एक तरफ रक्षा पर यूरोपीय देशों को अधिक खर्च करना पड़ा, दूसरी तरफ रूस पर प्रतिबंध लगाने के कारण उन्हें ऊर्जा संकट और असामान्य महंगाई का भी सामना करना पड़ा है। परिणाम सामाजिक अशांति के रूप में सामने आया है।
यूरोप को यूक्रेन युद्ध की बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। उस पर पड़ा बोझ दीर्घकालिक है। यूक्रेन युद्ध का नशा वहां की सरकारों पर इतना छाया कि उन्होंने अपने लिए लाभ की उस स्थिति को भी छोड़ दिया, जो उन्हें दूसरे विश्व युद्ध के बाद से मिली हुई थी। लाभ की इस स्थिति का यूरोप के विकास और वहां के समाजों को समृद्ध बनाए रखने में भारी योगदान था। यह रक्षा खर्च सीमित रखने का लाभ था, जिसकी वजह से यूरोपीय देश अपने पास मौजूद धन का बड़ा हिस्सा मानव विकास पर खर्च कर पाते थे। लेकिन अब सूरत बदल गई है। सेना पर होने वाला खर्च यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद के एक साल में नई ऊंचाई को छू गया है। बीते तीस सालों में पहली बार यूरोप में सेना पर खर्च में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। पिछले साल यह इजाफा 13 फीसदी का रहा। यूक्रेन को सैन्य मदद और रूस की तरफ से कथित खतरे की वजह से यूरोप को हथियारों पर बीते साल ज्यादा पैसे खर्च करने पड़े। नाटो के सदस्य देशों ने कुल मिला कर 2022 में 1,232 अरब डॉलर खर्च किए।
स्वीडिश संस्था सिपरी के मुताबिक यह 2021 की तुलना में 0.9 फीसदी ज्यादा है। पूर्व ईस्टर्न ब्लॉक के कई देशों ने 2014 के बाद से अपना सैन्य खर्च दोगुने से भी ज्यादा कर दिया है। 2014 में रूस ने यूक्रेन के क्राइमिया को अपने साथ मिला लिया था। महंगाई को शामिल कर लें तो ये देश पहली बार 1989 सैन्य खर्च के आंकड़े के पार गए हैं। यह वो साल था जब शीतयुद्ध खत्म हुआ। मध्य और पश्चिमी यूरोप में ब्रिटेन ने सबसे ज्यादा 68.5 अरब डॉलर खर्च किये है। इनमें से करीब 2.5 अरब डॉलर यूक्रेन को आर्थिक सैन्य सहायता के रूप में दिए गए। एक तरफ रक्षा पर यूरोपीय देशों को अधिक खर्च करना पड़ा, दूसरी तरफ रूस पर प्रतिबंध लगाने के कारण उन्हें ऊर्जा संकट और असामान्य महंगाई का भी सामना करना पड़ा है। परिणाम ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों में औद्योगिक और सामाजिक अशांति के रूप में सामने आया है। इस अशांति के और फैलने का अंदेशा है।