कहावत है कि लेखक के देहांत बाद भी उस की पुस्तक पढ़ी जाए, तभी उसे मूल्यवान समझना चाहिए। राम स्वरूप व सीताराम गोयल को गए एक पीढ़ी हो चुकी। पर उन की लगभग दो दर्जन पुस्तकें आज भी यथावत् महत्वपूर्ण हैं। कुछ तो अपने विषय की अकेली हैं।
सोशल मीडिया पर हिन्दू विमर्श में राम स्वरूप और सीताराम गोयल के नाम प्रायः उभरते रहते हैं। वे दोनों ही स्वामी दयानन्द, बंकिमचन्द्र, विवेकानन्द और श्रीअरविन्द की परंपरा से जुड़ते हैं। जिन्होंने अपने युग में सनातन धर्मी या हिन्दू चिंतन और कर्तव्य का निरूपण किया। स्वयं करके भी दिखाया। वही भूमिका स्वतंत्र भारत में राम स्वरूप (1920-1998) और सीताराम गोयल (1921-2003) ने सब से अधिक निभाई।
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इसीलिए, आज देश-विदेश के लगभग सभी विवेकशील हिन्दू उन्हें याद करते रहते हैं। ये प्रायः अलग-अलग, अदद लोग हैं। विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले। किन्तु भारत में हिन्दू धर्म-समाज पर हो रही चोटों और बढ़ते खतरों की समझ जिसे भी है, वह देर-सवेर राम स्वरूप और सीताराम गोयल तक पहुँच जाता है। क्योंकि इस्लामी एवं चर्च साम्राज्यवाद के क्रिया-कलाप, इतिहास विकृत करने वाला मार्क्सवादी दुष्प्रचार, और सेक्यूलरवाद की आड़ में हो रहे हिन्दू-विरोधी कामों, विचारों का ऐसा मौलिक, व्यवस्थित विश्लेषण किसी और ने नहीं किया।
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कहावत है कि लेखक के देहांत बाद भी उस की पुस्तक पढ़ी जाए, तभी उसे मूल्यवान समझना चाहिए। राम स्वरूप व सीताराम गोयल को गए एक पीढ़ी हो चुकी। पर उन की लगभग दो दर्जन पुस्तकें आज भी यथावत् महत्वपूर्ण हैं। कुछ तो अपने विषय की अकेली हैं। जैसे राम स्वरूप की ‘हिन्दू व्यू ऑफ क्रिश्चियनिटी एंड इस्लाम’, ‘ऑन हिन्दुइज्म’, ‘द वर्ड ऐज रिवीलेशन: द नेम्स ऑफ गॉड’, ‘पोप जॉन पॉल टू ऑन ईस्टर्न रिलीजियन्स एंड योग’, ‘वीमेन इन इस्लाम’, तथा ‘अंडरस्टैंडिंग इस्लाम थ्रू हदीस’। ये अधिकांश पुस्तकें लगभग चालीस साल पहले लिखी गईं। पर अभी भी किसी पाठक में नई चेतना जगाती है। इतनी प्रमाणिक कि एक पाराग्राफ भी खंडित करना कठिन। तुलनात्मक रिलीजियन विषय के अमेरिकी, यूरोपीय विद्वान भी राम स्वरूप का अवदान विशिष्ट मानते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार, पूरे विश्व में क्रिश्चियनिटी व इस्लाम का सर्वोत्तम विश्लेषण राम स्वरूप का ही है।
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उसी तरह, सीताराम गोयल की ‘हिन्दू सोसायटी अंडर सीज’, ‘स्टोरी ऑफ इस्लामिक इंपीरियलिज्म इन इंडिया’, ‘इंडियाज सेक्यूलरिज्म’, ‘जेनेसिस एंड ग्रोथ ऑफ नेहरूइज्म’, ‘परवर्सन ऑफ इंडियाज पोलिटिकल पार्लान्स’, ‘मुस्लिम सेपेरेटिज्म: कॉजेज एंड कॉन्सीक्वेन्सेज’, ‘कैलकटा कुरान पिटीशन’, ‘हिस्ट्री ऑफ हिन्दू-क्रिश्चियन एनकाउंटर्स’, ‘हिन्दू टेम्पल्स: ह्वाट हैपेन्ड टु देम’, ‘टाइम फॉर स्टॉक टेकिंग: ह्विदर संघ परिवार?’ आदि। ये भी चौबीस से चालीस साल पहले आई थीं (सभी वॉयस ऑफ इंडिया से प्रकाशित)। किन्तु ये पुस्तकें इन विषयों पर सर्वोत्तम विश्लेषणों में हैं। इस का संपूर्ण महत्व वही समझ सकते हैं जिन्होंने इतिहास, समाज, और देश-दुनिया के परिदृश्य का गंभीरता से अवलोकन किया है।
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मजे की बात कि उपर्युक्त कई पुस्तकों के अंश रा.स्व.संघ के मुखपत्र ‘ऑर्गेनाइजर’ में ही 40-60 वर्ष पहले छपे थे। कुछ तो संघ नेताओं के आग्रह पर लिखे गए थे। उस पर पाठकीय प्रतिक्रियाएं ऐसी होती थीं, कि कहना चाहिए तब असंख्य संघ-भाजपा कार्यकर्ता उस से शिक्षित हुए थे। तब कैसी विडंबना कि अनंतर संघ परिवार ने इन दोनों महापुरुषों को अपनी ओर से मानो तहखाने में डाल दिया! इन की पुस्तकें उन के विशाल राष्ट्रीय नेटवर्क और पुस्तक दुकानों में नहीं मिलतीं। बल्कि इन की जन्म-शताब्दी पर भी किसी संघ-भाजपा नेता ने श्रद्धांजलि नहीं दी।
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दूसरी ओर, वही नेता हिन्दू समाज के जानी दुश्मनों को नियमित सलामी देते हैं। हिन्दुओं का कत्लेआम कराने वाले सूफी की कब्र पर चादर चढ़ाते अपनी फोटो दुनिया भर में प्रसारित कराते हैं। तबलीगी जमात जैसे भयंकर संगठन का सार्वजनिक बचाव करते हैं। पक्के हिन्दू-विरोधियों को पद-पुरस्कार देकर धन्य-धन्य होते हैं। वामपंथी मुहावरे दुहराते हैं। बिन सोचे कि वे नारे हिन्दू-घात से प्रेरित हैं। और अब तो, संघ परिवार ने इस्लामी प्रचार करने वाला बाकायदा मंच बनाया है। यह प्रोफेट मुहम्मद का जन्म-दिन मनाता है, मदरसे बनवाता है। जैसे जिहादी लोग गैर-मुस्लिम नेताओं के पुतले जलाते हैं, वही काम संघ का मुस्लिम मंच भी करता है।
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किन्तु संघ परिवार राम स्वरूप जैसे हिन्दू महापुरुषों का दिखावटी स्मरण भी नहीं करता। इस के बदले अपने मूढ़ किस्म के नेताओं को भी ‘भारत-रत्न’ की उपाधियाँ दे-देकर उन्हें ‘ऋषि’ बताता है। ये रत्न वही हैं, जिन्होंने सीताराम गोयल को लांछित, अपमानित किया था। एक दो दिन नहीं, बल्कि दशकों तक! इस का रिकॉर्ड स्वयं संघ-परिवार के विवेकशील लोगों ने भी दिया है। उस व्यवहार से सीताराम गोयल को कोई अंतर नहीं पड़ा। वे फिर भी जब संघ परिवार को जरूरत पड़ी, जैसे अयोध्या आंदोलन के समय, अपनी विद्वता से मदद करते रहे। पारंपरिक हिन्दू संत-ज्ञानियों की तरह उन्होंने और राम स्वरूप ने निरुद्वेग, निस्संग, निष्काम भाव से कर्तव्य किया। अंत में शांतिपूर्वक देहत्याग कर गोलोक चले गए। पर ऐसा बड़ा काम कर गए कि आज भी प्रतिदिन कहीं न कहीं, कोई न कोई हिन्दू उन का स्मरण करके वैचारिक संबल पाता है।
इस बीच, संघ परिवार के नेता हिन्दू धर्म-समाज के साथ केवल लुका-छिपी खेल रहे हैं। अपने आदर्शवादी कार्यकर्ताओं को भी छलते हैं। अपने हिन्दू-घाती और गलत काम छिपाते हुए सारा दोष विरोधी दलो या हिन्दू समाज को देते हैं। जबकि श्रेय दूसरों का भी छीनने को तत्पर रहते हैं। यदि भाजपा चुनाव जीते तो संगठन/नेता की वाहवाही, किन्तु हारे तो हिन्दू समाज पर थू-थू। यह तब, जबकि वे खुद को ‘हिन्दू’ कहने से भी बचते हैं। उन के तमाम भाषण, बयान, या नीति-दस्तावेजों में हिन्दू हितों का नाम तक नहीं मिलता। उलटे संघ-भाजपा सत्ताएं संपूर्ण शिक्षा को वामपंथी हिन्दू-विरोधी ढर्रे पर ही फैलाती रही हैं। हिन्दू मंदिरों पर राजकीय कब्जा जारी रखते हुए यहाँ क्रिश्चियनों-मुसलमानों की तुलना में हिन्दुओं को हीनता में रखते हैं। पर हिन्दू समाज से आशा करते हैं कि सारी समस्याएं खुद सुलझा कर, उन की जयकार करता रहे।
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ऐसी आत्ममुग्धता, और बाल-बुद्धि, घोर अचेतावस्था और भोलापन है। यदि श्रीअरविन्द की कसौटी पर कसें, तो संघ परिवार मानसिक पराधीन है। इस का मुख्य कारण है: स्वधर्म-उपेक्षा और परधर्म-सेवा। स्वधर्म की रक्षा करने पर पराधीनता का बंधन अपने-आप टूट जाएगा। यह अलंघनीय प्राकृतिक नियम है। इस के बिना कोई संगठन कितना भी बड़ा लगे, वह भेड़-बकरियों की भीड़ से अधिक मोल नहीं रखता। चार जंगली कुत्ते भी उसे तहस-नहस कर देंगे।
अंत में, एक रोचक तथ्य यह भी है कि राम स्वरूप और सीताराम गोयल के बीच मात्र दो बिन्दुओं पर मतभेद था। गाँधीजी और संघ परिवार। सीताराम गोयल गाँधीजी को हिन्दू समाज के लिए विध्वंस (‘डिसास्टर’) और संघ को हिन्दू समाज का ‘अहित’ कारक संगठन मानते थे। जबकि राम स्वरूप संघ के पक्षधर थे। यहाँ तक कि संघ की आलोचना सुनना तक पसंद नहीं करते थे! ‘टाइम फॉर स्टॉक टेकिंग: ह्विदर संघ परिवार?’ (1997) पुस्तक में कुल 86 लेखकों के विचार हैं। उस में संघ के कई लेखक, कार्यकर्ता भी हैं। किन्तु उस में राम स्वरूप नहीं हैं। इतना अधिक वे संघ की आलोचना से दूर रहते थे।
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ऐसे ‘अपने’ आदमी, और महान हिन्दू चिंतक, की जन्म-शताब्दी पर भी संघ-परिवार के नेताओं या सत्ता ने एक औपचारिक बयान तक नहीं दिया! उन की स्मृति में कोई विद्वत संस्थान, कोई समुचित स्मारक, और उन का लेखन देश-विदेश में फैलाना तो दूर रहा। जबकि संघ परिवार के हाथ में दशकों से कई राज्य और एक दशक से अधिक केंद्रीय सत्ता भी रही है। निस्संदेह, ऐसी करनी सीताराम गोयल का दशकों पुराना मूल्यांकन पुनः प्रमाणित करती है कि संघ परिवार के नेता वज्रमूर्ख हैं।
पता नहीं, ऐसा कैसे हुआ। पर संघ परिवार सुविधा-पसंदगी और मात्र अपने संगठन के लिए लाभ उठाने में डूब चुका है। परनिन्दा, आत्मप्रशंसा और बाकी गोल-मोल बातें उन का कुल वैचारिक काम दिखता है। एक संप्रदाय रूप में वे मात्र अपने संगठन, पार्टी, नेता का प्रचार करते हैं। किन्तु संपूर्ण हिन्दू समाज का अगुआ होने का अहंकार पालते है। उन के साहसी और विवेकशील लोगों को पूरी स्थिति की समीक्षा करनी चाहिए। वरना, समय बहुत कम है।
उत्कृष्ट विश्लेषण। स्वर्गीय सीताराम गोयल की पुस्तक टाइम फॉर स्टॉक टेकिंग: ह्विदर संघ परिवार?’ (1997) के निष्कर्षों को वर्तमान डाटा से संपुष्ट करता हुआ। हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ।