अंतिम पड़ाव.. सबका अंतिम सत्य।.. पर हे राम!.. सत्य?.. कहां है 21वीं सदी के सन् 21 के श्मशान में सत्य? श्मशान पर तो मृत्यु के सत्य पर पर्दा है! दंडनीय अपराध है अर्थियों की सत्य संख्या जानना..बताना..अर्थियों-चिताओं के फोटो-वीडियो बनाना, ड्रोन से तस्वीर लेना....जाहिर है मृत्यु और विलाप का राम नाम सत्य सन् इक्कीस में अर्थियों की गुमनामी में दबाया जा रहा है। वह पापी है जो शहर, जगत को बताता मिले कि इतने जन मरे, इतने परिवार उजड़े! वर्जित है राम नाम के सत्य का शोर बनाना, देश-दुनिया में रूदाली बनवाना.. मौत नहीं उत्सव, निगेटिविटी नहीं पॉजिटिविटी... महाश्मशान! हिंदुओं की मोक्ष नगरी बनारस का मोक्ष स्थल... मणिकर्णिका घाट। महाश्मशान का, मुक्ति यात्रा का यह अंतिम प्लेटफॉर्म अनादि काल से डोम राजा के महाप्रबंधन में है। उसी की परंपरा में हिंदू समाज की हर बस्ती वह श्मशान लिए हुए है जो जीवन के सोलहवें और अंतिम संस्कार का अग्निदाह प्लेटफॉर्म है...अग्निदाह उन पांच तत्वों का, उन ज्ञानेंद्रियों, कर्मेंद्रियों, उन पदार्थों का जिनकी जैविक रचना से, मन-बुद्धि-सत्य से जीवन जीया गया ...इनका अग्निदाह है तभी मोक्ष, मुक्तता का अंतिम सफर!.... जीवन के अंत पर अंतिम सफर का कैसा यह अद्भुत सनातनी विचार, यह संस्कार! लेकिन संस्कार बिना अर्थी नाम, बिना मुखाग्नि के तो नहीं हो सकता....लेकिन.. हत् भाग्य सन इक्कीस के महाश्मशान का जो डोम राजा पर्दा बना बैठा है, सत्य छुपा रहा है अर्थियों का! तभी नहीं जगजाहिर हो अर्थियों की संख्या!...डोमराजा जीवन-मृत्यु के चक्र की सुनामी से, अर्थियों की कतार से थका है, घबराया है तभी श्मशान के प्रवेश द्वार पर ‘सत्य वर्जित’ का बोर्ड! फोटो खींचना, सत्य बताना दंडनीय अपराध...परिजन लाचार हैं अर्थी खिसका कर चल देने को... आंखों पर पट्टी धारने को, संवेदनाओं का श्मशान द्वार पर तर्पण करने को और कर्म-कांड छोड़ देने को..डोम राजा की सत्ता है श्मशान, वह जो चाहेगा वह होगा.... उसने जो कहा वहीं राम नाम सत्य, उसने जो किया वहीं हिंदू की सद्गति..... या सन् इक्सीस का हत् भाग्य! श्मशान! अंतिम यात्रा का अंतिम प्लेटफॉर्म...परिजन साइकिल पर अर्थी को ढोता प्रवेश द्वार बाहर आ खडा है...भीड़ देख बुदबुदा रहा है अर्थी कैसे अंदर घुसाएं... इतनी भीड़... कोई तो साथ होता... प्लेटफॉर्म के टिकट-लकड़ी-चंदन के लिए पैसे नहीं.. क्या श्मशान किनारे, प्रवेश द्वार से अंदर अर्थी खिसका कर चल देना संभव?.. कतार लगी है उसी की लाइन में अर्थी सरका दें.. फूंक जाएगी। उधर कुछ परिजन प्रवेश द्वार पर एंबुलेंसों की कतार में कभी अर्थी पर, कभी प्लेटफॉर्म की भीड़ पर अपलक निगाह टिकाए बुदबुदा रहे हैं कैसे अकेले चिता सजाऊंगा... नंबर कब आएगा......प्लेटफॉर्म पर दो गज की चिता..जगह-लकड़ी-पंडित और मुखाग्नि… सब कैसे होगा!... पिता की अर्थी, पत्नी की अर्थी, बेटे की अर्थी... परिजन की अर्थी को अंतिम यात्रा के लिए छोड़ने आया वह जिंदा शरीर न रो पा रहा है, न सिसक रहा है अपलक प्लेटफॉर्म पर जगह, सीट को तलाश रहा है, फोन से जानना चाह रहा है कैसे हो डोम राजा से जुगाड़....जिससे जीवन मिला, जिससे सांस मिली उसे कंधा देता (?) परिजन श्मशान में और श्मशान के दरवाजे जितना अकेला और असहाय अपने को आज पा रहा है तो क्या श्मशान का नया अर्थ नहीं बन रहा? श्मशान! हे राम....हिंदू के जीवन की अंतिम कतार.... 21वीं सदी में कतार का मारा हिंदू सन् इक्कीस में श्मशान में भी कतार में लगेगा ...यह सत्य असंख्य चिंताओं की चिताएं बनाए हुए है.. अंतिम कतार की त्रासदी में घुल-घुल कर जिंदा जीवन का भी मरना है.. मैं दहल गया अपने स्तंभकार विष्णु प्रिया सिंह से फोन पर यह सुन कर कि वह श्मशान (दिल्ली की सीमापुरी) से लौट कर फोन कर रहे हैं.. रात दो बजे ससुर का कोरोना से देहांत हुआ...अस्पताल ने उनके बेटे को चेहरा दिखाया और अर्थी सीलबंद की... लेकिन एबुंलेंस देने से इनकार किया...परिवार को समझ न आए एबुंलेंस-शवदाह गाड़ी का कहां से हो प्रबंध... घंटों फोन खड़खड़ाते रहे... सुबह किसी ने ध्यान दिलाया संटी का...विष्णु संटी (सरदार जितेंद्र सिंह संटी) को जानता था, उन्हें फोन किया तो भरोसा मिला ज्योंहि श्मशान में जगह बनती दिखेगी मैं गाड़ी भेज दूंगा। मेरे लोग खुद अर्थी को फ्लैट से नीचे (पड़ोसी पीपीई किट आदि के बावजूद अर्थी को कंधा याकि नीचे उतार, गाड़ी में रखने की मदद को तैयार नहीं) उतार लेंगे ..सुबह नौ बजे संटी के तीन लोग और गाड़ी आई, अर्थी ले बेटा-बेटी श्मशान पंहुचे... संटी की इंसानी टीम अर्थी को अंदर ले कर गई.. तब तक 24 और अर्थियां आ चुकी थीं... बेटा-बेटी कुछ ही मिनटों में कंपकंपाते श्मशान से बाहर निकले (विष्णु अपने स्वास्थ्य के कारण बाहर कार में बैठे रहने को मजबूर था) अर्थियां ही अर्थियां क्या करें... क्या होगा? पर संटी क्योंकि पुराना जानकार था, उसने धैर्य बंधाया... कोई दो बजे डेढ़-डेढ़ फुट की दूरी पर छह-छह अर्थियों की एक साथ चिता जलाने के दो-तीन लॉट के बाद ससुरजी की अर्थी का नंबर आया और अग्निदाह शुरू होने के बाद ये परिजन घर लौटे...तब तक अर्थियों की कतार बनते-बढ़ते देखते रहे... शाम सात बजे संटी ने फोन कर अस्थि फूल चुनवाए और उन्हें परिजनों ने यमुना में प्रवाहित किया।... विष्णु ने बार-बार संटी.. संटी... संटी...का नाम ले कहा यदि उससे परिचय न होता, उसका जुगाड़ न बना होता तो अर्थी कैसे ले जाते, कैसे फ्लैट से उतारते और कब अग्निदाह होता।... सिख सरदार संटी और उनका भगत सिंह सेवा दल जैसे सचमुच के कुछ इंसान चंद श्मशानों में भले लावारिस अग्निदाह से हिंदुओं को बचाए हुए हैं लेकिन पूरे देश के श्मशानों में अर्थियों की कतार (फिलहाल लकड़ी-श्मशान-पंडित चार्ज-मृत्यु सर्टिफिकेट और बेचारे गरीब-गंवार परिजनों के अनुभव का ख्याल ही न करें) मानव मृत्यु को भी मारती हुई है.... ऑक्सीजन से लेकर अर्थी की कतार तक जिस त्रासद अनुभव से जिंदा परिजन गुजर रहे हैं वह न हिंदू का सोलहवां संस्कार है और न मानव व्यवस्था है। श्मशान हो गए हैं लावारिस नस्ल का लावारिस......! श्मशान! विश्राम-शांति का अंतिम पड़ाव... महाभारत हो, महायुद्ध, महामारी काल हो या सहज काल सदा-सदैव यह स्थल वह रहा है, जहां मानव से मानव को गरिमा के साथ अंत्येष्टि गारंटीशुदा है! क्यों? इंसान और पशु में फर्क होने से। भले जन्म दोनों का एक सा (हालांकि इंसान ने जन्म के संस्कार भी बनाए हुए हैं) लेकिन मृत्यु पर मृत्यु संस्कार, श्मशान, अंत्येष्टि, अग्निदाह या सुपुर्द-ए-खाक, अस्थि विर्सजन वह फर्क है, जिससे मानव, मानव रूप में सद्गति को प्राप्त होता है।... तभी अंतिम पड़ाव और हिंदुओं के सोलहवें संस्कार के स्थान का नाम है श्मशान!... दुनिया की हर कौम और शायद वैश्विक मानवाधिकारों में भी सर्वमान्य वैश्विक कानून यह है कि इंसान को इंसान की गरिमा के साथ मृत्यु का अधिकार प्राप्त है? गरिमा से अंतिम संस्कार होना चाहिए। क्या हिंदुओं को, भारत के नागरिकों को, भारत के हाई कोर्टों, सुप्रीम कोर्ट को मालूम है कि मानव का अंतिम संस्कार मानवीय गरिमा से यदि नहीं है तो वह पाप है और फिर वह देश, वह कौम, वह राष्ट्र-राज्य मानव रचना नहीं है, बल्कि पशु जगत का भेड़-बकरी बाड़ा है! श्मशान! मानव गरिमा की अंतिम चाह… क्या नहीं?.. इंसान कोई हो यदि वह इंसान है तो मन ही मन जीवन भर सोचेगा कि वह जब प्राण छोड़े तो शांत चित् वह सब हो जो मुक्त-मोक्ष की बात में मानी-बताई जाती है। अर्थी को कंधा हो, कंधों में इतना सामर्थ्य हो जो चिता, मुखाग्नि, कपाल क्रिया, अस्थि विसर्जन और नाम के साथ एक प्रार्थना अंतिम यात्रा के लिए कर दे!... बतौर इंसान, इंसान की यह चाहना जाग्रत चेतना का सहज स्वभाविक अधिकार है…. क्या यह महामारी के वक्त संभव नहीं है? हैं और प्रमाण हैं अमेरिका, इटली से लेकर ब्राजील के उन तमाम कब्रिस्तानों में, सीमेंट की परतों में ताबूत दफनाएं जाने की एक्सट्रिम तस्वीरों में भी! कैसे? इसलिए कि इन इंसानी समाजों में मौत नहीं छुपाई गई। ब्राजील पर यह विलाप नहीं बना कि दफनाए गए लोगों की संख्या छुपाई जा रही है। सरकार ने हल्ला नहीं बनाया कि कब्रिस्तान के फोटो देश और सरकार को बदनाम करने के लिए हैं। न्यूयॉर्क के गर्वनर कुमो ने कब्रिस्तान, इटली के प्रधानमंत्री ने चर्च के बाहर एक-एक कर ताबूतों पर पादरी द्वारा की जा रही मृतात्मा शांति की प्रार्थना (एक ताबूत, एक परिजन, एक पादरी) के फोटो, वीडियो प्रसारित होने पर आपत्ति नहीं की। और मृतकों का उठावना राष्ट्रीय श्रद्धांजलि (न्यूयॉर्क टाइम्स द्वारा एक लाख  मौतों पर सबका नाम लिख कर श्रद्धांजलि विशेषांक, ब्राजील के रियो समुद्री किनारे कब्रों का प्रतीकात्मक कब्रिस्तान बना एनजीओ द्वारा श्रद्धाजंलि या अमेरिका के राज्यों के गांव, काउंटीज में महामारी में मरे लोगों के फोटो-नाम से सूचना देते मृतक स्मारक आदि) हर संभव तरीके की संवेदना अभिव्यक्ति के साथ है। भला क्यों? क्या इसलिए नहीं कि मानव समाज का मानव यह मानवीय चाहना तो लिए हुए होगा कि उसकी अंतिम यात्रा लावारिस पशु जैसी न हो... कुछ तो वह हो जो लावारिस मृत्यु का टैग लिए हुए न हो। श्मशान मुक्ति का द्वार… हां, मैं सनातनी इंसान सबसे विनती करूंगा, प्रार्थना करूंगा कि श्मशान को अपना संकल्प बनाएं... श्राप दे उन चेहरों, उन लोगों, उन आंडबरों को, उस व्यवस्था को जिसने हिंदू के श्मशान को झूठ का, कलंक का पर्याय बनाया है।.... हे ईश्वर उन सब लोगों को, संटी जैसे उन सचमुच के इंसानों को, दुनिया के उन तमाम मीडियाकर्मियों, फोटोग्राफरों, सत्यवादियों को वह सुख, वह मोक्ष, वह मुक्ति, वह पुण्य मिले, जिनसे हिंदू का श्मशान दुनिया की चिंता बना है और मानवता विचलित है। मैं विचलित हूं और मेरी कामना, हर सनातनी हिंदू की कामना अब यह होनी चाहिए कि यदि महामारी में मृत्यु हो तो कोई गम नहीं लेकिन अगला जन्म होता है तो झूठ-मौत के नरपिशाचों के बीच न हो, बल्कि पृथ्वी पर वहां हो जहां लोग सनातनी जीवन के सत्य में जीते हैं और जीते हुए बतौर मानव व्यवहार करते हैं... हे मेरे श्मशान.. मेरी अंतिम यात्रा वह पुनर्जन्म न बनवाए, जहां नरपिशाचों ने श्मशान को भी लावारिस, गुमनाम मौत का प्लेटफॉर्म बना डाला है!
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