बेबाक विचार

प्रमोद की मां का देहांत और तालाबंदी

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प्रमोद की मां का देहांत और तालाबंदी
एक समय था जब हमारी पूरी जिंदगी ही कहावतों व मुहावरों से भरी हुई थी या कहा जाए कि जिंदगी उन्हीं के सहारे चलती थी। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में तालाबंदी लागू करने का ऐलान किया तो एक पुरानी कहावत याद आ गई कि 'जाके पांव न फटी बिवाई वो क्या जाने पीर परायी'। आज कल की पीढ़ी को तो शायद बिवाई के बारे में भी नहीं पता होगा। जब हम लोग छोटे थे व अक्सर चप्पल पहन कर घूमते थे तो जाड़ों के मौसम व धूल के कारण हमारे पैरों के तलवे के चारो ओर की खाल फट जाती थी। काफी दर्द देती थी। इसे बिवाई कहते थे। अब कि यह समस्या कम हो गई अथवा लोगों ने चप्पलों की जगह जूते पहन कर घूमना शुरु कर दिया है। यह कहावत आज भी कई बार खरी उतरती है जिस पर बीतती है। इस दिनों सबका घर से आना जाना एकदम बंद सा है। हुआ यह कि घर के पुराने सेवक प्रमोद के घर से खबर आयी कि उसकी मां का देहांत हो गया है। वह दशकों से परिवार के सदस्य की तरह हमारे साथ ही रह रहा था। वह उत्तराखंड के टिहरी गड़वाल का रहने वाला है। वह व उसके चार भाई दिल्ली व उसके आसपास के शहरों गुरुग्राम आदि में नौकरी करते हैं। उसके पिता का पहले ही निधन हो चुका है। खबर के बाद समस्या उसके टिहरी जाने की थी। वह काफी स्मार्ट है व उसने संपर्को के जरिए बात करनी शुरु कर दी। मेरे लिए असली समस्या यह थी कि देश में इस व्यापक बंद के कारण बसें, रेलगाड़ियां सभी निजी व सार्वजनिक वाहनों का चलना बंद कर दिया गया है। अब वह टिहरी गढ़वाल जाकर अपनी मां का अंतिम संस्कार कैसे करता? पहले अपने संबंधों से इस समस्या का हल निकालने की कोशिश की तो एक आला अधिकारी ने भाजपा के एक नेता का फोन नंबर देते हुए मुझे कहा कि वह टीवी चैनलों पर दावा कर रहे है कि उनकी सरकार ने सबको उनके घर भेजने का प्रबंध कर दिया है। अब वे ही तुम्हारी मदद करेंगे। राज्य सरकार के हालत तो बहुत खराब है। जब मैंने उन सज्जन से संपर्क किया तो उन्होंने मेरी मदद करने का भरोसा देते हुए मुझे दो नंबर देकर शाम 7 बजे फोन करने को कहा। उसके बाद उनका नंबर ही बंद हो गया। मैं उनकी स्थिति समझ सकता था। अतः मैं कुछ और जुगाड़ करने में लग गया। मैंने अपने वरिष्ठ पत्रकार मित्र मनमोहन को फोन किया व उन्होंने मुझे उत्तराखंड के एक वरिष्ठ पत्रकार व वहां की राजनीति व पत्रकारिता में दखल रखने वाले कुशालजी का फोन नंबर दिया। मैंने उन्हें तुरंत संपर्क किया व उन्होंने अधिकारी श्री रावत का फोन नंबर देकर मुझे उनसे बात करने को कहा। मैंने श्री रावत व कुशालका जिक्र करते हुए बात की। उन्होंने भी हर तरह से मदद करने का वादा करते हुए मुझे पूरा विवरण भेजने को कहा। उनका कहना था अभी उत्तराखंड से आने वाली गाड़ियां वापस नहीं आयी है। शाम7 बजे के लगभग गाड़ी आने पर बात करेंगे। फिर पता चला कि प्रमोद को अपने चारो भाइयों के साथ जाना था। वे लोग एक टेक्सीवाले से बात कर रहे थे जो कि हर साल गांव लेकर जाया करता था। उसने अपने गांव के एक पुलिस अधिकारी से संपर्क कर उसकी गाड़ी के लिए कर्फ्यू पास तैयार करने का अनुरोध किया। उसका कहना था कि हम लोग रात को ही निकल जाए क्योंकि बस तो कल सुबह जाएगी व हम लोग अंतिम संस्कार में नहीं पहुंच पाएंगे। रात को  में काफी देर हो गई व 12 बजे जाने के कारण पास की अवधि समाप्त हो गई। खैर उसका पुनः कर्फ्यू पास तैयार करवाया। लिखना भूल गया कि पहले वाला पास एक पुलिस वाला खुद घर देने आया था। जब टीवी पर पुलिस के लोगों की पिटाई करते हुए देखा जा रहा था तब पुलिस द्वारा घर पर कर्फ्यू पास पहुंचने के इस घटना ने मुझे बहुत द्रवित कर दिया। नींद खराब हो चुकी थी। टीवी देख रहा था। पत्नी ने बताया कि बुलंदशहर में पुलिस ने बसें व वाहन रोककर लोगों को उतारकर खदेड़ दिया है। अतः काफी चिंता हो गई। खैर प्रमोद अपने भाईयो के साथ गांव रवाना हुआ और मैं सारी रात मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करता रहा कि वे लोग ठीक ठाक समय पर घर पहुंच जाए। दोपहर में सोकर उठा तो पत्नी ने बताया कि उसकी बात हो गई है। वह सीधा श्मशान ही अपनी मां के पार्थिव शरीर के पास पहुंचा। संयोग से मनमोहन जी ने ऐसी ही एक खबर भेजी थी जिसमें अपने पिता के शव को उसका गुजरात के सूरत में फंसा बेटा समय पर सिरसा गांव न पहुंचने के कारण कंधे भी नहीं दे सका। उसके न पहुंचने के कारण गांव वालों ने उसके पिता का दाह संस्कार कर दिया। इस अनुभव पर सोचता रहा कि जिस प्रधानमंत्री ने कभी अच्छे दिन लाने का वादा किया था उनके राज में नोटबंदी के बाद दोबारा इस तरह के दिन देखने पड़ रहे है। पत्नी का शुरु से कहना रहा है कि जिसका अपना घर परिवार न हो उसे संबंधों का क्या पता। अगर उसके बीवी बच्चे होते तो पता चलता कि काम वाली के न आने से किस तरह की दिक्कतें झेलनी पड़ती है। प्रधानमंत्री को घर साफ व झाड़ू पोंछा लगाना तो दूर रहा। दूध व सब्जी लाने तक की दिक्कतें नहीं देखनी पड़ती है। उसके यहां तो काम करने वाले लोगों की फौज होती है। डाक्टर उसे देखने के लिए घर आते है और वह कही भी जाना चाहे उसके लिए कारों से लेकर विमानों तक का बेड़ा तैयार रहता है। इससे बड़ी दुखद बात क्या हो सकती है कि हमारे देश में इस समय यह कहावत पूरी तरह से सही लागू होती है 'जब प्यास लगे तक कुंआ खोदना'। देश के हर काम की ब्लू बुक होती है जिसमें तमाम हालतों का जिक्र करते हुए यह प्रशिक्षण दिया गया होता है किस समस्या का समाधान कैसे निकालना है। मगर हमारे यहां इतने बड़े मर्ज से निपटने के लिए कोई तैयारी नहीं। अब खून परीक्षण के प्रबंध किए जा रहे हैं। हमारे शासक सच्चाई से कितने दूर होते है व लोगों की समस्याओं को कितनी गंभीरता से लेते है इसका उदाहरण इस किस्से से मिल जाता है। एक बार दर्जनों पैर वाले कनखजूरे की एक टांग टूट गई व वह दर्द से बिलबिलाता हुआ तत्कालीन पशु पक्षियों के राजा उल्लू के पास पहुंचा व उल्लू उसकी सारी बातें सुनकर कहने लगा कि मैं तो दो मिनट में तुम्हारी समस्या हल कर दूंगा। तुम तुंरत उल्लू बन जाओ। ऐसा करने से तुम्हारी आगे की दोनों टांगे रह जाएंगी व तुम्हारा दर्द गायब हो जाएगा। जब कनखजूरा पूछने लगा कि मैं उल्लू कैसे बन जाऊं तो वह कहने लगा कि अब सब मुझे ही करना व बताना होगा। कुछ अपना दिमाग भी लगाओ। कई बार लगता है कि भारत के हम लोग उसी तरह के शासन में जी रहे हैं। बस, टेलीफोन के सहायता नंबर नोट करते रहिए और राजा व राज्य के शतायु होने की प्रार्थना करते रहिए।
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