बेबाक विचार

अदालत के सहारे चुनाव आयोग में सुधार!

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अदालत के सहारे चुनाव आयोग में सुधार!
चुनाव आयोग को लेकर सुप्रीम कोर्ट के सवाल बिल्कुल जायज हैं। उसके सरोकार भी पूरी तरह से सही हैं। लेकिन सुधार का जो तरीका बताया जा रहा है वह बहुत तर्कसंगत नहीं है। न्यायपालिका के जरिए चुनाव आयोग जैसी संस्था में सुधार संभव नहीं है। अगर इससे कोई सुधार होता भी है तो वह तात्कालिक होगा और आयोग के कामकाज में गुणात्मक बदलाव लाने वाला नहीं होगा। असल में चुनाव आयोग की समस्या बहुआयामी है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ अभी जो मामला सुन रही है या जो टिप्पणी की है वह आयुक्तों की नियुक्ति और मुख्य चुनाव आयुक्त के कार्यकाल से जुड़ी है। तभी अदालत ने यह सुझाव दिया कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए उच्च न्यायपालिका की तरह एक कॉलेजियम बने, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस भी शामिल हों। अगर इस सुझाव का समर्थन किया जाता है तो फिर बात काफी आगे बढ़ जाएगी और कई संस्थाएं इसके दायरे में आ जाएंगी और उसके बावजूद सुधार होगा, इसकी गारंटी नहीं होगी। मिसाल के तौर पर सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति एक कॉलेजियम यानी कमेटी के जरिए होती है, जिसमें प्रधानमंत्री के साथ साथ नेता विपक्ष और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस या उनकी ओर से अधिकृत किया गया सर्वोच्च अदालत का कोई जज शामिल होता है। इसके बावजूद क्या सीबीआई निदेशक की नियुक्ति पूरी तरह से वस्तुनिष्ठ और राजनीतिक दखल से मुक्त हो पाई है? सीबीआई के मौजूदा निदेशक सुबोध जायसवाल की नियुक्ति के समय कमेटी की बैठक में तत्कालीन चीफ जस्टिस एनवी रमना ने सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का हवाला दिया था और कहा था कि जिन अधिकारियों का कार्यकाल छह महीने से कम बचा है उनके नाम पर इस पद के लिए विचार नहीं किया जाए। इस वजह से राकेश अस्थाना और वाईसी मोदी के नाम रेस से बाहर हो गए थे। सो, कमेटी में चीफ जस्टिस के होने से यह फायदा हुआ लेकिन इससे सीबीआई की स्थिति कहां सुधरी। वह तो अब भी सरकार का तोता ही है! ऊपर से अगर यह सिस्टम लागू हुआ तो हर जगह कॉलेजियम बनाने का पंडोरा बॉक्स खुल जाएगा। जैसे अभी से यह मांग उठने लगी है कि उच्च न्यायपालिका में नियुक्ति व तबादले के लिए बने कॉलेजियम में कानून मंत्री और नेता विपक्ष को भी शामिल किया जाए? क्या न्यायपालिका इसके लिए तैयार होगी? सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की कमियों को सही पहचाना है। जस्टिस केएम जोसेफ ने सही पूछा कि क्या किसी चुनाव आयुक्त ने प्रधानमंत्री के खिलाफ कार्रवाई की है या अगर प्रधानमंत्री के खिलाफ शिकायत आ जाए तो चुनाव आयुक्त या मुख्य चुनाव आयुक्त क्या कार्रवाई करेंगे? यह भी सही है कि चुनाव आयोग पूरी तरह से सरकार की हां में हां मिलाने वाली संस्था हो गई है। लेकिन ऐसा होने का कोई एक कारण नहीं है। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का तरीका, चुनाव आयोग का सांस्थायिक ढांचा, संविधान से मिले उसके अधिकार और सबसे ऊपर नियुक्त होने वाले अधिकारियों की ईमानदारी और साहस इसके लिए जिम्मेदार हैं। आखिर अशोक लवासा भी इसी सिस्टम से चुनाव आयुक्त बने थे लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के भाषणों को लेकर कार्रवाई की सिफारिश की थी। हालांकि तीन सदस्यों के आयोग में बाकी दो सदस्य इसके लिए तैयार नहीं हुए। तब लवासा ने यह भी कहा था कि दो आयुक्तों के फैसले से उनकी असहमति को दर्ज किया जाए। लेकिन उनकी असहमति भी दर्ज नहीं की गई और थोड़े दिन के बाद ही लवासा की पत्नी और दूसरे रिश्तेदारों के यहां आयकर विभाग ने छापा मार दिया। उसके बाद वे भी ठंडे पड़ गए और वीआरएस लेकर एशियन डेवलपमेंट बैंक में चले गए। ऐसे में कौन अधिकारी स्वतंत्र रूप से फैसला करने का जोखिम लेगा! असल में देश का समूचा तंत्र भय से संचालित हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने टीएन शेषन का जिक्र किया, जिन्होंने चुनाव आयोग को एक नई पहचान दी थी। लेकिन वह संस्थागत मामला नहीं था। वह एक व्यक्ति की जिद और समझ से हो पाया था अन्यथा चुनाव आयोग तो पहले भी था और पहले भी आयुक्त नियुक्त होते थे। सो, कई बार किसी संस्था का भविष्य या उसका कामकाज उसे संभालने वाले व्यक्ति पर निर्भर होता है। भारत में कम से कम यही स्थिति है। अगर कोई ईमानदार, समझदार और साहसी व्यक्ति किसी पद पर बैठ जाए तो वह पूरी संस्था को बदल सकता है। लेकिन यह संयोग की बात होती है और संस्थाओं को संयोग के सहारे नहीं छोड़ा जा सकता है। संस्थाओं को सांस्थायिक तरीके से मजबूत करने की जरूरत है और यह तब तक नहीं होगा, जब तक संसद मजबूत नहीं होगी। जब तक संसद सरकार की हां में हां मिलाने वाली संस्था बनी रहेगी तब तक किसी भी संस्था को निष्पक्ष, तटस्थ, वस्तुनिष्ठ और जन सरोकार वाला नहीं बनाया जा सकता है। यह असल में एक तरह का दुष्चक्र है। भारत में बार बार शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत की बात होती है। जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से नए चुनाव आयुक्त की नियुक्ति से जुड़ी फाइल मांगी तो सरकार ने यही कहा कि अदालत को शक्ति के पृथक्करण के संवैधानिक सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। लेकिन सवाल है कि यह सिद्धांत है कहां? क्या सारी संस्थाएं सचमुच में अधिकारसंपन्न हैं और स्वतंत्र होकर काम कर रही हैं? क्या देश की संसद सरकार से स्वतंत्र है? असल में भारत में सरकार सब कुछ है। वह माई-बाप है। सरकार जो सोचती है संसद में वहीं काम होता है। भारत में शायद ही कभी ऐसा हुआ होगा कि पूर्ण बहुमत वाली सरकार संसद में अपनी मनमानी नहीं कर सकी हो। सो, भारत में विधायिका को संविधान से भले जो अधिकार मिले हों लेकिन वह पूरी तरह से कार्यपालिका के अधीन है। जब संसद ही सरकार के अधीन होगी तो बाकी संस्थाओं के बारे में क्या कहा जा सकता है? ऊपर से जब सरकार ऐसी आ जाए, जिसकी मंशा हर संस्था को नियंत्रित करने की हो तो उसे नहीं रोका जा सकता है। उसे रोकने का तरीका यही होता है कि वह चुनाव हार जाए। बहरहाल, अगर सुप्रीम कोर्ट की बात मान भी ली जाए, चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम भी बन जाए और मुख्य चुनाव आयुक्त का पांच या छह साल का कार्यकाल भी फिक्स्ड कर दिया जाए तो क्या इस बात की गारंटी होगी कि आयोग सरकार की हां में हां मिलाने वाला नहीं रह जाएगा? कोई भी इसकी गारंटी नहीं दे सकता है। देश में कई पद हैं, जिनके लिए फिक्स्ड कार्यकाल है लेकिन क्या उन पदों पर बैठे लोग सिर्फ सरकार की मर्जी पर अमल कराने का काम नहीं करते हैं? असल में संविधान की सारी व्यवस्था के बावजूद सब कुछ बिगड़ा हुआ है तो वह नागरिकों के चरित्र की वजह से है। सब किसी न किसी किस्म के लालच या भय से ग्रसित हैं। उनमें गलत को गलत कहने की हिम्मत नहीं है। इसके एकाध अपवाद होंगे लेकिन अपवादों से संस्थाएं नहीं बनती हैं।
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