संघ परिवार Sangh Parivar : सभी विशेषताएं कम्युनिस्ट वैचारिकता में रही हैं। यह न हिन्दू चरित्र है, न यूरोपीय लोकतांत्रिक। अतः संघ-परिवार अपने ही विचारहीन दुष्चक्र में फँसा है। उस के विवेकशील नेताओं को यह परखना चाहिए। वरना सदैव ‘व्यवहारिकता’ के लोभ में वे सर्वस्व गँवा सकते हैं। जो रूसी कम्युनिस्टों का हुआ।
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संघ-परिवार Sangh Parivar में ‘संघ-आयु’ मुहावरा चलता है। कि कोई कितने सालों से संघ में है? ऐसी भावना के विचित्र रूप भी दिखते हैं। पर बहुतेरे भले स्वयंसेवकों के लिए संघ ही सर्वस्व है। वे केवल ‘संघ’ पर सुखी-दुःखी होते हैं। देश, समाज के गंभीरतम विषयों पर भी उदासीन। इन विषयों में बड़े योगदान या हानि करने वाली कई ‘बाहरी’ हस्तियों के नाम भी अधिकांश स्वयंसेवक नहीं जानते। मानो देश या संघ का भवितव्य भी उस से स्वतंत्र है। 1. इस तरह, संगठन-पार्टी को मूल समझना कॉमरेड लेनिन का विचार था। उन्हीं से दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों में पहुँचा। जबकि पश्चिमी लोकतंत्रों में पार्टी समाज के एक मामूली अंग जैसी सीमित है। पार्टी नेताओं से बहुत अधिक महत्व उद्योग, साहित्य, कला, आदि के लोगों का है। वहाँ राजनीतिक दलों के लोग भी विविध सेवाओं के कर्मचारियों जैसे ही काम करते हैं। न विशेष सुविधाएं, न अधिकार। यह समानता की सहज भावना है। पार्टियाँ समाज के अधीन हैं, ऊँची या अलग नहीं। वस्तुतः हिन्दू मनीषियों ने भी पार्टियों की भूमिका मामूली ही मानी है। विवेकानन्द, श्रीअरविन्द, टैगार, अज्ञेय, आदि के लेखन इसके प्रमाण हैं। तिलक, मालवीय, गाँधी, जैसे नेता भी पार्टी को समाज से अलग विशेष महत्व नहीं देते थे। बल्कि संघ संस्थापक डॉ. हेगडेवार ने भी पार्टी नहीं बनाई, जब कि वे कांग्रेस पार्टी में रह चुके थे। अतः पहले तो संघ द्वारा अलग पार्टी बनाना ही हिन्दू विचार और हेगडेवार की विरासत से भी हटना था। फिर पार्टी-बंदी, यानी अपनी पार्टी विशिष्ट मानना तो घोर हानिकर है। यह देश-समाज के हित को गौण ही नहीं, लगभग ओझल कर देता है। नेतागण चौबीस घंटे बारह महीने पार्टी में ही मशगूल जीवन बिता देते हैं।इसे भी पढ़ें : संघ-परिवार: बड़ी देह, छोटी बुद्धि
2. पार्टी-बंदी कम्युनिस्ट अंधविश्वास है। यह समाज को नीचा मान उसे ‘दिशा दिखाना’ पार्टी की भूमिका मानता है। यही भाव आगे पार्टी की केंद्रीय समिति, या नेता को सर्वोपरि समझ-भंडार मान लेता है। रूस से आरंभ होकर यह सभी कम्युनिस्ट देशों में आया: पार्टी व नेता की भक्ति। उसी से जुड़ी पार्टी-लाइन की बीमारी। पार्टी/नेता जब जैसे चलाए, चलना। तदनुरूप पहले वाली बातें बदलना, छिपाना, लीपना-पोतना। अर्थात्, सत्य का सर्वथा लोप। 3. जनसंघ द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ रखने का समर्थन (1978), तथा नवगठित भाजपा का उद्देश्य ‘समाजवाद’ लिखना (1980) भी कम्युनिस्ट प्रभाव था। उस में गाँधीवादी एक विशेषण भर है। सो, गाँधीवादी समाजवाद को कोई अर्थ दें (जो कभी आधिकारिक दिया भी न गया), वह शब्द ही कम्युनिस्ट नकल है!इसे भी पढ़ें : संघ परिवार: सीताराम गोयल की चेतावनी
4. हर विषय में आर्थिक कारण बुनियादी मानना भी कम्युनिस्ट विचार है। तमाम समस्याओं, घटनाओं के पीछे गरीबी, अभाव, आदि कारक देखना। फलतः ‘विकांस’ के लिए कश्मीर या ‘अल्पसंख्यक’ मामलों में पैसा उड़ेलना। मानो कभी शुद्ध राजनीतिक, मजहबी कारक नहीं होते! इस नासमझी में विषैले मतवादों को और ताकत-संसाधन देते जाना।5. नैतिकता की अनदेखी कर पार्टी/संगठन के लिए ‘उपयोगिता’ को महत्व देना। फलतः अंदरूनी पाखंड को बढ़ावा और अनुचित कामों को सही ठहराना कि ‘अंततः अच्छा होगा’, जो कभी नहीं होता। सात दशक तक रूसी कम्युनिस्टों ने यही दलील दे-देकर रुसियों को चुप रखा था। 6. फिर वर्ग-भेद तो खाँटी कम्युनिस्ट सिद्धांत है। सदैव ‘हम’ और ‘वे’ की श्रेणियों में बाँट कर सोचना। भाजपा-कांग्रेस, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक, अमीर-गरीब, आदि करते रहना। मानो कोई सामान्य सामाजिक हित नहीं होते। इस दुर्भावना ने भारतीय संसद का भी सत्यानाश कर दिया है। बेचारे सांसद अपने पार्टी-नेता की हर सही-गलत पर ठप्पा लगाने के सिवा कुछ बोलने-करने से लाचार हैं। ऐसा यूरोप, अमेरिका में नहीं है! वहाँ सांसद देश के विचारशील प्रतिनिधि हैं। यहाँ पार्टी की भेड़-बकरियाँ।जीवन का लक्ष्य क्या, मृत्युलोक के दुखों से मुक्ति! कर्म किसलिए, अगले जन्म के लिए!… ऐसा स्वभाव, यह अध्यात्म सदियों की गुलामी में दिल-दिमाग, बुद्धि का कलियुगी रूपांतरण है। भटका स्वभाव-अध्यात्म और भटकी बुद्धि! @hsvyas https://t.co/VMifGhAgL3 via @nayaindianews #TuesdayFeeling
— Naya India (@nayaindianews) June 24, 2021