
कैसा त्रासद सत्य जो मनुष्य स्वंय अनजाने-अनचाहे शतरंज का मोहरा है। अधिकांश मनुष्य प्यादे बन राजा, रानी, वजीर आदि के बूते जी रहे हैं। वह यांत्रिक प्यादा है। ऐसा, व्यवस्थाओं से पहले नहीं था। इंसान पहले वैयक्तिक चेतना की सार्वभौमता-स्वतंत्रता में जीवन का मजा ले रहा था। ..लेकिन होमो सेपियंस की ट्रेजेडी है जो उसी की बनाई व्यवस्थाओं के शतरंज में 99 प्रतिशत लोग प्यादे बने हुए हैं। व्यवस्थापकों के शिकार हैं। यह कैच-22 जैसा विरोधाभासी लोचा है। मनुष्य सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है! वह पशु नहीं होते हुए भी एनिमल फार्म में जीता है। pralay ka muhaana
प्रलय का मुहाना-4: लाइव दुनिया की सुर्खियों पर गौर करें! श्रीलंका में लोग आर्थिकी से बेहाल सड़कों पर। चीन में कोरोना के डर में करोड़ों लोग जानवरों की तरह बाड़ों में बंद! दुनिया को समझ नहीं आ रहा कि भारत में महामारी से सवा पांच लाख लोग मरे या चालीस लाख? यूरोप में यूक्रेन के शरणार्थियों की संख्या हुई पचास लाख पार। सन 2021 की बेमौसम एक्सट्रीम आपदाओं से कोई सौ अरब डॉलर का नुकसान।… सोचें, इन सभी खबरों में शिकार कौन है? मनुष्य! क्या श्रीलंका में कंगाली लोगों के कारण है? चीन में कोरोना का भूत क्या लोगों से है? भारत में लोगों ने खुद क्या मौत की सच्चाई छुपाई? क्या बेमौसमी आपदाओं की वजह स्थान विशेष में रहने वाले लोग हैं? सवाल है हर खबर में मरा हुआ, मारा हुआ या शिकार हुआ कौन? बेचारे निरीह, बेसुध, पॉवरशून्य लोग! क्या नहीं?
यक्ष प्रश्न है पृथ्वी के आठ अरब लोगों में से कितनों के बस में जिंदगी पर उनका अधिकार है? लोगों के बस में याकि कितनों के वैयक्तिक जीवन में सुख, संतोष और निज सुरक्षा है? क्या बहुसंख्यक लोग आश्रित, भाग्य भरोसे में इहलोक के प्लेटफॉर्म पर 84 लाख योनियों में आवाजाही के थर्डक्लास पैसेंजर नहीं हैं?
दूसरी बात यदि लोग समर्थ नहीं हैं, समय और परिवेश की असहायता में जी रहे हैं तो कौन जिम्मेवार? क्या वे खुद या जिन्होंने उनका जिम्मा लिया है या जिन्हें खुद लोगों ने वोट दे कर जिम्मेवारी दी है?
तभी परिवेश, हवा-पानी-मौसम के खतरों में जीवन जी रहे आठ अरब लोगों पर यदि संपूर्णता से विचार किया जाए और उन्हें इंडेक्सों, पैरामीटरों की तराजू में जांचे तो क्या प्रमाणित नहीं होगा कि आठ अरब लोगों में बहुसंख्यकों का जीना लावारिस है, उनका बार-बार शिकार होना, मूर्ख बनना और नारकीय जीवन भोगना उनकी अपने हाथों बनाई नियति से है।
अपने ही हाथों शिकार हुआ मनुष्य
कहते हैं लोग और नागरिक समझदार हैं। समर्थ हैं। वे वैयक्तिक चेतना के उच्चतम शिखर पर बैठे हैं। वे लाचार नहीं, बल्कि समर्थ हैं। वे असहाय नहीं ताकतवर हैं! हर होमो सेपियन समझता है कि उसने सब अपने से बनाया। व्यक्ति अपने जीवन का खुद मालिक, शिल्पकार, आर्किटेक्ट और ठेकेदार है। वह निज अस्तित्व को लेकर सचेत होता है। समर्थ होता है। कुछ भी हो मनुष्य के वैयक्तिक पुरुषार्थ से मानव सभ्यता बनी है।
ऐसा है तो फिर वह शिकार क्यों होता है? लोग क्यों खैरात में जीते हैं? भारत में सौ करोड़ लोग यदि पांच किलो अनाज के दाने-पानी और दो-चार हजार रुपए की सब्सिडी पर जीते हुए हैं तो यह क्या अबूझता में बेचारगी व नासमझी में जीना नहीं है?
एक तरह से प्यादे वाली लाचारगी! एक मायने में मनुष्य अपने आपमें शतंरज है। उसी की बुद्धि से शतरंज का खेल निकला है। भारत के चतुरंग नाम के बुद्धि-शिरोमणि ब्राह्मण ने पांचवीं-छठी सदी में शतरंज बनाया था। जिंदगी के खेल को खेल बनाया और दुनिया को वह भाया। लेकिन कैसा त्रासद सत्य जो मनुष्य स्वंय अनजाने-अनचाहे शतरंज का मोहरा है। अधिकांश मनुष्य प्यादे बन राजा, रानी, वजीर आदि के बूते जी रहे हैं और उनकी हार-जीत के साथ अस्तित्व का संकट बना बैठे है। मनुष्य यांत्रिक प्यादा है। ऐसा पहले नहीं था। व्यवस्थाओं के बनने से पहले नहीं था। तब व्यक्ति पहले वैयक्तिक चेतना की सार्वभौमता-स्वतंत्रता में जीवन का मजा ले रहा था। जिंदगी को जिंदादिली से जी रहा था। लेकिन होमो सेपियंस की ट्रेजेडी है जो उसी की बनाई व्यवस्थाओं के शतरंत में 99 प्रतिशत लोग प्यादे बने हुए हैं। वे व्यवस्थापकों के शिकार हैं। (pralay ka muhaana)
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यह कैच-22 जैसा विरोधाभासी लोचा है। मनुष्य सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है! वह पशु नहीं होते हुए भी एनिमल फार्म में जीता है। वह शतरंजी चालों का शिकार है। मोहरा बना हुआ है। वह अब गेंद है, खिलाड़ी नहीं। वह शिकार है शिकारी नहीं। वह होनी, नियति, नियंत्रणों में काम करता हुआ है न कि स्वतंत्र, स्वयंभू कर्मयोगी!
तभी दो तरह के जीवन में मनुष्य बंटे हुए। शिकारी और शिकार। मालिक और गुलाम का। तंत्र के तांत्रिक और उसके गण।
ऐसे में भीड़ पर सोचें। करें तो क्या करें? वह श्रीलंका की सड़कों पर हाय, हाय करते हुए है। भारत में लावारिस मरते हुए है। चीन में सिसकते-सुबकते हुए है। यूक्रेन में मरते और भागते हुए है। मनुष्यकृत पिंजरों में जीते हुए और जलवायु कहर में झुलसते, डूबते, जहरीली सांस लेते हुए। आखिर लोग करें तो क्या करें? उनके बस में क्या है!
ऐसा कैसे हुआ? इसका जिम्मेवार कारण स्वयं मनुष्य है। वह खुद ही अपनी बनाई शतरंज में अपने हाथों उसका प्यादा बना है।
चंद बुद्धिमानों से बना मनुष्य
दरअसल दार्शनिकों, ज्ञानियों, वैज्ञानिकों, बुद्धिमानों ने वैयक्तिक चेतना की सिद्धि में मनुष्य जिंदगी का खेला पहले सोचा। उसके इलहाम में मनुष्य की कहानी बनाई। मनुष्य जीवन का खेला बनाया। खेल के नियम-कायदे बनाए। अपने हाथों राजा, रानी, वजीर, ऊंट, घोड़े, हाथी बनाए और प्यादों की पैदल सेना बनाई। समाज, धर्म और राजनीति के नियम-कायदों में मनुष्य को चारों और से बांधा गया। एनिमल फार्म की भेड़-बकरी, शतरंज में प्यादों या सुपर पालनहार संरचना उर्फ व्यवस्था की पैदल सेना में कुल मनुष्य स्वभाव गुलाम का बना है। मनुष्यता का टेकओवर हुआ है। वह प्रजा हो गया। उसने अपना सर्वस्व राजा-रानी, प्रधानमंत्री-राष्ट्रपतियों- शक्तिमानों की सर्वज्ञता के सुपुर्द कर दिया।
फिर दोहरा रहा हूं कि होमो सेपियंस के सफर का आरंभ वैयक्तिक दिमाग, बल, कदमों की स्वतंत्र और मनमर्जी फितरत से था। ज्ञात इतिहास में भी प्रारंभ ऋषि-मुनियों की वैयक्तिक तपस्या से था। उनका चिंतन प्रकृति के रहस्यों को समझने का था। दार्शनिक सुकरात हों अरस्तू या उनके शिष्य, सभी निज वैयक्तिक साधना में मनुष्य पर विचार करते हुए थे। उसी से व्यवस्था व धर्म बनने शुरू हुए। फिर तर्क-विज्ञान से विकास शुरू हुआ तो गैलेलियो ने पृथ्वी को गोलाकार घोषित किया। आइंस्टीन ने भौतिकी से ब्रह्माण्ड के सत्य उद्घाटित किए। यह सब निज खोज से था। उस नाते पिछले छह हजार सालों का पूरा विकास बुद्धि के सिर्फ सौ-दो सौ लोगों के निज योगदान की बदौलत है। राजा-रानी-वजीर, राष्ट्र, नस्ल-भीड़ का कोई मतलब नहीं। दूसरे शब्दों में ज्ञान गंगा की गंगोत्री के भागीरथ का समुच्चय सौ-दो सौ तपस्वियों, ज्ञानी-विज्ञानी कर्मयोगियों और दार्शनिकों-चिंतकों का है। इनके कारण जीने की पद्धतियां, विचारधारा बनी। सब भीड़ में से वैयक्तिक चेतना के सिद्ध व्यक्तियों से था। पृथ्वी के अलग-अलग इलाकों में बड़े-बुजुर्ग (चिम्पांजी समाज की तरह) ने लीडरशीप दे कर उनका सिस्टम बनाया। नतीजतन समाज, नस्ल की ढेरों मानव कहानियां बनीं। कहानियों से जन्म से ले कर मरण तक सब कुछ पूर्व निर्धारित हुआ। कहानियां भाग्य, नियति और पैगंबर के वचनों से कलमबद्ध है। (pralay ka muhaana)
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होमो सेपियंस के घूमंतू स्वतंत्र अस्तित्व का प्यादा बनना मानव इतिहास का सर्वाधिक त्रासद पहलू है। लोग भीड़ हो गए। भीड से अहम के भस्मासुर पैदा हुए। चिम्पांजी के डीएनए के माफिक मनुष्य बाड़ों के स्वामित्वधारी मुखियाओं की कमान बनी। इससे भीड़ का जीवन और बंधा हो गया। इस बंधे मनुष्य सफर में भीड़ के सरदारों से राजा-रानी से होमो सेपियंस का भला कम और नुकसान अधिक हुआ। बुद्धि, ज्ञान-विज्ञान-सत्य के न तो पंख बने और न भीड़ में समझदारी आई। उलटे भीड़ के कारण लड़ाइयां अधिक हुईं। तो भीड़ वाले मनुष्यों की पैदल सेना का खास मतलब नहीं और जो भी हुआ है वे वैयक्तिक बुद्धि के पुरुषार्थ से।
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भूमंडलीकरण तब और अब!
आज दुनिया भूमंडलीकृत गांव है। इस गांव की जरा आठ हजार साल पहले की पृथ्वी से तुलना करें। कुछ भी नहीं होते तब घूमंतू होमो सेपियंस पूरी दुनिया में फैले हुए थे। दो-ढाई लाख वर्षों पहले आदिमानव अफ्रीका में थे। वे वहां से निकले और धीरे-धीरे पूरी पृथ्वी पर फैले। सोचें, होमो सेपियंस का वह अपने बूते क्या भूमंडलीकरण नहीं था? आदिकाल में वैसा होना साहसी और कौतुक व्यक्तियों के वैयक्तिक मष्तिष्क के आइडिया, व्यवहार व एक्सचेंज और आवाजाही से था। वह किसी राजा, देश, समाज की सामुदायिक इच्छा से नहीं था। मनुष्य प्रकृति का यह बेसिक सत्व-तत्व है कि वह कोलंबस है। शुरू से ही एक-दो लोग या कबीला नए इलाके, नई चीजें खोजता हुआ आगे बढ़ा है। किसी ने पत्थर के हथियार, औजार बनाए। किसी ने आग खोजी। किसी ने पहिया बनाया। ये आविष्कार फिर वैसे ही एक व्यक्ति से दूसरे को ट्रांसफर होते गए जैसे पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों में तकनीक ट्रांसफर होते हुए है। याद करें 1875-1895 की अवधि में ग्राहम बेल जैसे दो-चार धुनी वैज्ञानिकों से टेलिफोन-वायरलेस टेलीग्राम याकि संचार के कैसे औजार बनाए थे और वे अब दुनिया में किस रूप में कैसे फैले हुए हैं। 1903 में राइट बंधुओं ने उड़ने की मशीन दी। एलन ट्यूरिंग ने आधुनिक कंप्यूटिंग का बीज अंकुरित किए। 1989 में अंग्रेज विज्ञानी टिम बर्नरस ली ने इंटरनेट बनाया तो चार्ल्स कुयन काओ ने ब्राडबैंड के आइडिया में वैश्विक वेब का नेटवर्क सोचा। उधर गोर्बाचेव ने मानव इतिहास के क्रूरतम पिंजरों से मनुष्य को आजाद करने का साहस दिखाया। नतीजतन देखते-देखते दुनिया भूमंडलीकृत गांव में कनवर्ट! (pralay ka muhaana)
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हां, चंद भविष्यदृष्टओं, वैज्ञानिकों और लिबरल सिद्धपुरूषों की धुन का परिणाम है भूमंडलीकरण। मानव समाज की संपूर्णता का बोध करवाती हुई एक बेजोड़ उपलब्धि!
मूल वजह मानवों की भीड़ में चंद लोगों की वैयक्तिक बुद्धि की सिद्धि। उसी से मनुष्यता समर्थवान होती गई। मगर त्रासदी जो ये उपलब्धियां मनुष्य को फॉलोवर, प्यादा बनाती गई। पूरे मानव समाज में प्यादों-मोहरों का उपयोग हो गया। तभी इंसान अब सड़कों पर हाय, हाय करता है। लावारिस मरता है। मशीन की तरह बेजान काम करता है और फूटे करम की होनी में जीवन जीता है। विपदा और आपदा से लड़ने का वैयक्तिक सामर्थ्य (जैसे कोरोना वायरस की चुनौती में वैज्ञानिकों के वैयक्तिक शोध से निकला वैक्सीन का समाधान) भी पूरे मानव समाज को समानता से सुलभ नहीं हो पाता। इसलिए क्योंकि लोग अलग-अलग देश, समाज, कौम, नस्ल, सभ्यता के दायरों-स्वार्थों में बंटे हैं। उनमें लोग महज कहानियों के पात्र और प्यादे हैं।
कोई आश्चर्य नहीं जो सुधी-सिद्ध जन जलवायु परिवर्तन से पृथ्वी के विनाश की भविष्यवाणी कर रहे हैं। बचने के उपाय बता रहे हैं लेकिन सब नक्कारखाने में तूती! क्या पृथ्वी के 195 देश अस्तित्व के संकट में वैसे दुबले और भागदौड़ करते हुए हैं, जैसे आम इंसान अपने पर आई वैयक्तिक विपदा-आपदा में करता है?
निःसंदेह रूस, चीन, भारत, ब्राजील, मेक्सिको, उत्तर कोरिया, अफ्रीकी-अरब देशों और इनके राष्ट्रपतियों-प्रधानमंत्रियों को मालूम है कि पृथ्वी और मानवता संकट में है लेकिन इनमें से कितने संजीदगी और जज्बा दिखा कर लोगों को जागरूक बना रहे हैं, बल्कि उलटे सभी अलग-अलग कहानी, मजबूरी और जरूरत की दलीलों में विनाश को न्योतते हुए हैं। संकटों की अनदेखी से जी रहे हैं।
इसलिए मानव प्रलयकारी संकट की होनी की और बढ़ता हुआ है। विनाशकारी संकटों के भंवर लगातार गहराते हुए हैं। (जारी) pralay ka muhaana