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मजबूत हो रही हैं क्षेत्रीय पार्टियां

पिछले दिनों दो क्षेत्रीय पार्टियों ने अपनी स्थापना की रजत जयंती मनाई। ओड़िशा में बीजू जनता दल ने स्थापना के 25 साल पूरे किए हैं तो पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के 25 साल पूरे हुए हैं। बीजू जनता दल ने 26 दिसंबर 2022 को श्रीजगन्नाथ धाम में पार्टी की स्थापना की रजत जयंती मनाई और इस मौके पर मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने कहा कि राष्ट्रीय पार्टियों ने ओड़िशा के विकास की अनदेखी की। उन्होंने साथ ही यह भी कहा कि अगर राज्य की महिलाओं का आशीर्वाद मिला तो बीजू जनता दल अगले एक सौ साल तक राज्य के लोगों की सेवा करती रहेगी। इसके बाद एक जनवरी को 2023 को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस की रजत जयंती वर्ष की शुरुआत की। इस मौके पर उन्होंने पार्टी के संघर्षों को याद किया, अपने साथियों को याद किया और कहा कि उनकी पार्टी ‘अपने महान राष्ट्र के संघीय ढांचे को मजबूत करना जारी रखेगी’।

इन दोनों पार्टियों में एक बुनियादी फर्क है। नवीन पटनायक को अपने पिता और महान नेता बीजू पटनायक की राजनीति विरासत में मिली थी। उन्होंने अपने पिता के नाम से पार्टी बनाई और पार्टी बनाने के तीन साल बाद सत्ता में आए तो पिछले 22 साल से राज में हैं। उनको चुनाव जीतने और सत्ता हासिल करने के लिए कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा। उनके उलट ममता बनर्जी को विरासत में सिर्फ संघर्ष मिला था। वे कांग्रेस में रहते हुए भी संघर्ष कर रही थीं और कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बनाने के बाद भी उनका संघर्ष जारी रहा। उन्होंने वाममोर्चे की लगभग एकाधिकारवादी सरकार के खिलाफ एक दशक से ज्यादा समय तक संघर्ष किया और इस दौरान उनके साथी राजनीतिक हिंसा का शिकार हुए। लेकिन 2009 में स्थानीय निकाय चुनाव जीतने के बाद ममता ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। वे 2011 से लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीत चुकी हैं। वे इस स्तर की सफलता हासिल करने वाली भारत ही नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया की एकमात्र नेता हैं, जो किसी बड़े नेता की बेटी, पत्नी, बहू या प्रेमिका नहीं हैं।

दोनों पार्टियों का नेतृत्व कर रही शख्सियतों के इस बुनियादी फर्क के अलावा पार्टी के विचार और एजेंडे में भी एक बड़ा फर्क है। एक तरफ जहां बीजू जनता दल का पूरा फोकस सिर्फ ओड़िशा के ऊपर है वहीं तृणमूल कांग्रेस की महत्वाकांक्षा राष्ट्रीय राजनीति की है। नवीन पटनायक ने पार्टी के रजत जयंती समारोह में साफ शब्दों में कहा कि उनको राष्ट्रीय राजनीति नहीं करनी है तो दूसरी ओर ममता बनर्जी ने कहा कि उनकी पार्टी भारत के संघीय ढांचे को मजबूत करने के लिए काम करती रहेगी। हालांकि उनके कई प्रयासों के बावजूद तृणमूल कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी नहीं बन पाई है लेकिन उन्होंने इसका प्रयास छोड़ा नहीं है। बहरहाल, चाहे बीजू जनता दल की प्रादेशिक राजनीति हो या तृणमूल कांग्रेस की प्रादेशिक व राष्ट्रीय राजनीति हो, दोनों अपने स्तर पर मजबूत हो रहे हैं। दोनों ने कार्यकर्ताओं का बड़ा आधार बनाया है। कामकाज का अपना एजेंडा बना कर उस पर राजनीति की है और राष्ट्रीय पार्टियों को उनके एजेंडे पर ही राजनीति करनी पड़ी है। राहुल गांधी भले कहें कि क्षेत्रीय पार्टियों के पास राष्ट्रीय दृष्टि नहीं है लेकिन कांग्रेस और भाजपा जैसी कथित राष्ट्रीय दृष्टि वाली बड़ी पार्टियों को भी प्रदेशों में इन नेताओं के नजरिए से ही राजनीति करनी पड़ती है।

क्षेत्रीय पार्टियों की मजबूती पर बात करने से पहले उत्तर भारत की कुछ और क्षेत्रीय पार्टियों का जिक्र जरूरी है, जिनका नब्बे के दशक में गठन हुआ था और जो अपने अपने क्षेत्र में मजबूत हो रही हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश में थोड़ा बहुत आगे-पीछे राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी का गठन हुआ था। इसके थोड़े समय के बाद बिहार में समता पार्टी का गठन हुआ, जिसका नाम बाद में जनता दल यू कर दिया गया। झारखंड मुक्ति मोर्चा इससे बहुत पहले की पार्टी है लेकिन उसको भी महत्व नवंबर 2000 में नया राज्य बनने के बाद मिला है। इन सभी पार्टियों ने अपने तीन, चार या पांच दशक की यात्रा में बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं। लेकिन भारत में दो दलीय व्यवस्था बनाने के प्रयासों के बावजूद इन पार्टियों ने अपने को मजबूत किया है और अपनी प्रासंगिकता बनाए रखी है। राष्ट्रीय पार्टियों की होड़ में इन प्रादेशिक पार्टियों ने अपने को राज्यों के हितों का चैंपियन बनाया है। राज्य के विकास और सामाजिक समीकरण दोनों के सामानांतर नैरेटिव को इन पार्टियों ने साधा है और इसलिए राष्ट्रीय पार्टियों के लिए बड़ी चुनौती बने हैं।

दक्षिण भारत में प्रादेशिक पार्टियां पहले से मजबूत हैं और कम से कम तीन राज्यों में उनका आधार किसी भी राष्ट्रीय पार्टी से बहुत मजबूत है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में प्रादेशिक पार्टियों का वर्चस्व है। द्रविड आंदोलन से निकली डीएमके और उससे अलग होकर बनी अन्ना डीएमके दो ही पार्टियां हैं, जिनके ईर्द-गिर्द तमिलनाडु की राजनीति घूमती है। इसी तरह आंध्र प्रदेश में टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस ही राजनीति की धुरी हैं। तेलंगाना में जरूर भाजपा हाथ पैर मार रही है पर राज्य की सर्वोच्च राजनीतिक ताकत भारत राष्ट्र समिति है, जिसका नाम पहले तेलंगाना राष्ट्र समिति था। ऊपर जितनी पार्टियों की बात हुई है उनमें सबसे नई प्रादेशिक पार्टी के चंद्रशेखर राव की बीआरएस ही है। बहरहाल, चाहे डीएमके हो या अन्ना डीएमके, टीडीपी, वाईएसआर कांग्रेस या बीआरएस इन पार्टियों को दक्षिण भारत की पढ़ी लिखी जनता अपने राज्य के लिए जरूरी मानती है। दक्षिण भारत के राज्यों ने पिछले चार-पांच दशक में जो तरक्की की है उनमें इन पार्टियों का योगदान अहम रहा है। नेता चाहे जो रहा हो उसने अपने राज्य के विकास को प्राथमिकता देकर काम किया। उनकी सफलता में एक कारण इन राज्यों क्षेत्रीयता या उप राष्ट्रीयता की भावन की मजबूत उपस्थिति भी है लेकिन सरकारों द्वारा किए गए विकास कार्यों की भी बड़ी भूमिका रही है।

उत्तर भारत के राज्यों में क्षेत्रीयता या उप राष्ट्रीयता की भावना नहीं है और न यह दावा किया जा सकता है कि दक्षिण भारत की क्षेत्रीय पार्टियों की तरह उत्तर भारत की पार्टियों ने मौका मिलने पर राज्य का विकास किया। उत्तर भारत के राज्यों में उप राष्ट्रीयता की भावना और विकास दोनों की कमी के बावजूद क्षेत्रीय पार्टियों की मजबूती का कारण सामाजिक समीकरण या सोशल इंजीनियरिंग है, जिसे आम बोलचाल की भाषा में जातिवाद कह कर खारिज किया जाता है। यह अलग बात है कि राष्ट्रीय पार्टियों की राजनीति भी जाति और धर्म से परे नहीं है। बहरहाल, सोशल इंजीनियरिंग के दम पर मजबूत हो रहीं पार्टियों के लिए अब आगे चुनौती है। उन्हें अगर अपनी प्रासंगिकता बनाए रखनी है और दक्षिण भारत की पार्टियों की तरह लंबा सफर तय करना है तो उन्हें भी विकास का रास्ता पकड़ना होगा। भावनात्मक नारों और प्रचारों की बजाय ठोस बुनियादी विकास करना होगा।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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