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मानस के बहाने मंडल राजनीति की वापसी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जुलाई 2021 में जब अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया था तब बहुत गर्व से उन्होंने बताया था कि उनकी सरकार में 47 मंत्री पिछड़े, दलित और आदिवासी समुदाय के हैं। उनकी सरकार में 27 मंत्री पिछड़े समुदाय के हैं, 12 मंत्री अनुसूचित जाति और आठ अनुसूचित जनजाति के मंत्री हैं। मंत्रिमंडल में फेरबदल के बाद जब वे संसद में नए मंत्रियों का परिचय करा रहे थे तो विपक्ष के हंगामे का जवाब देते हुए उन्होंने कहा, ‘मैं सोच रहा था कि आज सदन में उत्साह का वातावरण होगा क्योंकि बहुत बड़ी संख्या में हमारी महिला सांसद, एससी-एसटी समुदाय के भाई, किसान परिवार से आए सांसदों को मंत्री परिषद में मौका मिला है। उनका परिचय करने का आनंद होता, लेकिन शायद देश के दलित, महिला, ओबीसी, किसानों के बेटे मंत्री बनें ये बात कुछ लोगों को रास नहीं आती है। इसलिए उनका परिचय तक नहीं होने देते’। इसके बाद कहा जाने लगा था कि मंडल से निकली पार्टियों की बजाय भाजपा अब मंडल की राजनीति कर रही है।

क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह अंदाजा था कि आने वाले दिनों में मंडल राजनीति की वापसी हो सकती है और तब कमंडल यानी मंदिर की राजनीति के बरक्स जातियों को खड़ा किया जाएगा, इसलिए उन्होंने पहले ही अपनी और भाजपा की पोजिशनिंग मंडल राजनीति वाली कर दी थी? यह सवाल इसलिए है क्योंकि देश के दो सबसे बड़े राज्यों और मंडल राजनीति के केंद्र रहे बिहार व उत्तर प्रदेश में मंडल की राजनीति लौटी है और इस बार ज्यादा आक्रामक तरीके से लौटी है। इस बार मंडल की पार्टियां मंदिर राजनीति से सीधी टक्कर ले रही हैं। वे उसके बीच अपनी जगह नहीं तलाश रही हैं, बल्कि उससे टकरा कर हमेशा के लिए अपनी स्थायी जगह बनाने की राजनीति कर रही हैं। इस राजनीति के तहत अयोध्या में राममंदिर के निर्माण को चुनौती नहीं दी गई है, बल्कि राम कथा कहने वाले ग्रंथ रामचरित मानस को चुनौती दी गई है। जिस ग्रंथ से राम की कथा जन जन तक पहुंची है उस ग्रंथ को ही पिछड़ा व दलित विरोधी बता कर विवादित बना देने की राजनीति हो रही है।

असल में इन दोनों राज्यों की मंडल की पार्टियों यानी राजद, जदयू और समाजवादी पार्टी के सामने जब कोई रास्ता नहीं बचा तो उनको यह रास्ता पकड़ना पड़ा है। इसका रास्ता उत्तर प्रदेश में भाजपा को लगातार दूसरी बार मिली जीत से खुला है। पहली बार यानी 2014 में समाजवादी पार्टी हारी थी और भाजपा की सरकार बनी थी तो उसे नरेंद्र मोदी की लहर माना गया था। लेकिन जब दूसरी बार और वह भी किसी पिछड़े नेता के चेहरे पर नहीं, बल्कि हिंदुत्व के अगड़े चेहरे के दम पर भाजपा पूर्ण बहुमत से जीती तो मंडल की राजनीति का एक बड़ा गढ़ टूट जाने का दो टूक संदेश निकला। इस संदेश को सबसे पहले और सबसे ज्यादा गंभीरता से नीतीश कुमार ने पकड़ा। उन्होंने मार्च 2022 में उत्तर प्रदेश के नतीजों के तुरंत बाद भाजपा से अलग होने की प्रक्रिया शुरू की और अगस्त में भाजपा से अलग होकर राजद के साथ सरकार बना ली। अब उन्होंने दो टूक अंदाज में कहा है कि ‘मर जाएंगे पर भाजपा के साथ नहीं जाएंगे’।

भाजपा से अलग होना और राजद के साथ मिल कर सरकार बनाना बिहार में मंडल की राजनीति को बचाने का अंतिम प्रयास है। इसी प्रयास के तहत अब रामचरित मानस को निशाना बनाया जा रहा है। उसे पिछड़ा और दलित विरोधी ग्रंथ ठहराया जा रहा है। उसे बकवास बता कर उस पर पाबंदी लगाने की मांग हो रही है। पहले तो राजद और समाजवादी पार्टी की दूसरी कतार के नेताओं ने यह बात उठाई लेकिन अब खुद अखिलेश यादव ने खुल कर इस पर सवाल उठाया है। उन्होंने रामचरित मानस की चौपाई, ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी सकल ताड़ना के अधिकारी’ का जिक्र किया है और कहा है कि, ‘मैं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से पूछूंगा कि मैं शूद्र हूं या नहीं’? उन्होंने यह भी कहा कि वे किसी और नेता से यह सवाल नहीं पूछते लेकिन चूंकि मुख्यमंत्री एक धार्मिक स्थान से उठ कर आए हैं इसलिए उनसे जरूर पूछेंगे। कहने की जरूरत नहीं है कि यह सवाल पूछने का क्या मतलब है।

यह इकलौती चौपाई नहीं है, जिसको लेकर विवाद हो रहा है। मंडल की राजनीति करने वाली पार्टियों के लिए थिंकटैंक के तौर पर काम करने वाले दिल्ली के एक पूर्व पत्रकार ने सोशल मीडिया में बताया है कि कुल 135 लाइनें रामचरित मानस में ऐसी हैं, जिनमें जातियों का जिक्र है। इनमें हर जगह ब्राह्मण की तारीफ की गई है और पिछड़ी जातियों को नीचा दिखाया गया है। राम कथा के इस आधार ग्रंथ को पिछड़ा व दलित विरोधी ठहरा कर इसके सहारे हिंदुत्व की राजनीति की धार कमजोर की जा रही है। साथ ही पिछड़ों की गोलबंदी कराने का प्रयास हो रहा है। हालांकि यह बहुत जोखिम भरा काम है क्योंकि मानस को हिंदू मन मस्तिष्क से निकालना आसान नहीं है। यह भी संभव है कि यह दांव उलटा पड़ जाए। उत्तर प्रदेश विधानसभा में सोशलिस्ट पार्टी के विधायक रामपाल सिंह यादव ने 1974 में विधानसभा के अंदर रामचरित मानस के पन्ने फाड़ डाले थे। इसके बाद उनको रामायण फाड़ यादव कहा जाने लगा था। लेकिन वे 1977 की जनता लहर में भी चुनाव हार गए और फिर कभी नहीं जीते। हालांकि तब से अब तक गंगा-जमुना और सरयू में काफी पानी बह चुका है। उसके बाद मंडल की रिपोर्ट लागू हुई थी और उसकी काट में कमंडल यानी मंदिर की राजनीति लालकृष्ण आडवाणी ने तेज की थी। अब मंदिर और हिंदुत्व की राजनीति की काट में मंडल राजनीति की वापसी हो रही है।

रामचरित मानस के विरोध के साथ साथ इस राजनीति का दूसरा पहलू जाति जनगणना है। बिहार में जातियों की गिनती शुरू हो गई है। इसके आंकड़े इस साल के मध्य तक या उसके बाद कभी भी आ सकते हैं। उससे राजनीति में नए किस्म का ध्रुवीकरण होगा। हिंदुत्व के नाम पर होने वाले ध्रुवीकरण के बरक्स जातियों की गोलबंदी होगी। एक अनुमान के मुताबिक 52 से 54 फीसदी आबादी पिछड़ी जातियों की है। अगर इसका बड़ा हिस्सा मंडल की राजनीति करने वाली पार्टियों के साथ एकजुट होता है और उसके साथ मुस्लिम जुड़ते हैं तो उससे चमत्कारिक समीकरण बनेगा। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा उसकी काट में हिंदुत्व का ही कार्ड ज्यादा आक्रामक तरीके से चलती है या नरेंद्र मोदी ने पिछड़ा, दलित राजनीति की बिसात पर जो मोहरे सजाए हैं उनको आगे बढ़ाती है? लोकसभा चुनाव में अभी 13-14 महीने बचे हैं। इस अवधि में मंडल राजनीति का और नया स्वरूप बिहार व उत्तर प्रदेश में देखने को मिलेगा। उसका जवाब देने के लिए भाजपा जो पहल करेगी वह भी काफी दिलचस्प होगी। आखिर इन दो राज्यों की 120 लोकसभा सीटों में से भाजपा के पास 79 और उसकी सहयोगियों के पास आठ सीटें हैं। वह इसे आसानी से नहीं छोड़ेगी।

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