आजकल रेवड़ी राजनीति पर चर्चा स्थगित है। प्रधानमंत्री ने पिछले करीब दो महीने से इस बारे में कुछ नहीं कहा है। सुप्रीम कोर्ट में भी आखिरी बार 26 अगस्त को सुनवाई हुई थी, जिसमें एक विशेषज्ञ समिति बनाने की बात हुई थी। उसके बाद क्या हुआ पता नहीं है। सोचें, कुछ दिन पहले ऐसा लग रहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिसे ‘रेवड़ी कल्चर’ बताया है वह देश की राजनीति और लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है और इससे जितनी जल्दी मुक्त हुआ जाए, देश के लिए उतना अच्छा है। लेकिन ‘रेवड़ी कल्चर’ पर चर्चा परवान चढ़ती तब तक दो राज्यों के विधानसभा चुनाव आ गए और सरकार बहादुर झोला लेकर रेवड़ी बांटने निकल पड़े। ऐसे में इस पर क्या चर्चा होती! सो, थोड़े दिन के लिए इसे स्थगित कर दिया गया है। हो सकता है कि यह स्थायी रूप से ही स्थगित रहे क्योंकि अगले साल कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और उसके अगले साल लोकसभा के चुनाव हैं।
यह भी संभव है कि माननीय अदालत की विशेषज्ञ समिति कोई रिपोर्ट दे और उस आधार पर रेवड़ी-रेवड़ी में फर्क बताया जाए। जैसे पांच किलो मुफ्त अनाज देने को रेवड़ी न माना जाए और दो सौ यूनिट बिजली देने को रेवड़ी माना जाए। प्रधानमंत्री की ओर से किसानों को दी जाने वाली सम्मान निधि को रेवड़ी नहीं माना जाए और तेलंगाना सरकार की ओर से रैयतू बंधु योजना के तहत दी जाने वाली मदद को रेवड़ी घोषित कर दिया जाए। ध्यान रहे केंद्र सरकार ने पांच किलो अनाज देने की योजना को तीन महीने के लिए बढ़ा दिया है। अब यह योजना 31 दिसंबर तक चलेगी। तब तक दो राज्यों के चुनाव निकल जाएंगे। इस योजना के तीन महीने के लिए बढ़ाने के साथ ही यह भी खबर आई कि सरकार ने केंद्रीय कर्मचारियों के महंगाई भत्ते में चार फीसदी की बढ़ोतरी की है। केंद्र सरकार इसे भी रेवड़ी नहीं मानती है लेकिन पता नहीं मीडिया वालों को यह समझ में क्यों नहीं आ रहा है, जो उन्होंने यह हेडिंग लगाई कि ‘दिवाली से पहले केंद्रीय कर्मचारियों को सरकार का तोहफा’! अब जब तोहफा है तो रेवड़ी ही हुआ ना! इसके साथ ही तीसरी खबर यह थी कि बिहार में अब विधायकों और विधान पार्षदों को हर साल 30 हजार यूनिट बिजली फ्री मिलेगी। अंधा बांटे रेवड़ी फिर फिर अपने को दे!
सो, ऐसी रेवड़ियां सरकारें बरसों से बांट रही हैं। लेकिन अब तक ये रेवड़ियां केंद्र और राज्य सरकार के कर्मचारियों को मिलती थीं। विधायकों, सांसदों, मंत्रियों को मिलती थीं। बड़े कॉरपोरेट को टैक्स में छूट या कर्ज माफी के रूप में मिलती थीं। यह सब कुछ अब भी चल रहा है लेकिन उस पर कोई चर्चा नहीं होती है। इसी साल संसद के मॉनसून सत्र में भारत सरकार ने बताया कि पिछले पांच वित्तीय वर्ष में करीब 10 लाख करोड़ रुपए का कर्ज बट्टेखाते में डाला गया है। यानी हर साल औसतन दो लाख करोड़ रुपए का कर्ज बट्टेखाते में जा रहा है यानी डूब रहा है। जिन कारोबारियों के कर्ज बट्टे खाते में डाले गए उनमें से 10 हजार से कुछ ज्यादा तो ऐसे हैं, जिनके पास पैसा है लेकिन उन्होंने कर्ज नहीं चुकाया। ये विलफुल डिफॉल्टर हैं। जिन लोगों के कर्ज बट्टेखाते में डाल गए उनमें से सबसे ज्यादा ‘मेहुल भाई’ की कंपनी गीतांजली जेम्स लिमिटेड के हैं। सरकार ने 10 लाख करोड़ रुपए का कर्ज बट्टेखाते में डाला है तो लगभग इतनी ही रकम का कॉरपोरेट टैक्स भी माफ किया है। लेकिन इसको रेवड़ी नहीं कहा जा रहा है। जिन सरकारी कर्मचारियों को पहले से मोटा वेतन या पेंशन मिल रहा है उनकी सुविधाओं में बढ़ोतरी रेवड़ी नहीं है। सांसदों, विधायकों को मिलने वाली सुविधाओं में बढ़ोतरी रेवड़ी नहीं है। फिर आम लोगों को मुफ्त बिजली, पानी, पोशाक, साइकिल आदि देना रेवड़ी कैसे है?
तभी सरकार को इस चर्चा में पड़ना ही नहीं चाहिए। सरकार मजे में अपना काम करे और आम लोगों को थोड़ी से रेवड़ी पकड़ा दे! आखिर सरकार दशकों से यहीं काम तो कर रही है। आम लोगों से लाखों करोड़ रुपए का टैक्स सरकार वसूलती है और उससे सरकार के मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और सरकारी कर्मचारियों के वेतन भत्ते देती है और सरकारी संस्थाओं को चलाने में यानी इस्टैबलिशमेंट में खर्च करती है। सरकार का कुल काम यहीं प्रबंधन करना है। टैक्स वसूलना है और कर्मचारियों का वेतन भत्ता देना है। यह झूठ बात है कि सरकार टैक्स के पैसे से विकास के काम करती है। अब विकास के काम निजी कंपनियां करती हैं। सरकार उनको ठेका देती है। उसके बाद बैंकों में जमा आम लोगों के पैसे में से बैंक उन्हें कर्ज देते हैं और वे इमारतें, सड़कें आदि बनवाते हैं। जैसे अभी तीन शहरों में रेलवे स्टेशनों में सुधार की 10 हजार करोड़ रुपए की योजना की घोषणा हुई है। यह पीपीपी मोड पर बनेगा यानी इसमें कुछ पैसा सरकार देगी और बाकी जिस कंपनी को ठेका मिलेगा वह लगाएगी। बाद में स्टेशन सुधर जाएंगे तो वहां आने-जाने वाले आम लोगों से मोटा यूजर चार्ज वसूला जाएगा। सरकारों का काम इसमें पहले कमीशन लेना और बाद में जीएसटी वसूलना रह जाता है। यहीं हाल सड़कों का है। सरकार हमारे टैक्स के पैसे से सड़क बनवा रही है और फिर उसी सड़क पर चलने के लिए हमसे मोटा पैसा वसूल रही है!
असल में ‘रेवड़ी कल्चर’ से दिक्कत तब शुरू हुई, जब आम आदमी पार्टी ने इसे बड़ा राजनीतिक हथियार बना लिया और हर जगह मुफ्त में चीजें बांटने की घोषणाएं शुरू कर दीं। दिल्ली में मिली कामयाबी के बाद पार्टी ने पंजाब में इसे सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया। जब उन्होंने गुजरात जाकर मुफ्त में बिजली, पानी देने और वयस्क महिलाओं को हर महीने एक हजार रुपए देने आदि की घोषणा शुरू की तब जाकर प्रधानमंत्री को लगा कि यह वाला ‘रेवड़ी कल्चर’ देश और लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है। यह खतरा है लेकिन उस मायने में नहीं, जिस मायने में प्रधानमंत्री कह रहे हैं या जिस मायने में सुप्रीम कोर्ट इसकी व्याख्या कर रहा है। यह वित्तीय बोझ बढ़ाने के लिहाज से कोई खतरा नहीं है क्योंकि रेवड़ी बांटने पर ज्यादा खर्च नहीं आता है। सबको पता है कि रेवड़ी सबसे सस्ती मिठाई होती है। असली खतरा यह है कि सरकारें लोगों को इन छोटी छोटी चीजों में उलझा दे रही है और आम नागरिकों की भलाई के बड़े काम नहीं कर रही है। व्यापक समाज के हित में, देश के हित में, नागरिकों के हित में बड़े काम नहीं हो रहे हैं। बुनियादी ढांचे का विकास नहीं हो रहा है। इस खतरे पर ध्यान देना चाहिए। बाकी रेवड़ी बंटती रहनी चाहिए।
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