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बेबाक विचार

न्यायपालिका की फटकार

ByNI Editorial,
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नफरती भाषणों के साक्ष्य किसी याचिकाकर्ता को क्यों इकट्ठे करने चाहिए? सरकार अगर मानती है कि सभी धर्मावलंबियों की तरफ से नफरती भाषण दिए जा रहे हैं, तो वह खुद इनके साक्ष्य इकट्ठा कर कार्रवाई क्यों नहीं कर रही है?

 कभी न्यायिक टिप्पणियों को सरकार की जवाबदेही तय करने का एक प्रमुख माध्यम समझा जाता था। प्रतिकूल टिप्पणियां सरकारों की शर्मिंदगी का कारण बनती थीं और कई बार तो मंत्रियों को इनकी वजह से इस्तीफा देने की नौबत आ जाती थी। लेकिन यह तब की बात है, जब भारतीय लोकतंत्र को एक जीवंत प्रयोग के रूप में देखा जाता था। अगर वह दौर होता, तो नफरती भाषणों के मामले में सुप्रीम कोर्ट की ताजा टिप्पणियां केंद्र सरकार के लिए मुसीबत का सबब बन जातीं। आखिर कोर्ट ने यह कह दिया कि ऐसे भाषणों को रोकने में सरकार निशक्त साबित हुई है। एक जज ने यह सवाल भी उठाया कि अगर यह सब खुलेआम चल रहा है, तो आखिर सरकार है किसलिए? पिछले साल अक्टूबर में सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा था कि संविधान भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में देखता है। कोर्ट ने दिल्ली, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड सरकारों को अभद्र भाषा के मामलों पर सख्त कार्रवाई करने और शिकायत की प्रतीक्षा किए बिना दोषियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज करने का निर्देश दिया था। जबकि ताजा मामले में याचिकाकर्ता की तरफ से महाराष्ट्र में कई रैलियों में दिए गए नफरती भाषणों के संबंध में प्रकाशित समाचार का हवाला दिया।

तब कोर्ट की बेंच ने कहा- “हम समझते हैं कि क्या हो रहा है, यह गलत समझ नहीं बननी चाहिए कि हम चुप हैं।” सरकार की तरफ से उपस्थित सॉलिसिटर जनरल ने मामले को दूसरी दिशा देने की कोशिश की। उन्होंने  कहा- “अगर हम वास्तव में इस मुद्दे के बारे में गंभीर हैं तो कोर्ट कृपया याचिकाकर्ता को निर्देश दे कि वह सभी धर्मो में नफरत फैलाने वाले भाषणों को इकट्ठा करे और समान कार्रवाई के लिए अदालत के समक्ष रखे।” बहरहाल, यह सवाल सरकार से पूछा जा सकता है कि यह काम किसी याचिकाकर्ता को क्यों करना चाहिए? सरकार अगर मानती है कि सभी धर्मावलंबियों की तरफ से नफरती भाषण दिए जा रहे हैं, तो वह खुद इनके साक्ष्य इकट्ठा कर कार्रवाई क्यों नहीं कर रही है? ऐसे सवालों को भटकाने की कोशिश से दरअसल सरकार की मंशा पर सवाल उठते हैँ।

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