बेबाक विचार

मानव अंतः पशुओं सा या इंसानी?

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मानव अंतः पशुओं सा या इंसानी?
पृथ्वी की समस्या मनुष्य है। उससे पृथ्वी को बचाना है। तब मनुष्य को बदलना होगा। बदलना तब संभव है जब मनुष्य पांच हजार वर्षों में बनी आदतों को छोड़े। मनुष्य ने समाज, व्यवस्थाओं, सभ्यताओं-राष्ट्रों को बनाकर धरती के बापी पट्टे काट कर पृथ्वी के शोषण और बरबादी की जितनी आदतें बनाई हैं उन्हें छोड़ना होगा। पर वह कैसे सुधरे? उसे कौन सुधारे?...पृथ्वी के सुधी जन कितनी ही कोशिश करें, वे पृथ्वी के मौजूदा आठ अरब लोगों और उनकी पीढ़ियों में यह जागरूकता नहीं बना सकते हैं कि बदलोगे नहीं तो बचोगे नहीं। चंद मनुष्य भले किसी दूसरे ग्रह में जाकर मानव वंश चलाएं मगर बहुसंख्यक मनुष्य भविष्य में पशुओं की तरह विलुप्त होने हैं। पृथ्वी निर्जन होनी है। प्रलय का मुहाना-35 : हां, संदेह नहीं रखें कि मानव का अंत नहीं है। पृथ्वी दम तोड़ रही है तो भला मनुष्य कैसे जिंदा रहेगा? प्रश्न इतना भर है कि मनुष्य बाकी जीवों की तरह खत्म होगा या ‘मानव’ गरिमा में मरेगा? मैंने होमो सेपियन के सफर के खुलासे में समस्याओं, मनुष्य प्रकृति व बुनावट, प्राप्तियों और सभ्यता पर जो लिखा है वह यह निचोड़ लिए हुए है कि- होमो सेपियन का सत्य पशु डीएनए है। वह ताउम्र उनसे मुक्ति की कोशिश में रहा। मगर उलटे पशुओं का जीवन बना बैठा। सृष्टि की अद्भुत रचना ‘व्यक्ति’ ने अपने ऑर्गेनिक-नैसर्गिक व्यक्तित्व को गंवा कर अपना और पृथ्वी दोनों का भस्मासुर बना। वह ‘सभ्यता’ का औजार बना और पृथ्वी का विनाशक! जबकि मूल में मनुष्य ने पशुओं से अलग दिमाग पाया था। उसे खुले आकाश का सत्यसाधक खुला पंछी बनना था। लेकिन वह बन बैठा भूखा, भयाकुल और हिंसक भस्मासुर! सोचें, सृष्टि का कैसा अनमोल सृजन है धरती और मानव! मानव को पृथ्वी से क्या नहीं मिला? बदले में पृथ्वी ने क्या पाया?....वह जहर, वह हवाएं, वे बुलडोजर, वह गरमी, जिससे आकाश की ओजोन परतों में सुराख बने हैं! ऑक्सीजन खत्म होते हुए है। पृथ्वी पिघलती हुई है। करोड़ों साल पुराना वह वक्त गया जब पृथ्वी में वह अंतर्निहित ताकत थी जो युग परिवर्तन याकि हिम युग जैसी अवस्थाओं, डायनासोर के काल के थपेड़ों को बरदाश्त करके भी वापिस जलवायु संतुलन बना लेती थी। पृथ्वी की वह क्षमता चूक गई है। विज्ञान बता रहा है कि धरती का भविष्य निर्जन, बंजर और बांझ होने का है। अखंड पृथ्वी के टुकड़े फिर सवाल, किसके कारण पृथ्वी का ऐसा भविष्य? मनुष्य के कारण। वह मनुष्य, जिसने पृथ्वी को खोद कर उन डायनासोर के अस्थिपंजर निकाल करके संग्रहालयों में यह बताने के लिए रखे हुए हैं कि जब प्रलय आती है तो पृथ्वी से पहले भी ताकतवर जीव विलुप्त हुए हैं। वैसे ही मनुष्य प्रजाति विलुप्त होगी! हां, मनुष्यों का अंत पशुओं की तरह होगा। इसलिए क्योंकि प्रकृति के इस ‘चेतन’ मनुष्य जीव ने चेतना और ज्ञान को दरकिनार कर अपने को सुपर पशु बनाया है। उसने अखंड पृथ्वी के टुकड़े किए हैं। पृथ्वी के राष्ट्रों के नाम बापी पट्टे बनवा कर उसे तहस-नहस किया है। भूखे, भोगी लोगों ने पृथ्वी का बिना आगा-पीछा सोचे उसका विवेकहीन दोहन किया है। सोचा ही नहीं इससे आखिर में अंत क्या होगा? अंत सामने है। पृथ्वी और मानव दोनों का अस्तित्व संकट में है। मनुष्य का पागलपन था और है कि जिस पाशविकता में मनुष्य ने पृथ्वी का बेइंतहां शोषण किया है वैसे ही परस्पर मानवीय व्यवहार का आचरण भी बनाया है। ताकत के अनुपात में मनुष्यों ने धरती को बांट कर मनुष्य और प्रकृति दोनों का दोहन किया।  सभ्यताएं बनीं। उसके घमंड में मनुष्यों ने एक-दूसरे को खत्म करने के संहारक हथियार बना लिए। तभी अस्तित्व समाप्ति का ट्रिगर मनुष्यों के हाथों से दबता हुआ है तो प्रकृति से भी। तभी मानव अंत सुनिश्चित है। पृथ्वी और मनुष्य को कोई भी ईश्वर नहीं बचा सकता है। कोई राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री नहीं बचा सकता है। अगले दो-तीन दशक में, इसी सदी में पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन की रूदाली में होगी। पृथ्वी की तबाही में लुटते-पीटते-आपात मौत की कहानियां लिखी जाती हुई होंगी। बरबादियों और नासमझी की मनुष्य कहानियां! मानव निर्मित आत्मघाती विकल्पों के कथानक। जैसे परमाणु हथियारों से संहार या अपनी करनियों से प्रकृतिगत प्रलय को न्योतने के कथानक। कुल मिला कर मनुष्य और पृथ्वी के आखिरी वक्त की कहानियां। मनुष्य को बोध कब होगा? यों इक्कीसवीं सदी में प्रलय से पहले मनुष्यों के आखिरी महायुद्ध के अवसर कम नहीं हैं। पृथ्वी के खत्म होने से पहले शक्तिशाली राष्ट्रों, धर्मों के बीच सभ्यताओं के संघर्ष की जमीन तैयार है। तभी नामुमकिन नहीं जो पहले भस्मासुर के हाथों आणविक संहार हो। मानवता अपने खत्म होने से पहले अपनी आंखों यह सत्य देखेगी कि होमो सेपियन ने पांच हजार साल पहले खेती अपना कर, बस्ती-नगर-राष्ट्र-सभ्यता निर्माण करके कैसा मूर्खतापूर्ण-आत्मघाती विकास बनाया। समाज-धर्म-राजनीति के त्रिभुज में बंधने का वह कैसा भयावह आरंभ था, जिसका अंत प्रलय है तो उसके साथ परमाणु ध्वंस से भी संहार के खतरे हैं! सोचें, मनुष्य के सभ्यता निर्माण में पृथ्वी को बंजर बनाने के कैसे-कैसे काम हुए हैं! पर क्या मनुष्यों को इसका अहसास है? इस सबसे हुई या होने वाली अपनी त्रासदियों का बोध होगा? सोच सकते हैं कि जरूरी नहीं जो सभ्यताओं का संघर्ष हो। संभव है एटमी हथियार जखीरों में ही बंद पड़े रहें। वे भी मनुष्य के साथ प्रलय में खत्म होंगे। रूस, चीन, अमेरिका, पाकिस्तान, भारत याकि तमाम एटमी महाशक्तियां शायद कलह को टाले रहें। इस्लाम, यहूदी, ईसाई, हिंदू, चाइनीज धर्म-सभ्यता अतीत को भुलाए रहें। मगर ऐसा न होना है और न पहले हुआ है। पांच हजार वर्षों में मनुष्य यदि पशुगत डीएनए से जंगखोर हुआ पड़ा है तो अब तो यों भी पृथ्वी गरमाते हुए है। मनुष्यों का सभ्यतागत घमंड उर्फ खून भला क्यों नहीं खौलता हुआ होगा? इस सदी के आरंभ में ही शीत युद्ध खत्म होने के बाद ‘इतिहास के अंत’ याकि आगे लड़ाइयां नहीं होने की गलतफहमी खत्म हो गई है। यूक्रेन-रूस की लड़ाई और उसके बाद नई वैश्विक गोलबंदियों से क्या प्रमाणित नहीं होता है कि पिछले तीन हजार वर्षों में मनुष्यों ने पांच हजार युद्ध लड़े हैं तो आगे तो अंतरिक्ष पर कब्जे को लेकर भी युद्ध संभव है? मनुष्य ने कब्जे और अपने वर्चस्व का जो मानवीय डीएनए बनाया है वह भविष्य में हवा, पानी, आकाश के भी पट्टे बनवाने की होड़ पैदा किए हुए होगा। पृथ्वी के अंत समय तक मनुष्यों को आपस में लड़ना ही है। मनुष्य ने यदि पांच हजार साल लड़ने में गुजारे हैं तो पृथ्वी की हवा-पानी बिगड़ने से वह समझदार हो जाए, यह संभव नहीं है। इसलिए मनुष्य प्रजाति का दुखांत त्रासद होगा। पृथ्वी की आठ अरब आबादी (सदी के अंत तक अनुमानित 11 अरब) के जीवन के नाते विचारें तो गरमाती पृथ्वी की मार दिनोंदिन असहनीय होगी। ग्लोबल वार्मिंग से आने वाले दशकों में पृथ्वी का औसत तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ने वाला है। वह सदी के अंत मे तीन से पांच डिग्री तक बढ़ा हुआ होगा। पृथ्वी खौलती हुई होगी। यह स्थिति ज्यों-ज्यों बनेगी समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा। छोटे द्विपीय देश डूबेंगे। इसके असर में आर्थिक-कृषि नुकसान, प्राकृतिक आपदाओं,  सभ्यतागत प्रतिस्पर्धाओं, संघर्ष तथा हिंसा के बढ़ने से वे अनुभव बनेंगे जैसे मनुष्यों को पहले कभी नहीं हुए। लेखक वालेस-वेल्स की एक पुस्तक है- असहनीय पृथ्वीः वार्मिंग के बाद जीवन (The Uninhabitable Earth: Life After Warming.)। इसमें ‘निर्जन पृथ्वी’ का पहला वाक्य है, "यह बदतर है, बहुत बुरा है, कल्पनाओं से कहीं अधिक।" "सर्वव्यापी खतरा" अब वह "थिएटर है जिसमें आगे की सभी कहानियां खुलनी हैं। दूसरे शब्दों में, 21वीं सदी के बारे में भविष्य की इतिहास किताबों का हेडर होगा जलवायु परिवर्तन, और हमारा सरवाइवल! सवाल है क्या मनुष्य प्रलय में पशुओं जैसी उस लावारिस दशा में मरेगा जैसे भारत में सन् 2021 में कोरोना महामारी के दौरान बिना ऑक्सीजन के लोग फड़फड़ाते मरे थे? मानव जाति बेमौत मरेगी या भगवानजी बचाने आएंगे? मनुष्यों ने जो भगवान बनाए हैं, धर्म बनाए हैं, जो जादू-टोने बनाए हैं क्या उनसे पृथ्वी और मानव अस्तित्व बच सकता है? यदि कोई मानता है कि बच सकते हैं तो तय मानें मानव सभ्यता का अंत पशुओं जैसा होना है। क्योंकि बचाव की इंसानी कोशिश तो होगी नहीं। क्या मनुष्य में समझ संभव? यक्ष प्रश्न है कि सुधी जन, ज्ञानी-वैज्ञानिक देवर्षि मानव क्या यह वैश्विक जागरूकता बनवा सकते हैं कि मानवता और पृथ्वी दोनों संकट में है तो कम से कम ऐसा कुछ तो हो, जिससे वैश्विक संकट का समाधान वैश्विक पैमाने के प्रयासों से हो? इन बातों का जीरो मतलब है कि दुनिया के देशों ने वैश्विक जलवायु करार किया है। संयुक्त राष्ट्र और उसकी एजेंसियां भी कोशिश करते हुए हैं इसलिए पृथ्वी बच जाएगी। कतई नहीं। ये तमाम कोशिशें मानव समाज को बेमौत मौत की और ले जाने वाली हैं। इनसे गफलत बनी है। लोग झूठे विश्वास में हैं कि पृथ्वी को बचाने की कोशिशें हो रही हैं और पृथ्वी बच जाएगी। उस नाते पृथ्वी-मनुष्य के अस्तित्व संकट में मानव प्रजाति का एकमेव पहला प्रयास यह हो कि विश्व समुदाय में अपने आपको बदलने का भाव बने। बदलने का अर्थ है मनुष्यों के जीवन आचरण में, पिछले पांच हजार वर्षों के सभ्यता विकास की रचना में आमूलचूल परिवर्तन हो। एक ऐसी नई वैश्विक व्यवस्था् का निर्माण हो, जिससे दुनिया का ज्ञान-विज्ञान केवल पृथ्वी के बचाव की और मुड़े। समस्या मनुष्य है। उसका बदलना जरूरी है। वह तब संभव है जब मनुष्य पांच हजार वर्षों में बनी आदतों को छोड़े। मनुष्य ने समाज, व्यवस्थाओं, सभ्यताओं-राष्ट्रों को बनाकर धरती के बापी पट्टे काट कर पृथ्वी की बरबादी की जितनी आदतें बनाई हैं उन्हें छोड़ना होगा। जाहिर है पृथ्वी को बचाने के मानव सभ्यता के संकल्प में पहला फैसला मनुष्य में सुधार का है। वह कैसे सुधरे? उसे कौन सुधारे? मोटा मोटी लगता है यह हो सकना संभव नहीं है। यह बात अतिवादी हो सकती है कि वैज्ञानिक प्रयासों से पृथ्वी के आकाश के सूराख भरे जा सकते हैं। प्रलय से पहले दूसरे ग्रह में बस्ती बसा कर मानव वंश को बचाया जा सकता है लेकिन यह संभव नहीं है जो मनुष्य के उन कारणों को मिटाया जा सके, जिनसे पांच हजार वर्षों में पृथ्वी और मनुष्य की बरबादी हुई है। मनुष्य ने अपने हाथों अपने को भस्मासुर बनाने का जो ताना-बाना बना रखा है वह मनुष्य की कोशिशों से सुलझ नही सकता है। इसलिए संकट स्थायी है। पृथ्वी के सुधी जन, ज्ञानी-वैज्ञानिक देवर्षि मानव कितनी ही कोशिश करें, वे पृथ्वी के मौजूदा आठ अरब लोगों और उनकी पीढ़ियों में यह चिंता पैदा नहीं कर सकते हैं कि बदलोगे नहीं तो बचोगे नहीं। चंद मनुष्य भले किसी दूसरे ग्रह में जाकर मानव वंश बचा ले मगर बहुसंख्यक मनुष्य पशुओं की तरह विलुप्त होने हैं। पृथ्वी निर्जन होनी है। जब तक दुनिया के सभी लोग अपने हाथों पृथ्वी की बरबादी की आत्मग्लानि और अपने भविष्य को लेकर आशंकित नहीं होंगे तब तक आखिरी सकंट का सामना करने की सामूहिक इंसानी कोशिशें नहीं बनेंगी। हिसाब से सृष्टि ने मनुष्य का चेतन मानस बनाया है। उसे समझदार होना चाहिए। उसे मानवता और पृथ्वी दोनों को बचाने की अंतिम समय तक जी जान कोशिश करनी चाहिए। ऐसी कोशिश, जिससे दुनिया और पृथ्वी नई बने। नया मनुष्य बने। मनुष्य वापिस प्रकृति की उस मौलिक अवस्था को प्राप्त करे, जिसमें वह बुद्धि चेतना में स्वतंत्र था, न कि पिंजरों का गुलाम और स्वंय तथा पृथ्वी का भस्मासुर! अब मामला दार्शनिकता का हो रहा है। उस विचार का खुलासा जरूरी है, जिसमें मानव के ऑर्गेनिक-स्वतंत्र-चेतन अस्तित्व की सोच है! (जारी)
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