मौत की शरीर नश्वरता में नियोलिथिक काल में भी लोग खोपड़ी विशेष के अनुष्ठान से खतरों, अलौकिक ताकतों, परलोक आदि के जिन भी ख्यालों में जीते हुए थे तो जाहिर है कारण मनोविज्ञान व मनोदशा का है। उस वक्त भी नदी किनारे और सूखे इलाकों में खानाबदोश लोगों के स्थायी-अस्थायी डेरे होते थे और अनुष्ठानों के लिए स्थान विशेष की महिमा थी। जैसा कि दक्षिण-पूर्व तुर्की में गोबेकली टेप से प्रमाणित है। नया क्या जो सभ्यता? तब गोबेकली टेप के छह-साढ़े छह हजार साल बाद सुमेर में दो नदियों के बीच मनुष्यों की बस्ती के सामुदायिक और खेतिहर जीवन के निर्माण में कौन सी वह नई बात थी, जिसे बाद में ज्ञानियों ने सभ्यता का नाम दिया? अपना मानना है पुजारियों के आइडिया में समाज-धर्म-राजनीति में जीवन का बंधना और उससे मनुष्य का सभ्य और संगठित होना! होमो सेपियन जीवन की सामुदायिक और सरंचनात्मक जिंदगी। उस नाते मनुष्य की खानाबदोश जिंदगी को कृषि ने नहीं, बल्कि सामुदायिक विश्वास, आस्था और पुजारी के आइडिया ने खाया। पुजारी ने ही अलौकिक शक्ति को ईश्वर का नाम दिया और कबीलों के सरदारों को राजा का नाम। एक तरफ ईश्वर और दूसरी तरफ राजा और दोनों के बीच की कड़ी, दोनों का व्यवस्थापक, मार्गदर्शक, व्याख्याकार और कहानीकार खुद पुजारी। कबीलों, खानबदोश, नियोलिथिक काल में (और बाद में पंडित-पोप, आज तक) अकेले ओझा-पुजारी के पास वह समय, वह ऑथोरिटी, वह सर्वमान्यता थी, जिससे उसे दिमाग दौड़ाने की छूट थी। वहीं कबीले की तरफ से कल्पनाओं में उड़ता था। मान्यताएं-आस्थाएं बनवाता था। शुरुआती डेरे-बस्ती आम तौर पर तीन सौ लोगों के छोटे, आत्म-निहित समुदाय थे। हर गांव स्वतंत्र समुदाय था। तभी गांवों, डेरों के परस्पर विवाद सुनने या एक से अधिक गांवों को प्रभावित करने वाले मामलों के फैसलों में भी पुजारी अहम था। इन प्रारंभिक बस्तियों में कोई पुलिस, सेना नहीं थी। कबीले के सरदार की ताकत भी वैसी नहीं थी जैसी बाद में राजाओं की हुई। उस नाते लोगों की मदद, उपयोग, असर और नियंत्रण की सर्वसत्तामान ताकत यदि कोई थी तो वे जादू-टोनों, ज्ञान-चिकित्सा- अनुष्ठानों के मास्टर ओझा-पुजारी की थी। सवाल है खानाबदोश कबीलों और उसके सरदारों-पुजारियों ने खेतिहर जिंदगी अपनाने में क्यों तीन हजार वर्ष सोचा-विचारा। विज्ञान के जीवाश्म रिकॉर्ड की मानें तो शिकारी-संग्रही-खानाबदोश जिंदगी के मुकाबले किसानी तब आपदा थी। कृषि क्रांति पर जिंदा रहे लोगों ने मुश्किलों में जीवन गुजारा है। उनकी हड्डियां खाने-पीने की कमी के सबूत दिखाती हैं। किसान शारीरिक तौर पर छोटे, बीमारीग्रस्त थे। उनमें मृत्यु दर अधिक थी। जिंदगी में अस्थिरता थी। इसलिए एक विचारक स्कॉट ने बस्तियों को शहर नहीं बल्कि "लेट-नियोलिथिक बहु-प्रजाति पुनर्वास शिविर" कहा है तो जेरेड डायमंड ने नियोलिथिक क्रांति में खेती को "मानव इतिहास में सबसे बुरी गलती" बताया। बावजूद इसके आखिरकार धीरे-धीरे खेती, खेतिहर बस्तियों का विकास और सभ्यता निर्माण हुआ। उनका निर्माता फिर वहीं पुजारी, जिससे होमो सेपियन शुरू से भय-चिंता के समाधान का डॉक्टर मानते आए है। यह सत्य सुमेर की पहली सभ्यता से भी जाहिर है। (जारी)
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