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राम के बाद अब मानस पर राजनीति

भारत में कोई भी चीज राजनीति की परिधि से परे नहीं है और कोई भी चीज इतनी पवित्र नहीं है कि उस पर राजनीति न हो। पिछले तीन दशक से ज्यादा समय से भारत की राजनीति के केंद्र में भगवान राम रहे हैं। और अब रामचरित मानस पर राजनीति हो रही है। यह भी संयोग है कि जब से केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर के उद्घाटन की तारीख बताई है तब से रामचरित मानस को निशाना बनाना बढ़ गया है। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के नेता और राज्य सरकार के मंत्री चंद्रशेखर ने रामचरित मानस की एक चौपाई का उदाहरण देकर कहा कि यह समाज में विद्वेष फैलाने वाला ग्रंथ है। इसके थोड़े दिन बाद ही उत्तर प्रदेश की मुख्य विपक्षी समाजवादी पार्टी के एक बड़े नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने एक दूसरी चौपाई की मिसाल देकर कहा कि यह एक बकवास ग्रंथ है और इस पर पाबंदी लगा देनी चाहिए।

इन दो नेताओं के बयानों के बाद रामचरित मानस को लेकर जो विवेचना और राजनीतिक या अराजनीतिक व्याख्या शुरू हुई है उसके दो पहलू हैं। पहला बौद्धिक है और दूसरा राजनीतिक। अगर बौद्धिक व्याख्या के नजरिए से देखें तो यह विशुद्ध बेहूदगी है कि कहीं से दो चार लाइन उठा कर उस आधार पर किसी रचना का मूल्यांकन किया जा रहा है। किसी भी रचना का मूल्यांकन समग्रता में ही किया जा सकता है। रामचरित मानस में 1,073 चौपाइयां हैं और करीब 13 हजार लाइनें हैं। इनमें से दो-चार चौपाई निकाल कर रचना का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। इस रचना को लेकर किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले इसके मूल और मर्म को समझने की जरूरत है।

यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि हम पांच सौ साल पहले लिखी गई एक रचना का मूल्यांकन कर रहे हैं और उसके लिए आधार बना रहे हैं समकालीन सामाजिक मूल्यों को। बिहार के चंद्रशेखर या उत्तर प्रदेश के स्वामी प्रसाद मौर्य जिस सामाजिक या राजनीतिक चेतना का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं वह पिछली दो सदियों में उत्पन्न हुई है और भारत में उस चेतना के प्रसार के एक सदी भी नहीं हुए हैं। कार्ल मार्क्स के वैज्ञानिक समाजवाद की अवधारणा भी दो सौ साल पुरानी नहीं है। फ्रांस की गौरवशाली क्रांति, जिससे समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे का सिद्धांत निकला वह क्रांति भी ढाई सौ साल पुरानी है। मानवाधिकार, स्त्री अधिकार, बाल अधिकार, पशु अधिकार आदि का सिद्धांत तो पिछली सदी में ही पैदा हुआ है और फल-फूला है। फिर इन मूल्यों या उनसे पैदा हुई सामाजिक चेतना की पृष्ठभूमि में मानस का आकलन कैसे किया जा सकता है? मार्क्स के ‘दास कैपिटल’ लिखने के कोई साढ़े तीन सौ साल पहले, फ्रांस की क्रांति के तीन सौ साल पहले और अधिकारों की आधुनिक अवधारणा के कोई चौर सौ साल पहले तुलसीदास ने रामचरित मानस की रचना की थी।

तुलसीदास जब मानस की रचना कर रहे थे तब उनके सामने तत्कालीन समाज व्यवस्था थी और निश्चित रूप से उसका असर उनकी रचना पर है। आज के संदर्भ में उस रचना की कुछ बातें अप्रासंगिक लगती हैं और कहीं कहीं कुछ समुदायों के लिए अपमानजनक भी लगती हैं। लेकिन आधुनिक संदर्भ या समकालीन सामाजिक मूल्य किसी प्राचीन ग्रंथ के मूल्यांकन का आधार नहीं हो सकते हैं। इस रचना की आलोचना करने वालों को यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी सत्ता या सरकार ने मानस का प्रचार-प्रसार नहीं किया है। जिस समय तुलसी इसकी रचना कर रहे थे उस समय देश में मुगल शासन था और अकबर बादशाह का राज था। कहीं भी इस बात का संदर्भ नहीं मिलता है कि अकबर बादशाह ने या बाद में उनके वंशजों ने या उसके बाद अंग्रेजों ने या आजाद भारत में कांग्रेस, भाजपा की किसी सरकार ने मानस का प्रचार किया हो। तुलसी की यह रचना स्वंयस्फूर्त तरीके से लोगों तक पहुंची है। आज अगर हर हिंदू घर में लाल कपड़े में लपेट कर रामचरित मानस की प्रति रखी गई है तो उसका कारण राज्याश्रय नहीं है, बल्कि वह उस रचना के कालातीत होने और व्यापक समाज में सहज स्वीकार्य होने की वजह से है।

मानस की आलोचना करने वालों को अगर विश्व वांग्मय की जरा सी भी जानकारी होती तो वे जान रहे होते कि दुनिया के अनेक महान लेखकों की रचनाओं पर तत्कालीन समाज व्यवस्था का असर रहा है। उन्होंने सहज रूप से स्त्रियों और गुलामों को लेकर ऐसी बातें लिखी हैं, जो आज स्वीकार नहीं की जा सकती हैं। परंतु इस आधार पर उनकी रचनाओं का आकलन नहीं होता है। भारत में ही हिंदी के सबसे महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद की कई रचनाओं में महिलाओं और दलितों को लेकर जैसी बातें लिखी गई हैं उस आधार पर अगर उनका मूल्यांकन हो तो उनको भी स्त्री या दलित विरोधी ठहराया जा सकता है। इसलिए प्राचीन ग्रंथों को आधुनिक सामाजिक मूल्यों या चेतना की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता है। आज के संदर्भ में अगर उसकी बातें प्रासंगिक हैं तो संभव है कि कुछ बातें पूरी तरह से अप्रासंगिक हों।

तुलसीदास पर जातिवादी होने और पिछड़ा व दलित विरोधी होने का आरोप लगा रहे नेताओं को सोशल मीडिया के कुछ बौद्धिकों का समर्थन भी मिला है, जिनमें से एक बौद्धिक ने तुलसीदास को तुलसीदास दुबे लिख कर बताया है कि वे ब्राह्मण थे। सोचें, यह कैसी विडंबना है कि जो लोग तुलसीदास से यह उम्मीद कर रहे हैं कि पांच सौ साल पहले उनकी सोच में जातिवाद नहीं होना चाहिए था, वे खुद पांच सौ साल बाद सिर्फ जाति की बात करते हैं! ऐसे तमाम बौद्धिकों का सारा आकलन जाति आधारित होता है।

बहरहाल, मानस की व्याख्या का कोई भी बौद्धिक आधार तर्कसंगत नहीं है। तभी रामचरित मानस को लेकर शुरू हुए विवाद को विशुद्ध रूप से राजनीतिक कसौटी पर देखने की जरूरत है। सोचें, यह कैसा संयोग है कि जिन दो राज्यों में अभी मंडल की राजनीति बची हुई है और जो दो पार्टियां इस राजनीति की चैंपियन हैं उन्हीं के नेताओं ने मानस की आलोचना शुरू की है। जिस तरह से मंडल आयोग की सिफारिशों की चुनौती का मुकाबला करने के लिए कमंडल यानी मंदिर की राजनीति तेज हुई थी उसी तरह आज मंदिर की राजनीति के मुकाबले मानस पर विवाद छेड़ा गया है। धर्म के आधार पर हिंदू समाज का ध्रुवीकरण कराने के प्रयास में लगी भाजपा की राजनीति की काट में बिहार में राजद और उत्तर प्रदेश में सपा ने रणनीति के तहत जाति की राजनीति को बढ़ावा देना शुरू किया है। मानस की आलोचना करने वाले मान रहे हैं कि वे इस ग्रंथ को जातिवादी ठहरा देंगे और पिछड़ा व दलित विरोधी ठहरा देंगे तो अपने आप राम व मंदिर का मुद्दा और व्यापक रूप से हिंदुत्व का मुद्दा फेल हो जाएगा। हो सकता है कि लंबे समय तक इस प्रचार का कुछ असर हो लेकिन मानस की जैसी स्वीकार्यता है उसे देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता है कि यह काम तत्काल हो जाएगा।

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