मई में खूब पानी बरसा, आंधी चली और बिजली चमकी। मौसम जितना सुहाना था उतना ही मनमौजी भी। गर्मी का मौसम बरसात के मानिंद लग रहा था और दिल्ली, लन्दन जैसा। श्रीनगर में मई में अक्टूबर का आभास हो रहा था। आकाश में बादल थे, आसमान का रंग धूसर था और लोग फिरन, पश्मीना और गर्म पानी की बोतलों का इस्तेमाल कर रहे थे। ये बेमौसम का सुहाना मौसम, दरअसल, डरावना है और हमें बताता है कि ग्लोबल वार्मिंग कितना गंभीर रूप अख्तियार कर चुकी है। ऐसा बताया जा रहा है कि जून में जलाने वाली गर्मी पड़ेगी।
इस बेमौसमी मौसम का नतीजा यह है कि हम ज्यादा बीमार पड़ रहे हैं। परन्तु इसका सबसे बुरा असर किसानों और खेती पर पड़ रहा है। बेमौसम के मौसम से फसलें बर्बाद हुई हैं।अगली सबसे ज्यादा प्रभावित फसल है धान।बांग्लादेश की खबर है कि मानसून न पहुंचने से, धरती के गर्माने के साथ धान के कटोरे चटकने लगे हैं।यह अब आम अनुभव है कि जिस समय धान के अंकुर को पानी की ज़रुरत होती है तब पानी बरसता नहीं है और जब छोटे पौधों को पानी की सतह से ऊपर झांकना चाहिए तब इतनी बरसात होती है कि वे डूब जाते हैं। समुद्र का खारा पानी तटीय इलाकों में घुस जाता है।
परन्तु धान की फसल क्लाइमेट चेंज की केवल पीड़ित ही नहीं है बल्कि उसका कारण भी है। धान के खेतों से बड़े पैमाने पर मीथेन निकलती है जो कि एक ग्रीनहाउस गैस है। जो फसल दुनिया की 60 फीसद आबादी को भोजन और जीवनयापन का साधन मुहैया करवाती है, वही मानवता के लिए खतरा बन गयी है। चीन, भारतीय उपमहाद्वीप, पूर्वी एशिया और अफ्रीका में चावल रोजाना के भोजन का हिस्सा है। दुनिया के इन्हीं इलाकों की आबादी तेज़ी से बढ़ रही है। जाहिर है कि इससे चावल की मांग बढ़ेगी। परन्तु क्लाइमेट चेंज के कारण उत्पादन घटेगा। इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टिट्यूट (आईआरआरआई) के वैज्ञानिकों के अनुसार, ग्लोबल वार्मिंग का जितना असर धान की फसल पर पड़ेगा उतना किसी और फसल पर नहीं पड़ेगा। सन 2004 में हुए एक अध्ययन से पता चला था कि न्यूनतम तापमान में एक डिग्री की बढोत्तरी से उत्पादन में 10 प्रतिशत की कमी आ जाती है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्रों का जलस्तर बढ़ने से वियतनाम के मेकोंग डेल्टा के निचले हिस्सों में खारा पानी घुस रहा है और धान का उत्पादन गिर रहा है। मेकोंग डेल्टा, जिसे वियतनाम का धान का कटोरा कहा जाता है, में ढाई लाख एकड़ ज़मीन धान की फसल लेने लायक नहीं रह गयी है। पाकिस्तान, जो दुनिया का चौथा सबसे बड़ा चावल निर्यातक है, में पिछले साल आई भीषण बाढ़ के कारण धान की 15 प्रतिशत फसल नष्ट हो गयी थी।
इस साल मौसम के कारण पूरी दुनिया में चावल का उत्पादन कम होने वाला है। और जो उत्पादन होगा भी, वह ग्लोबल वार्मिंग को और बढ़ाएगा। धान के खेतों में पानी भर दिया जाता है। इससे मिट्टी को ऑक्सीजन नहीं मिलती और ऐसी मिट्टी मीथेन छोड़ने वाले बैक्टीरिया के फलने-फूलने के लिए उपयुक्त होती है। फिर, पोषण की दृष्टि से भी चावल में कुछ ख़ास नहीं है। चावल में ढेरों ग्लूकोस होता है, जो खाने वाले को मोटा बनाता है और उसके डायबिटीज के शिकार होने की सम्भावना बढ़ जाती है। आयरन और जिंक, जो कि हमारे शरीर के लिए ज़रूरी माइक्रो न्यूट्रीएंट्स में से सबसे महत्वपूर्ण हैं, चावल में बहुत कम मात्रा में होते हैं। भारत और दक्षिण एशिया में डायबिटीज और कुपोषण में बढोत्तरी को इस इलाके में चावल जम कर खाए जाने से जोड़ा जाता है। इस समय ज़ोर गेहूं-चावल की जगह रागी और बाजरा जैसे मोटे अनाज (मिलेट्स) के उपभोग पर है। भारत के अनुरोध पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2023 को ‘इयर ऑफ़ मिलेट’ घोषित किया है। ऐसी उम्मीद है कि किसान और उपभोक्ता दोनों मिलेट्स की ओर आकर्षित होंगे जो कि न केवल गेहूं और चावल की तुलना में अधिक पोषक हैं वरन इन्हें उगाने में कम पानी लगता है। इंडोनेशिया भी मिलेट्स के उत्पादन को बढ़ावा दे रहा है।
परन्तु चावल को पूरी तरह से छोड़ना संभव नहीं है। क्या हम बिरयानी या कश्मीरी पुलाव के बगैर रह पाएंगे?
इसलिए इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टिट्यूट और अन्य रिसर्च संस्थाओं के वैज्ञानिकों ने धान की ऐसी किस्में विकसित की हैं जो बाढ़, सूखे और गर्मी को बर्दाश्त कर सकती हैं। उनकी उत्पादकता ज्यादा है, मौसम से उन्हें बहुत फर्क नहीं पड़ता और उन्हें कम पानी की ज़रुरत होती है। धान की बुआई के नए तरीके भी विकसित किये जा रही हैं। इनमें शामिल हैं ‘डायरेक्ट सीडिंग’ अर्थात छोटे पौधों को ट्रांसप्लांट करने से मुक्ति जिससे पानी और श्रम की ज़रुरत कम हो जाए। एशिया के कई देशों में हुए प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि इससे पर्यावरण को कम नुकसान होता है और उत्पादन बढ़ जाता है। जर्नल ऑफ़ फ़ूड पालिसी में 2021 में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, बांग्लादेश में जिन किसानों ने धान की सब-1 नामक किस्म उगाई, उनका उत्पादन 6 फीसद और मुनाफा 55 फीसद बढ़ गया।
ग्लोबल वार्मिंग भोजन चक्र और मानवता के लिए बड़ा खतरा है। मौसम विज्ञान के जानकार कहते हैं कि अन्य महाद्वीपों की तुलना में एशिया के रहवासियों को इससे ज्यादा खतरा है। वजह यह कि यहाँ जनसंख्या घनत्व ज्यादा है और लोगों के पास प्रचंड गर्मी या कडकडाती सर्दी से मुकाबला करने के लिए साधनों की कमी है। इस साल दुबई में कोप-28 सम्मेलन होने जा रहा है। इस सम्मेलन में 2015 के बाद पहली बार यह आकलन किया जायेगा कि पेरिस में उस साल आयोजित क्लाइमेट कांफ्रेंस में अलग-अलग देशों ने जो वायदे किये थे, उन्हें किस हद तक पूरा किया गया है। यह ग्लोबल स्टॉकटेक, क्लाइमेट चेंज को रोकने की दिशा में प्रयासों में एक मील का पत्थर होगा।
यदि हम अब भी नहीं सम्हले तो वसंत में गर्मी होगी और गर्मियों में ठण्ड पड़ेगी और पानी गिरेगा। ग्लोबल वार्मिंग हमारी दुनिया की सबसे बड़ी और असल समस्या है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)