बेबाक विचार

मानव बुद्धिः पहले पंख...फिर पिंजरे!

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मानव बुद्धिः पहले पंख...फिर पिंजरे!
त्रासद सत्य है जो पृथ्वी के आठ अरब लोग अपना स्वत्व छोड़ते हुए घोषणा करते हैं कि हम फलां-फलां बाड़े (195 देश) के लोग अपने पिंजरे में अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित हैं! तब मनुष्य और उसकी बुद्धि का खास होना क्या है? पृथ्वी का हर पशु ऐसे ही तो अपने समाज में अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित होता है। इसी तरह चिम्पांजी की टोलियां बनी हुई होती हैं। भेड़ें अपने झुंड में अपने आपको अर्पित किए रहती हैं। सुअर, बकरी, गाय, भैंस जैसा पूरा पशु धन ऐसे ही अपने बाड़े से अंगीकृत, अनुशासित (कथित तौर पर सुरक्षित) जीवन जीते हुए कसाइयों, शिकारियों, ठेकेदारों के आगे कतार लगाए खड़ा हुआ होता है। मनुष्य और चिम्पांजी जुड़वा हैं। दोनों 98.8 प्रतिशत एक जैसे जीन वाले प्राणी हैं। जैसे बाकी स्तनपायी पशु हैं वैसे ही दोनों खाने, सोने, सोचने, कम्युनिकेट व शरीर की क्रियाशीलता की दिनचर्या में जीवन गुजारते हैं। तब मनुष्य क्यों चिम्पांजी से अलग, पृथक लगता है? एक वजह मनुष्य की आत्ममुग्धता है। वह अपने आपको तुरर्म खां समझता है। दूसरे, प्राइमेट्स अवस्था और क्रमिक शारीरिक परिवर्तनों से मनुष्य शरीर की सचमुच कुछ खास खूबियां हैं। जैसे हर पशु विशेष शारीरिक खूबी से बिरला है वैसे मनुष्य पहचान भी है। जैसे उसका सीधे अपराइट खड़े होना। उसका नंगा शरीर याकि बालों से बिना ढके हुए। हाथ के उपयोग के लिए उंगलियों-अंगूठे की खास रचना। उसके द्वारा आग की खोज और उपयोग। बच्चों के धीरे-घीरे बड़े होने, कपड़े पहनने की आदत, शर्माने याकि भावाभिव्यक्ति, प्रजनन बाद भी मादा के लंबी उम्र जिंदा रहने और गले की विशेष रचना से बोलने-भाषण की क्षमता से मनुष्य पृथ्वी के एनिमल फार्म का नेता है। जाहिर है इन सबके पीछे बड़ा रोल मनुष्य की खोपड़ी का है। मष्तिष्क (सेरिब्रम) और उसके पीछे की गतिमान सेरिब्रैलम मोटर का कमाल है, जिससे प्राइमेट्स अवस्था से ही मनुष्य की चिम्पांजी गत प्रवृत्तियां धीरे-धीरे निखरीं और विकसित हुईं। दिमाग में जिज्ञासाओं के पंख बने। स्मृति, कल्पना बनी। मनुष्य की इंद्रियों में सेलेक्शन की समझ पैदा हुई। सवाल है मनुष्य की बुद्धि बाकि पशुओं से कैसे तेज दौड़ी? जुड़वा भाई चिम्पांजी कैसे पीछे रह गया? उसका मानसिक विकास क्यों नहीं मनुष्य जैसा है? एक जवाब जैविक रचना में जीन के 1.2 प्रतिशत अंतर का है। दूसरे, दोनों के अंतर को एक ही नर-मादा के अंडों से स्वस्थ बनाम मानसिक विकलांग की संतान के उदाहरण से भी समझ सकते हैं। जैविक रचना समान  होने के बावजूद यदि मनुष्यों में बायो भिन्नता वैज्ञानिक सत्य है तो लाखों साल के अनुभवों में चिम्पांजी बनाम होमो सेपियन की प्रवृत्तियों, मष्तिष्क, मानसिक गतिविधियों में फर्क बनना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। सेरिब्रल कोर्टेक्स का कमाल वैसे इस आश्चर्य का भी वैज्ञानिकों से जल्दी जवाब मिल जाना है। जैसे वैज्ञानिक जेनेटिक गहराइयों की तलहटी छान रहे हैं, वैसे ह्यूमन न्यूरोसाइंस भी मष्तिष्क के सेरिब्रल कोर्टेक्स के अनमेलिनेटड न्यूरॉन लेयर के ताने-बाने के अंतिम सत्य को जानने की कोशिश में है। मानव मष्तिष्क के निर्णायक बारीक-सघन ताने-बाने का नाम है सेरिब्रल कोर्टेक्स। ब्रेन मास का यह 80 प्रतिशित हिस्सा लिए होता है। इसमें कोई सौ अरब न्यूरॉन होते हैं। यहीं सोचने, समझने, रिजनिंग-भावना-संवेदनाओं, भाषा, कार्य निर्णय की जटिलताओं की क्रियाशीलता की मोटर है। पूरे शरीर में इस क्षेत्र का वजन भले सिर्फ दो प्रतिशत है लेकिन काम के लोड में यह शरीर के ईंधन की 25 प्रतिशत ऊर्जा का उपयोग करता है। उस सवाल पर लौटें कि मनुष्य बुद्धि कैसे अतुलनीय है? क्या यह किसी ईश्वरीय लीला का परिणाम है? नहीं, कतई नहीं! दूसरी बात, हम मनुष्य सचमुच आत्ममुग्धता में समझते हैं कि हम अतुलनीय हैं। हम जिस मनुष्य बुद्धि पर इतराते हैं, उसके परिप्रेक्ष्य में सोचें कि जैविक शरीर के वैयक्तिक जीवन को भला वह कौन सा स्वर्ग प्राप्त है, जिसे देख चिम्पांजी जुड़वा भाई से रंज करता हुआ होगा? उलटे वह मनुष्यों की दशा देख गमगीन होता होगा! पृथ्वी पर ऐसा दूसरा कोई पशु-प्राणी नहीं है, जिसने अपने पशु समाज में कैटल क्लास, बिजनेस क्लास, पायलट क्लास और आइंस्टीन क्लास बनाई हुई हो। इंसान बुद्धि होते हुए भी नहीं मानता है कि उसने मनुष्य के लिए नरक बनाए हैं। बुद्धि में नरक की जैसी जो कल्पनाएं हैं वे दरअसल पृथ्वी पर ही मनुष्य द्वारा मनुष्य की जिंदगी को नारकीय बनाने, त्रासदियों-चिंताओं, असुरक्षाओं में मनुष्यों के जीवन की रियल दास्तां हैं। बुद्धि का हवाई जहाज और सत्य सोचें, क्या है पिछले पांच हजार सालों के होमो सेपियन के सफर का अनुभव? उसने हवाई जहाज बना लिया लेकिन क्या सत्य नहीं कि आठ अरब लोगों में बहुसंख्यक मनुष्य हवाई चप्पल पहने पृथ्वी पर चल रहे हैं? उड़ने वालों में भी कितने कैटल क्लास वाले यात्री हैं और कितने बिजनेस क्लास वाले। कितने पायलट रूपी यांत्रिक मनुष्य हैं और कितने वे चंद (कुछ सौ, हजार की संख्या में) बुद्धि साधक, स्वतंत्र तपस्वी हैं, जिनकी बुद्धि से हवाई जहाज बना!  सचमुच पृथ्वी पर मौजूद आठ अरब लोगों और उनके पूर्वजों की जिंदगी के अच्छे-बुरे अनुभवों को तराजू पर तौलें और उन्हें बुद्धि के मानवीय ख्याल में कसें तो क्या नतीजा निकलेगा? मनुष्य की सामूहिक बुद्धि ने मनुष्य को ज्यादा दुख पहुंचाया है। मनुष्य बनाम मनुष्य में भेद बनवाया है। मनुष्यों में पशुगत प्रवृत्तियों में ढली अलग-अलग नस्ल, प्रजातियां बनी हैं। नतीजतन पृथ्वी के एनिमल फार्म में मनुष्य प्रजातियों की भिन्नताओं के कई बाड़ों का एक विशाल ह्यूमन बाड़ा है। मनुष्य ने शोषण, गुलामी, दासता, युद्ध, नरसंहार, चिंताओं, असुरक्षाओं, क्लेश-कलह की दुनिया बनाई। कोई कुछ भी माने असलियत है कि मानव सभ्यता कतई सभ्य नहीं है। आठ अरब मनुष्यों और उनके पूवर्जों में कितनों को देवलोक का सभ्य सुख-संतोष प्राप्त हुआ? कितने मनुष्य कथित मानव गरिमा, स्वतंत्रता और मानवाधिकारों से जिंदगी जीते हुए हैं। कितने शैक्षिक-सांस्कृतिक तौर पर समझदार और भद्र जन हैं? विषयांतर हो गया है। बुनियादी बात मनुष्य की बुद्धि से ह्यूमन बाड़े का विकास है। बाड़े चिम्पांजी, पशुओं के भी हैं। हर पशु जैविक रचना की अपनी विशिष्टताओं में जीवन जीता है। होमो सेपियन के दो लाख साला सफर की विशेषता यह है कि वैयक्तिक मनुष्य प्रकृति और प्रवृत्तियों में उसने धोखा खाया। मनुष्य निज स्वत्व, निज स्वतंत्रता, जिज्ञासा, स्मृतियों, कल्पनाओं का वैयक्तिक जीवन भूल गया। वह कहानियों का पात्र हो गया। कहानियों का गुलाम हो गया। वह कहानियों के अनुसार जिंदगी जीने लगा। वैयक्तिक जैविक प्रकृति अचानक ऐसे सामूहिक सोच-विचार में कन्वर्ट हुई कि वह पराधीन हो गया। मनुष्य ने दूसरे पशुओं के स्वभाव को बूझ-समझ कर अपने जंगल में अपने ही सहोदरों को पशुगत व्यवहार में बांधा। भेड़-बकरियों, गाय-भैंस, खरगोश-कछुए, शेर, सुअर, भेड़िए, भालू, हाथी-घोड़े, कुत्ते-बिल्ली, सांप, तोते, बाज, चिड़िया, कौआ और हंस आदि पशु-पक्षियों से सीख कर मनुष्य ने उनके पशु स्वभाव को अंगीकार किया। वह पशु स्वभावों का समुच्चय हो गया। यदि विज्ञान बताता है कि मनुष्य की हिंसा को देख कर, उससे सीख कर, उसके प्रभाव में चिम्पांजियों की उग्रता और हिंसा बढ़ी है तो तय मानें ऐसा जानवरों को देख कर, उनके बीच रहते हुए मनुष्य की प्रवृत्तियां भी बदलीं। पशु जगत के परिवेश से नववानर जन होमो सेपियन का क्रमिक विकास अपनी कैटल क्लास बनवाते हुए था। कोई आश्चर्य नहीं जो तमाम मानव सभ्यताओं ने पशुओं से मनुष्यों को सिखाने की बेइंतहां बोध कथाएं बनाई हैं। यदि शिक्षा से मनुष्य दिमाग बनता और बिगड़ता है तो पशुओं की बोध कथाओं का मनुष्य प्रवृतियों, बुद्धि पर क्या प्रभाव नहीं हुआ होगा? इस सिलसिले में बारीक, अहम और निर्णायक मसला है कि एक सी जैविक रचना लिए हुए मानव समाज के भीतर जैविक भिन्नताएं कैसे बनीं? तमाम पशुओं में यदि मनुष्य श्रेष्ठ है, बुद्धि लिए हुए है तो क्या ऐसा तो नहीं जो तमाम स्तनपायी (मैमल) पशुओं की प्रवृत्तियों के समुच्चय डीएनए होमो सेपियन की खोपड़ी में है? मनुष्य का जुड़वा चिम्पांजी दुष्ट, नीच (evil) नहीं है लेकिन मनुष्य है तो मनुष्य का यह स्वभाव किसी पशु से ही उसकी स्मृति में संग्रहित हुआ होगा। मनुष्य असुरक्षा और संहार की घनी प्रवृत्तियां कैसे लिए हुए है? मनुष्यों को भेड़-बकरी बनाकर उनका शेर, राजा बनना वैयक्तिक मनुष्य प्रवृत्ति का कैसे आइडिया हुआ, इसकी कहानियों में कई विवेचनाएं है लेकिन विज्ञान की विवेचना अभी होनी है। तभी बहुत जरूरी है कि जेनेटिक बुनावट के सत्य में जैविक भिन्नताओं का सत्य बारीकी से उद्घाटित हो! होमो सेपियन तब और अब फिलहाल कहा जा सकता है कि होमो सेपियन का सफर जैविक रचना और मष्तिष्क के बल से है तो पिछले छह हजार सालों की मनुष्य करनियों से भी है। मनुष्य को समझने के लिए जरूरी है कि प्राइमेट्स के बाद से होमो सेपियन के दो लाख साल के सफर को दो हिस्सों में बांटें। पहला हिस्सा एक लाख चौरानवे हजार साल में वैयक्तिक बुद्धि की वैयक्तिक इंसानी उपलब्धियों के सफर का है। दूसरा चरण ईसा पूर्व चार हजार साल पहले सुमेर, मिस्र के इलाके में वैयक्तिक बुद्धि के सामूहिक बुद्धि में रूपांतरण से व्यवस्थाओं के निर्माण शुरू होने के बाद का है। सामूहिक बुद्धि का विकास, वैयक्तिक मनुष्य व्यवहार व बुद्धि को करप्ट करने वाला है। ईसा पूर्व चार हजार साल पहले होमो सेपियन निज बुद्धि-प्रवृत्ति के वैयक्तिक स्वतंत्र स्वभाव से पृथ्वी पर मनुष्यों को फैलाते हुए था। आग, औजार से लेकर आखेट, पशुपालन, खेती, ताम्र, कांस्य, लौह युग तक मनुष्य, परिवार, कबीलों की बस्ती, गांव तक का वह विकास बना चुका था जो बुनियादी तौर पर हंस-परमहंस के स्वतंत्रचेता पखों की उड़ान की वजह से था। लेकिन इसके बाद दूसरे चरण के शुरू सफर से स्वतंत्र चेतना की मूल प्रवृत्ति के पंख कटे। मनुष्य सामूहिक उड़ान का हिस्सा हो गया। व्यवस्थागत राजाओं, तलवारों का मारा हो गया।? वह अलग-अलग तरह की क्लास में बंट कर बेरहम ठेकेदारी प्रथा का शिकार हुआ। पराश्रित और पालतू बना। कई तरह की चारदिवारियों के उसके पिंजरे बने। उनमें वह बंधुआ जीवन जीते हुए था। सबके पीछे तर्क था कि मनुष्य की इसी में बेहतरी है कि वह सामुदायिकता में रहे। संस्कारी बने। अपने को खोजे। अपनी आत्मा तलाशे। अपनी व्यवस्था बनाए। वह सच्चा जीना सीखे। किसकी तरह? पशु की तरह। अरस्तू ने मनुष्य को राजनीतिक पशु समझा तो इसलिए क्योंकि सामूहिक जीवन के रूपांतरण और फिर उसमें मनुष्यों के परस्पर व्यवहार में पशुओं की प्रवृत्ति का प्रकटीकरण समझ आने वाला था। वक्त के साथ कभी मनुष्य की सामाजिक एनिमल की महत्ता तो कभी धार्मिक एनिमल, कभी नस्लीय, सभ्यतागत प्राणी की चारिदवारियों और कहानियों में मनुष्य की व्याख्या हुई। लोग कहानियों में जीने वाली भेड़-बकरियां हो गई। उनके बाड़े गड़ेरियों के स्वामित्व और शोषण की नई विकास रचना। धीरे-धीरे देशकाल की भिन्नताओं में होमो सेपियन पिंजरों के अधीन जीने के स्वभाव में ढलते गए। बाड़ों को अर्पित मनुष्य त्रासद सत्य है जो पृथ्वी के आठ अरब लोग अपना स्वत्व छोड़ते हुए घोषणा करते हैं कि हम फलां-फलां बाड़े (195 देश) के लोग अपने पिंजरे में अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित हैं! तब मनुष्य और उसकी बुद्धि का खास होना क्या है? पृथ्वी का हर पशु ऐसे ही तो अपने समाज में अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित होता है। इसी तरह चिम्पांजी की टोलियां बनी हुई होती हैं। भेड़ें अपने झुंड में अपने आपको अर्पित किए रहती हैं। सुअर, बकरी, गाय, भैंस जैसा पूरा पशु धन ऐसे ही अपने बाड़े से अंगीकृत, अनुशासित (कथित तौर पर सुरक्षित) जीवन जीते हुए कसाइयों, शिकारियों, धूर्त ठेकेदारों के आगे कतार लगाए खड़ा हुआ होता है। सोचें, जिन प्राणियों का पिंजरों, बाड़ों, कहानियों में जीने का सामूहिक स्वभाव बन गया है उनका जीवन यांत्रिक मशीन का हो या कैटल क्लास, बिजनेस क्लास, पायलट क्लास वाला, फर्क क्या पड़ता है। है तो पशुगत जीवन! निश्चित ही मेरी विवेचना मनुष्य के विकासवाद के निगेटिव परिणामों की भुलभुलैया है। मनुष्य का अहम, आत्ममुग्धता और उपलब्धियों की भौतिक प्राप्तियों, मंशीनों, जंजालों, भावनाओं और अनुभवों की रंगीनी की स्मृतियों वाला दिल-दिमाग नहीं मानेगा कि होमो सेपियन के सफर का दूसरा चरण इतना बुरा है, जितना मैंने ऊपर लिखा है। मनुष्य खोपड़ी का सामूहिक सेरिब्रैलम यह तर्क लिए हुए है कि मनुष्य की सामाजिक पशुता से उत्सव, उल्लास, उमंग की तरंगें बनती हैं। राजनीतिक पशुता से मनुष्य पृथ्वी का विजयी प्राणी है। युद्ध से लोग करोड़ों में मरे हों लेकिन हर युद्ध विज्ञान-तकनीक, प्रतिस्पर्धा और विकास की चिंगारी होता है। सोचें दूसरे महायुद्ध के बाद कैसे-कैसे विकास हुए। जहां परमाणु हथियार बने वहीं विज्ञान अंतरिक्ष को भेदता हुआ है। ऐसे ही शोषण है तो समृद्धी है। इससे कुबेर पैदा हुए हैं। डिमांड-सप्लाई चक्रवर्ती रफ्तार से बढ़ते हुए चौतरफा विकास बनवाते हुए है। दुनिया में देशों-बाड़ों का नाम हो रहा है। खुशहाली बन रही है। उफ! मनुष्य बुद्धि का जवाब नहीं है। अपना सर्वस्व गंवा कर, पांच हजार साल पराधीनता, पशु प्रवृत्तियों के लगातार अलग-अलग तरह के अनुभवों और प्रलय के मुहाने के बावजूद यह आत्ममुग्धता कि कुछ भी हो वह (मनुष्य) दूसरे ग्रह में बसने, वहां वह अपना नया पिंजरा बनाने की एवरेस्ट उंचाई पर है! (जारी)
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