बेबाक विचार

जुड़वाः मानव और चिम्पांजी!

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जुड़वाः मानव और चिम्पांजी!
चिम्पांजी जहां मूल डीएनए की सुषुप्त चेतना में सरल, सीमित दायरे में जीवन जीते हुए हैं। वहीं मनुष्य की बुद्धि जिज्ञासा से सत्य खोजते-खोजते शिखर पर है। बावजूद इसके मूल डीएनए, प्रवृत्तियों से मनुष्य पृथ्वी के एनिमल फार्म का सदस्य ही है। पशु स्वभाव की नियति का बंधक है। चिम्पांजी और मनुष्य में अब यह फर्क है जो मनुष्य एवरेस्ट के शिखर पर है और उसका जुड़वा चिम्पांजी जंगल में। मनुष्य के पास स्वनिर्मित औजार संहारक परमाणु हथियार है वहीं चिम्पांजी के पास पत्थर। मनुष्य एवरेस्ट पर बैठ दुष्टता, साजिशी प्रवृत्ति में पूरी मानवता, मनुष्य समूहों पर, पृथ्वी पर प्रभुत्व की प्रकृति में दिमाग खपाए हुए है वहीं चिम्पांजी सुबह-शाम कंदमूल की जीवनचर्या से अपने अस्तित्व को भोगता हुआ। प्रलय का मुहाना-12: यदि मादा गर्भ के एक अंडे के दो जुड़वा बच्चे एक सी मनुष्य प्रकृति लिए होते हैं तो एक अंडे के आदि मानव और चिम्पांजी की प्रकृति भी तो समान होगी। हां, है और बहुत है। पृथ्वी के आठ अरब लोगों में हर मनुष्य की जैविक रचना और स्वभाव चिम्पांजी की जैविक रचना, आचरण और डीएनए की समरूपता लिए हुए है। विज्ञान के अनुसार मनुष्य और चिम्पांजी की जैविक रचना में 98.8 प्रतिशत डीएनए एक जैसे है। सिर्फ 1.2 प्रतिशत का फर्क। इसका क्या अर्थ? मोटा मोटी यह कि मानव कोशिका (human cell) डीएनए के तीन अरब आधार जोड़े लिए होती है। उस नाते 1.2 प्रतिशत का अर्थ है साढ़े तीन करोड़ डीएनए का फर्क। संभव है इसमें कुछ व्यापक प्रभाव वाले होंगे तो कुछ नहीं। वैज्ञानिकों के अनुसार डीएनए के दो एक से स्ट्रेचेज भी अलग-अलग काम करते हुए हो सकते हैं। ये अलग-अलग वक्त, स्थान में अलग-अलग मात्रा में उत्तेजित या भभक सकते हैं। मतलब समानता के साथ असमानता बनने का वैज्ञानिक आधार भी है! मानव और चिम्पांजी के डीएनए में समानता का आधार दोनों और इनके समवर्ती बोनोबोस, बबून, लंगूर आदि का एक ही पूर्वज प्रजाति का वंशज होना है। 60-70 लाख वर्ष पूर्व के पूवर्जों के सभी वशंज। पूर्वजों की विरासत की कड़ी क्रमशः मनुष्य (प्राइमेट्स) और चिम्पांजी की शाखा में विभाजित। इनका डीएनए, पीढ़ी-दर-पीढ़ी मूल रूप में या कुछ प्रभावों से बदले हुए हस्तांरित होता आया है। डीएनए में बाद परिवेश, स्थान-काल से जो परिवर्तन हुए वे मानव और चिम्पांजी के व्यवहार के फर्क की आधार भूमि हैं। 98.8 प्रतिशत एक से डीएनए के साथ शारीरिक तौर पर समानताएं। चिम्पांजी की तेरहवीं पसली को छोड़ कर उसके अस्थि-पंजर में भी उतनी ही हड्डियां जितनी मनुष्य शरीर में। प्राइमेट्स और मनुष्य की धमनियों में खून भी लगभग एक सा दौड़ता हुआ। दिमागी प्रवृत्तियां समान मगर... चिम्पांजी की बुद्धि मोटा मोटी जीन द्वारा निर्धारित है। उन पर नर्चर याकि पर्यावरणीय कारकों का कम प्रभाव हुआ है। अध्ययनों का निष्कर्ष है कि चिम्पांजी में कुछ, लेकिन सभी, संज्ञानात्मक या मानसिक, क्षमताओं में व्यवहार, उन जीन के अनुसार होता हैं जो विरासत में प्राप्त हैं। वैज्ञानिक सत्य है कि एक जीन, कई समान जीन, अपने व्यवहार में अलग-अलग तरीके, उपयोग में लिए हुए हो सकते हैं। रेडियो फ्रीक्वेंसी कम-अधिक मात्रा में हो सकती है। मानव मष्तिष्क में एक जीन गूंजता, विस्फोटक हो सकता है तो दूसरे में बहुत धीमा व शांत। अन्य शब्दों में मनुष्य, चिम्पांजी और गोरिल्ला तीनों के दिमाग में एक जीन अधिक-कम प्रभाव बनाए हो सकता है। सोचें, ऐसे असंख्य जीन मष्तिष्क के विकास, उसके अंतर-स्त्रोतों को किस तरह प्रभावित किए हुए होंगे? तभी क्रमिक विकास से मनुष्य का दिमाग जिज्ञासा की धुन में तेज, चालाक, स्वामित्वादी, अहंकारी व जंगखोर बना है तो आश्चर्य क्या! मनुष्य और चिम्पांजी के इम्यून सिस्टम के जीन लगभग एक जैसे हैं। वायरस, एड्स, हेपेटाइटिस जैसी बीमारियों से चिम्पांजी भी संक्रमित होते हैं। विरासत और विकासवाद की व्याख्या अनुसार 20 लाख साल पहले आदि मानव होमिनिड्स बहुलता में थे। तब मानव प्रजाति के वंशजों में हथियार उपयोग और शिकार प्रवृत्ति का एक भभका बना। लोगों का एक-दूसरे के क्षेत्र पर अतिक्रमण हुआ। अंतर-समूह हत्याओं का दौर आया और मनुष्य मांसाहारी बना। ध्यान रहे मूल चिम्पांजी जीन शाकाहार का है। चिम्पांजी के पूर्वज निज स्वतंत्रता, अपने क्षेत्र की सुरक्षा, स्वामित्व, प्रभुत्व, पदानुक्रम जैसी प्रवृत्तियों की सरल आदतों, व्यवहार के नियमों में जीवन गुजारते गए और आज भी वैसे ही जी रहे हैं। दूसरी तरफ मनुष्य के दिमाग में चेतना के खुले पट, जिज्ञासा के अनुभवों में ब्रेन पावर का विस्तार हुआ। भाषा, कम्युनिकेशन, व्यवहार को बांधने याकि संहिताबद्ध करने के नियमों, वर्जनाओं और शिष्टाचार की प्रणालियों का क्रमिक विकास हुआ। सुषुप्त बनाम जिज्ञासु चेतना नतीजतन चिम्पांजी जहां मूल डीएनए की सुषुप्त चेतना में सरल, सीमित दायरे में जीवन जीते हुए हैं। वहीं मनुष्य की बुद्धि जिज्ञासा से सत्य खोजते-खोजते शिखर पर है। बावजूद इसके मूल डीएनए, प्रवृत्तियों से मनुष्य पृथ्वी के एनिमल फार्म का सदस्य ही है। पशु स्वभाव की नियति का बंधक है। चिम्पांजी और मनुष्य में अब यह फर्क है जो मनुष्य एवरेस्ट के शिखर पर है और उसका जुड़वा चिम्पांजी जंगल में। मनुष्य के पास स्वनिर्मित औजार संहारक परमाणु हथियार है वही चिम्पांजी के पास पत्थर। मनुष्य एवरेस्ट पर बैठ दुष्टता, साजिशी प्रवृत्ति में पूरी मानवता, मनुष्य समूहों पर, पृथ्वी पर प्रभुत्व की प्रवृति में दिमाग खपाए हुए है वहीं चिम्पांजी सुबह-शाम कंदमूल की जीवनचर्या से अपने अस्तित्व को भोगता हुआ। चिम्पांजी शारीरिक ताकत में मनुष्य से अधिक ताकतवर, लचीले व जिमनास्टिक फुर्ती और गति लिए होते हैं। उनकी कूदने, खींचने, पकड़ने में गजब फुर्ती होती है। वे आम तौर पर फल, पत्ते व नट्स खाते हैं। उनका खान-पान सीजनल उपलब्धता और जगह याकि देश-काल के अनुसार बदलता है। चिम्पांजी बुद्धिमान हैं। इसलिए खाने के लिए कई तरीकों का उपयोग करते हैं। वह बुद्धि से आर्ब्जव करके सीख लेता है। वे नंबरिग बूझ सकते हैं। उच्चारण बना सकते हैं। जीवन जीने की इनकी अपनी एक पद्धति है। धारणा है कि पृथ्वी पर सिर्फ मनुष्य ही औजार निर्माता (Man the Toolmaker) है। मगर चिम्पांजी दूसरा जीव है जो औजार का उपयोग करता है। चिम्पांजी औजार बना सकता है। चिम्पांजी पत्थर को उठा उससे नट्स तोड़ता है। चिम्पांजी को दीमक के टीले को घास के डंठल से ढहाने, डंठल को दीमक ढेर से बाहर निकालते, उन्हें खाने की क्रिया करते देखा गया है। वह पत्तों के ढेर को क्रश करते हुए शरीर की सफाई करता है। चिम्पांजी प्रकृति, स्वभाव से यदि शांतिप्रिय है तो झगड़ालू और दिमाग बिगड़ने पर बर्बर भी होता है। वे एक-दूसरे से कम्युनिकेट करते हैं। मनुष्य की तरह चिम्पांजी की आदत स्वामित्व बनाने, लालच और अहम में जीने की है। परिवार, कुनबे के बतौर स्वामी वह अपनी टोली की सुरक्षा, आईडेंटिटी की फिक्र में रहता है। मादा चिम्पांजी का दूसरे के यहां जाना नर चिम्पांजी को पसंद नहीं आता है। यदि उसके बाड़े, उसकी सीमा क्षेत्र में दूसरा चिम्पांजी घुस आए, वह वहां कब्जा बनाए तो दोनों टोलियों में जगह के स्वामित्व को ले कर लड़ाई होगी। परिवार का बुजुर्ग संतानों की कमान संभाले होता है। क्या ये सब मानव प्रकृति जैसे गुण-अवगुण नहीं? तभी तो मनुष्य व चिम्पांजी के डीएनए 98.8 प्रतिशत एक जैसे हैं। इसलिए चिम्पांजी और मनुष्य स्वभाव में साम्य है। वैज्ञानिक कोई डेढ़ सौ वर्षों से चिम्पांजी को आब्जर्व करते हुए हैं। लंबे समय के सात अध्ययनों में चिम्पांजी की प्रकृति के अलग-अलग व्यवहार के 39 पैटर्न चिन्हित हुए हैं। औजारों के उपयोग, बच्चों के लालन-पालन, और नाता-रिश्ता बनाने का व्यवहार कुछ चिम्पांजी समूह में रिवाज व आदत की तरह प्रचलित है। लगभग पांच दशक तक तीस बंदर शोधकर्ताओं ने 18 चिम्पांजी समूहों के अलग-अलग व्यवहार के आंकड़ों पर  यह निष्कर्ष निकला है कि ये मानव प्रभाव का अनुभव लिए हुए हैं। इस बात में चिम्पांजी द्वारा 152 हत्याओं का पैटर्न अहम है। कभी-कभार चिम्पांजी शिकारी व मांसाहारी हो जाते हैं। ये दिमाग, व्यक्तित्व, भावनाओं-संवेदनाओं के ताने-बाने में, जहां संवेदनाओं में जीते हैं वहीं बच्चों के लालन-पालन की चिंता के साथ गुस्से में क्रूर लड़ाके भी बन जाते हैं। रिजनिंग और फीलिंग सन् 1960 से कोई 60 साल चिम्पांजियों के समूह को ऑब्जर्व करके जेन गुडॉल ने (Jane Goodall: The Book of Hope: A Survival Guide for Trying Times) बताया है– चिम्पांजी रिजनिंग और फीलिंग में मनुष्य माफिक हैं। चिम्पांजी की टोलियां आपस में लड़ती हैं। युद्ध जैसी लड़ाई होती है। हर टोली अपनी जमीन, इलाके पर कब्जे, स्वामित्व की जिद्द में जीती है। मर्द चिम्पांजी इकठ्ठे होकर इलाके की सीमाओं पर गश्त लगा कर निगरानी करते हैं। यदि दूसरी टोली का कोई चिम्पांजी इलाके में घुसे और घूमे तो उसका पीछा व उसकी जासूसी करते हैं। ये दयालु और मानवीय होते हैं और प्रवृत्ति में बदनीयत वाले जरूर मगर मनुष्य की तरह दुष्ट (Evil) प्रकृति लिए हुए नहीं। जेन गुडॉल के अनुसार मनुष्य दुष्ट स्वभाव वाला होता है। वह सर्द निर्ममता में सोच-विचार, प्लानिंग में दूसरे इंसान को खत्म करने, युद्ध की योजना बनाता होता है, जबकि चिम्पांजी केवल भभके की क्रिया से हमलावर या लड़ता हुआ होता है। चिम्पांजी मानवीयता लिए होता है। जेन गुडॉल ने प्रामाणिक तौर पर मानवशास्त्रियों, प्राइमेट विज्ञानियों की इस बहस को खत्म किया है कि क्या केवल मानव ही लड़ाई के जीन लिए हुए नहीं है? अब वैज्ञानिक मान्यता है कि समवर्ती, पूर्वज नववानर जन चिम्पांजी व्यवहार में घातक अंतर-समुदाय हत्याओं, लड़ाइयों की प्रकृति के जीन लिए हुए हैं तो वैसे ही डीएनए मनुष्य में हैं। हालांकि यह गजब दलील है कि चिम्पांजी का हिंसक होना मानव प्रभाव से बना हुआ है। मतलब मनुष्य के व्यवहार को देख-देख कर उनकी प्रकृति बदली है। वे इलाके विशेष व खाने-पीने पर आए संकटों से भी हिंसक बने। हमलावर चिम्पांजी अधिकांशतः नर चिम्पांजी होते हैं। उन्हीं में हिंसा व लड़ाई होती है। कह सकते हैं मानव की पुरूष प्रधान समाज रचना और स्वामित्व प्रवृति की मानवीय विरासत नववानर जनों और मनुष्य में वंशानुगत है। औजार सोचें, दो लाख साल पहले आदि मानव प्राइमेट्स और चिम्पांजी अपनी टोली, टोलों, परिवार-कबीलों की साथ-साथ जंगलों में मनमर्जी जिंदगी जीते हुए थे। दोनों स्वतंत्र घूमंतू जीवन जीते हुए। अब मनुष्य व चिम्पांजी में क्या फर्क है? दोनों अभी भी डीएनए की जैविक रचना में टोली, समूह की आईडेंटिटी में जीते हैं। अपनी जाति से बाहर के लोगों, दूसरी चिम्पांजी टोली पर शक करते हैं। अपने रिहायशी इलाके, अपनी टोली के सदस्यों पर स्वामित्व, अपने कब्जे, सुरक्षा की चिंता करते हैं। गुस्सा आया तो लड़ते हुए भी। इन प्रवृत्तियों का मनुष्य के दिमाग में बहुत फैलाव हुआ। उसके क्रमिक विकास का कमाल है, जो मनुष्य ने सीमा, चारदिवारी, व्यवस्था, धर्म, राजनीति बनाई। अपने को आधुनिक बना अमानुषी, बर्बर अवस्था के आसुरी व्यवहार के आधुनिक औजार बनाए। मनुष्य ने लालच, स्वामित्व की भूख और अहम में अपना और पृथ्वी का अपने को भस्मासुर भी बना डाला। आदि मानव और चिम्पांजी की प्रकृति में देशकाल से जो भी फर्क आया वह मनुष्य को विकास देवता और भस्मासुर दोनों बनाने वाला था वहीं चिम्पांजी मोटा मोटी सुषुप्त चेतना से मूल प्रकृति में जीवन जीता आया है। दोनों के सफर में फिलहाल चिम्पांजी वनवासी और मनुष्य एक जैविक यांत्रिक मशीन! वजह मष्तिष्क चेतना की है। सामान्य जीवन बनाम सुपर जीवन में प्रवृत्तियों के सहज बने रहने या भयावह बनने का मामला है। मनुष्य की दादागिरी, कब्जे-स्वामित्व की प्रवृत्ति, अपने् इलाके-संसाधनों की भूख, शोषण के जींस सचमुच सुनामी पैदा करने वाले रहे। यों जंग, स्वामित्व और राजनीति के जींस चिम्पांजियों में भी हैं। गौंबे चिम्पांजी वार के (Gombe Chimpanzee War) अध्ययनकर्ताओं की मानें तो उन्हें विरोधी पर घातक चिम्पांजी छापामारी का अल्पकालिक मकसद समझ नहीं आया। लेकिन उनका यह दीर्घकालीन इरादा जाहिर हुआ कि अंत मकसद प्रतिद्वंद्वी समुदाय के समूचे नाश का था। ताकि प्राकृतिक और प्रजनन संसाधनों की प्रतिस्पर्धा का टंटा हमेशा के लिए खत्म हो। मतलब चिम्पांजी भी व्यवहार में चलते-चलाते अलटपे में नहीं, बल्कि इंटीग्रेटेड दीर्घकालीन मकसद बनाए होते हैं। मनुष्य और चिम्पांजी दोनों हिंसा प्रकृति में एक-जैसे। फर्क कैनवास के छोटे और बड़े होने का है। कासाकेला चिम्पांजी समुदाय का एक उदाहरण है। 1974 से 1978 के बीच तंजानिया में गौंबे स्ट्रीम नेशनल पार्क के चिम्पांजियों में परस्पर कई लड़ाईयां हुईं। उन्हें देख पहली बार संरक्षणवादियों को समझ आया कि ये आदि मानव गुस्से में निर्ममता से विरोधी की हत्या करते हैं। तंजानिया में जब एक बड़ा चिम्पांजी समुदाय अलग हुआ तो दोनों गुट लड़ने लगे। तब नर चिम्पांजी के समूह अपने संबंधित क्षेत्रों की सीमाओं पर गश्त लगाते। घुसपैठियों को क्रूरता से भगाते व मारते। चिम्पांजियों की टोली के दो हिस्सों में बंटने से पहले कम्युनिटी में नर और मादा बराबर संख्या में थे। चिम्पांजियों को यह अच्छा नहीं लगता है। वह चिम्पांजी टोली शांति-स्थिरता से रहती है, जिसमें पुरूष से अधिक महिलाएं हों। तभी गौंबे टोली के नर चिम्पांजी छापामार युद्ध हमलों से दूसरी टोली की महिलाओं को छीनते। कासाकेला चिम्पांजियों ने इसे लेकर बहुत क्रूरता दिखाई। तथ्य है कि चिम्पांजी बड़ी संख्या का ग्रुप बना छापामारी करते हैं। अकेले घूमता दुश्मन उनका टारगेट होता है। हमलावर बिना अपने नुकसान की चिंता में दुश्मन को चोट पहुंचाता है। एक-एक को टारगेट व निहत्थों पर ऐसा जुल्म कि दुश्मन पर आतंक बने और उसकी आसान जीत हो जाए। सामने वाले की ताकत को कमजोर साबित कर अपने पक्ष में शक्ति संतुलन बनाने की चिम्पांजी की क्रूरतापूर्ण प्रवृत्ति भयावह है। एक बात और, चिम्पांजी के संघर्षों में महिलाएं अपने साथियों की हत्या के बाद विजयी हुए समुदाय में आ मिलती हैं। चिम्पांजी और नाजी व यूक्रेन मिशन क्या ऐसा ही मनुष्य प्रकृति का मामला नहीं है? क्या रूस के पुतिन ने यूक्रेन में इसी स्वभाव, सोच अनुसार हमला नहीं बोला? क्या रूस की सेना बर्बरता से विनाश का खौफ बनाते हुए नहीं है? चिम्पांजी अपने क्षेत्र विशेष से लगाव, प्रभुत्व, पदानुक्रम जैसी बातों के सरल व्यवहार और उनके नियमों से चिपके होते हैं। उनके लड़ने के तरीके जैसे ही आकस्मिक, अति-हिंसक घात मनुष्य की बर्बर अवस्था में युद्ध का प्रभावी और पसंदीदा तरीका होता है। वर्तमान में भी ऐसा ही है। नाजी जर्मनी का ब्लिट्जक्रेग व पुतिन के यूक्रेन मिशन की सैन्य रणनीति की समानताएं क्या चौंकाती नहीं हैं? अपने प्रतिद्वंद्वी पर इतनी भारी ताकत से धावा बोलो कि सामने वाले के लिए मुकाबला, प्रतिरोध ही असंभव हो जाए। जैसे गौंबे चिम्पांजियों ने अत्यधिक बल के उपयोग से हमला करके दुश्मन टोली के तुरंत हौसले पस्त किए थे। मनुष्य और चिम्पांजी एकमात्र वह प्रजाति हैं जो अपनी ही नस्ल, सदस्यों को मारती हैं। उन पर हमलों और मारने की प्रवृत्ति लिए हुए हैं। बाकी पशु भूख-शिकार के मकसद में मारते हैं। वैज्ञानिकों को जेन गुडॉल के अध्ययन से चिम्पांजी की घातक अंतर-सामुदायिक हत्याओं की प्रकृति का सर्वप्रथम सिलसिलेवार ब्योरा मिला। उसके बाद से सभी प्राइमेटोलॉजिस्ट मनुष्य की युद्ध प्रवृत्ति में लड़ाई के जीन का हाथ मानते हैं। चिम्पांजी बुद्धिमान, सामाजिक और हिंसक जानवर है। उनकी भी एक जटिल समाज व्यवस्था है। ये 10 से 180 व्यक्तियों की टोली बना कर सामुदायिक जीवन जीते हैं। ये भी संस्कृति अनुसार संलयन-विखंडन समाज रचना के आदी है। चिम्पांजियों का टोला उपसमूहों (विखंडन) में टूटता है और अलग-अलग जीवन सफर बनता जाता है वहीं कई बार कभी-कभी आपसी विलय होता है। एक साथ आते हैं (संलयन)। नर अपने जन्म समुदाय में लेकिन मादाएं पड़ोसी समुदायों में, प्रजजन की उम्र होने पर जा सकती हैं। जो हो, चिम्पांजी से मनुष्य को समझने का सरल वैज्ञानिक जेनेटिक तरीका मानवता को प्राप्त है। पृथ्वी के किसी गुमनाम से कोने के आदिवासी जीवन से भी यह जाना जा सकता है कि वे क्या वैसे ही वंशानुगत जीन से सामान्य जीवन जीते हुए नहीं हैं, जैसे चिम्पांजी की टोलियां जंगल में जिंदगी जीते हुए हैं। बुद्धि की संरचना में चिम्पांजी और मानव के फर्क और समानता का जहां सवाल है तो मोटा मोटी लगेगा कि मानव बुद्धि की कौतुकता ने सत्य को जैसे भेदा तो उससे उसका भागीरथ और भस्मासुर दोनों का वरदान बना है। (जारी)
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