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विपक्षी राज्यों में राज्यपालों की भूमिका

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विपक्षी राज्यों में राज्यपालों की भूमिका
इससे पहले शायद ही कभी विपक्ष शासित राज्यों में सरकार और राज्यपाल का ऐसा टकराव देखने को मिला होगा, जैसा अभी देखने को मिल रहा है। गैर भाजपा दलों के शासन वाले लगभग सभी राज्यों में टकराव चल रहा है। संवैधानिक मामलों से लेकर सामान्य प्रशासन से जुड़े मुद्दों पर भी राज्यपाल और राज्य सरकारें आमने-सामने हैं। दक्षिण में केरल और तमिलनाडु से लेकर पूर्व में झारखंड और उत्तर में पंजाब तक यह टकराव देखने को मिल रहा है। राजधानी दिल्ली में भी राज्य सरकार और उप राज्यपाल का लगभग रोज का ही झगड़ा है। महाराष्ट्र में सरकार बदल जाने की वजह से विवाद शांत हुआ है और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के देश का उप राष्ट्रपति बन जाने से बाद से कोलकाता में भी शांति है। राज्यों में चल रहे इस तरह के टकराव से राज्यपाल के संवैधानिक पद की गरिमा पर बड़ा सवाल उठ रहा है। ताजा मामला पंजाब के राज्यपाल का है। राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित ने विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने के राज्य सरकार के प्रस्ताव को खारिज कर दिया है। हालांकि राज्यपाल ने पहले इसकी मंजूरी दी थी लेकिन बाद में उन्होंने इस मंजूरी को रद्द कर दिया। नियम के मुताबिक कोई भी राज्य सरकार अगर विधानसभा का विशेष सत्र बुलाती है तो उसे इसका एक कारण देना होता है। सो, राज्य सरकार ने बहुमत साबित करने का कारण दिया था। इसके बावजूद दी गई मंजूरी रद्द कर दी गई। अब राज्य सरकार इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की तैयारी कर रही है और उसने दो दिन का नियमित सत्र बुलाने का फैसला किया है। आम आदमी पार्टी की सरकार उस नियमित सत्र में बहुमत साबित करेगी। हालांकि बहुमत साबित करना एक ड्रामा है, जिसकी कोई जरूरत नहीं है। राज्य की 117 सदस्यों की विधानसभा में आप के 92 विधायक हैं और सब उसके साथ हैं। फिर भी भाजपा के ऊपर ऑपरेशन लोटस का आरोप लगाने और उस पर भाषण देने के लिए सत्र बुलाया जाना है। यह ड्रामा है इसके बावजूद राज्यपाल की बाध्यता है कि वे राज्य सरकार की ओर से भेजे गए प्रस्ताव को स्वीकार करें। राजभवन की राजनीति का एक दिलचस्प मामला झारखंड का है, जहां मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की विधानसभा सदस्य के तौर पर अयोग्यता को लेकर चुनाव आयोग की ओर से भेजी गई रिपोर्ट लंबित है। राज्य में एक खदान का पट्टा अपने नाम कराने के मामले में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की शिकायत राज्यपाल से की गई थी, जिसे राज्यपाल ने चुनाव आयोग को भेजा था। आयोग ने मई से लेकर अगस्त तक लंबी सुनवाई के बाद फैसला किया और अपनी रिपोर्ट पिछले 25 अगस्त को राज्यपाल को भेज दी। इसी तरह की शिकायत मुख्यमंत्री के भाई और जेएमएम के विधायक बसंत सोरेन के खिलाफ भी हुई थी और उसकी भी रिपोर्ट आयोग ने राज्यपाल को भेज दी है। चुनाव आयोग को रिपोर्ट भेजे एक महीना होने को है और राज्यपाल ने उस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया है और कोई फैसला भी नहीं किया है। इस तरह राज्य में असमंजस की स्थिति बनी हुई। राज्य में सरकार चला रहे गठबंधन के नेता राज्यपाल से मिले थे और उनसे जल्दी फैसला करने को कहा था तो राज्यपाल ने उन्हें भरोसा दिलाया था कि वे एक-दो दिन में फैसला करेंगे लेकिन उसके भी तीन हफ्ते से ज्यादा हो गए। खुद मुख्यमंत्री ने भी राज्यपाल से मिल कर जल्दी फैसला करने को कहा पर राज्यपाल फैसला नहीं कर रहे हैं। यह सही है कि राज्यपाल के लिए समय सीमा की बाध्यता नहीं है लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि इस तरह के संवेदनशील मामले में राज्यपाल फैसला अनंतकाल तक रोक कर रखें। उनके फैसला नहीं करने की वजह से राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल है। भाजपा की ओर से प्रचार किया जा रहा है कि मुख्यमंत्री की सदस्यता जाएगी और उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगेगी। इस प्रचार के जरिए सरकार को अस्थिर करने का प्रयास किया जा रहा है। संविधान के मुताबिक राज्य सरकार की ओर से भेजे गए प्रस्ताव को मानने के लिए राज्यपाल बाध्य होता है लेकिन संवैधानिक प्रावधान का लूप होल है कि राज्यपाल के लिए उसे स्वीकार करने की समय सीमा नहीं तय की गई है। इसी का फायदा उठा कर महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने उद्धव ठाकरे सरकार की ओर से विधान परिषद में मनोनयन के लिए भेजी गई 12 नामों की सूची डेढ़ साल तक लटकाए रखी। भाजपा समर्थित नई सरकार ने अब वो सारे नाम वापस ले लिए हैं और नई सरकार नए नाम भेजेगी। हैरानी नहीं होगी अगर राज्यपाल उन नामों को 24 घंटे के अंदर मंजूरी दे दें। बहरहाल, दिल्ली में उप राज्यपाल को ही केंद्र सरकार ने असली सरकार की मान्यता दे दी है। इसे संसद से मंजूर करा कर कानून बना दिया गया है। अब राज्य की चुनी हुई सरकार और विधानसभा का कोई खास मतलब नहीं रह गया है। इसके बावजूद उप राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच आए दिन किसी न किसी मसले पर टकराव होता है। ये सारे टकराव विशुद्ध रूप से राजनीतिक हैं। उप राज्यपाल ने नई शराब नीति की सीबीआई जांच के आदेश दिए, जिसके बाद 19 अगस्त सीबीआई ने उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के यहां छाप मारा। उसके एक महीने बाद तक न सिसोदिया को पूछताछ के लिए बुलाया गया है और न उनकी गिरफ्तारी हुई है। इस बीच उप राज्यपाल ने बस खरीद में कथित घोटाले की सीबीआई जांच के लिए लिख दिया है। हालांकि बस खरीदे नहीं गए हैं, सिर्फ टेंडर निकाले गए थे। इसके जवाब में आम आदमी पार्टी ने उप राज्यपाल के ऊपर नोटबंदी के समय 14 सौ करोड़ रुपए का घोटाला करने का आरोप लगाया है। अभी सबसे बड़ा विवाद केरल में चल रहा है, जहां कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य सरकार और राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के बीच कई मामलों पर विवाद है। आरिफ मोहम्मद खान तीन साल पहले केरल के राज्यपाल बने थे और राज्य की वाम मोर्चा सरकार के साथ उनका विवाद तभी से चल रहा है। नीतिगत मसलों से लेकर निजी स्टाफ तक के मसले पर विवाद हो रहा है। राज्य सरकार ने भाजपा के एक नेता को राज्यपाल का एपीएस बनाए जाने का विरोध किया तो राज्यपाल ने मंत्रियों के निजी कर्मचारियों को पेंशन देने की नीति पर सवाल उठाए। राज्य सरकार की ओर से मंजूर किए गए अध्यादेशों को राजभवन ने लंबित कर दिया, जिसकी वजह से 11 अध्यादेश समाप्त हो गए। तो दूसरी ओर राज्य सरकार ने विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति में राज्यपाल के अधिकार कम करने का कानून बना दिया। राज्यपाल ने नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए का समर्थन किया था, जिसे लेकर उनका आरोप है कि हिस्ट्री कांग्रेस में उनको भाषण देने से रोका गया। इस मामले में पहले उन्होंने इरफान हबीब का नाम लिया था और अब कहा है कि सीपीएम नेता केके रागेश इस घटना के पीछे थे, जो अभी मुख्यमंत्री पी विजयन के निजी सचिव हैं। उधर तमिलनाडु में राज्यपाल आरएन रवि के साथ भी इसी तरह का टकराव चल रहा है। उन्होंने विधानसभा से पास एंटी नीट बिल को रोक दिया। इसके बाद मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने तमिल न्यू ईयर के मौके पर राज्यपाल की ओर से आयोजित एट होम कार्यक्रम का बहिष्कार किया। मुख्यमंत्री को राज्यपाल से अपील करनी पड़ी कि वे विधानसभा से पास 21 विधेयकों को मंजूरी दें। राज्य की पार्टियों का कहना है कि राज्यपाल एक नेता की तरह बरताव कर रहे हैं। केरल की तरह तमिलनाडु सरकार ने भी कुलपतियों की नियुक्ति में राज्यपाल का अधिकार कम किया है। इस तरह की कोई न कोई घटना हर विपक्षी शासन वाले राज्य में हो रही है, जिससे लग रहा है कि भाजपा जहां विपक्ष में है वहां वह बैकसीट ड्राइविंग करना चाह रही है। राजनीतिक मकसद के लिए राज्यपाल जैसी संवैधानिक संस्था का इस्तेमाल ठीक नहीं है।
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